Tuesday, January 25, 2011

वसुंधरा पाण्डेय की कविता का रंग

 वसुंधरा पाण्डेय का नाम इंटरनेट साहित्य में भी बहुत ही गर्व से लिया जाता है. गहरी से गहरी बात को भी बहुत ही सादगी से कहने की कला में उसे मुहारत हासिल है. इस दुनिया में 13 अप्रैल 1974 को आई तो लगा जैसे वैशाखी की खुशियाँ साथ लेकर ही आई. इस दिन पर...इस त्यौहार पर खुशियाँ मनाई जाती हैं....पंजाब के लोग भांगड़ा भी डालते हैं लेकिन इस मौके पर शहीदों को भी याद किया जाता है, उनकी कुर्बानियों का भी ज़िक्र होता है....इस लिए एक दर्द वसुंधरा पाण्डेय की रचनायों में भी महसूस होता है.  दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर यूनीवर्सिटी में अध्यन करने के बाद आज कल अलाहाबाद में रह रही वसु जब कलम उठाती है तो कोई यादगारी रचना इस पूरे समाज को दे जाती है जो बार बार सोचने को मजबूर करती है... ज़रा देखिये उनके ख्यालों का रंग.... उनकी उड़ान...उनकी कविता की एक झलक:  
   पेड़ को 'मौत' नहीं आती है...
'पत्ते'... 'रोज' गिरा करते हैं...!!
    ---०००---
ये बोनसई कितना बड़ा कितना छोटा 
"बोनसई"
नाम दिया मेरा बोनसई
क्यूँ ???
तुम जानते हो
मै बहुत बड़ी हूँ
लेकिन तुम्हारे
संकुचित बिचारों के
वजह से मै यंहा हूँ
तुम चाहते नहीं की
तुम मेरा वो रूप देखो
इसलिए तुम कर दिए
कैद मुझे -एक छोटे से
मिटटी के बरतन में
छोड़ के देखो मुझे
खुले जमीन में !
मुझे देखने के लिए
तुम्हे उठानी पड़ेगी नजरें -
दूर बहुत ऊपर तक जो की
तुम नहीं चाहते
अपनी ख़ुशी
शान ,और अहंकार के कारण
दिखाते हो सजा के
अपने घर के क्यारी में मुझे
डर है तुम्हे कंही मै छू न लूँ
आसमान
और तुम रह जावो जमीन पर...!

       -----०००---

मेरी लुप्त पहचान , एक चिट्ठी माँ के नाम

माँ --
तुमने सदैव कहना नहीं ,सहना हीं सिखाया है
दरवाजों के बंद पोखरों में झांकना
दूसरों के लिए स्वयं को तब्ब्दिल कर देना ,
मौन रह कर जरुरत पर जरुरत, बने रहना
छिनना नहीं बस मांगना सिखाया ,
प्रारम्भ से अंत तक
धुरी रही तुम मेरी
और काटती रही चक्कर ,पृथ्वी की भांति
तुमसे हीं बदले मेरे दिन और रात
करती रही एक अनवरत यात्रा
बेवजह ,
दबा दी मेरी इच्छाएं पुराने कपड़ो की तरह
और जोड़ना सिखाया कतरनों पर कतरने
माँ -
तुमने सदैव उगता नहीं ,ढहता सूरज ही दिखाया
कहना नहीं बस सहना सिखाया ,
वनस्पतियों सा जीवन मरुअस्थल बन गया
उग आयी उसमे कटीली झाड़ियाँ
देखते हीं देखते मिट गया अस्तित्व मेरा ,मेरे हीं भीतर
न दी कोई सीढ़ी ,न बनाया संबल
तुम्हारा प्यार मुझ तक आते -आते समाप्त हो जाता क्यों माँ ?
तुमने तोड़ना नहीं बस जोड़ना सिखाया
बना डाला मजबूर ,जीने के लिए जीवन.
~~~~000~~~~~~

आपको वसुंधरा पाण्डेय की कविता का यह रंग किया लगा अवश्य बताएं. आपके विचारों की इंतज़ार उर बार की तरह इस बार भी रहेगी. --रेक्टर कथूरिया 

Monday, January 24, 2011

गांधी, गोडसे और देश

आज अचानक ही फेसबुक पर एक ऐसी इवेंट का आमंत्रण नज़र आया जिसे देखने के बाद दिल-ओ-दिमाग में बहुत कुछ कौंध गया. एक ऐसा देश जहां महात्मा गांधी की तस्वीर को बहुत सम्मान से करंसी पर भी छापा जाता है, कार्यालयों में भी लटकाया जाता है, कुछ लोग उसे लोग बापू कहते भी नहीं थकते, राष्ट्रपिता का सम्मान भी उसी महात्मा को...अजीब बात है जिसे अहिंसा का देवता कह कर पूजा जाता है उसी के देश में आज आजादी और निर्भयता से चलना मुश्किल हो गया है, कब कोई गोली मार दे, कब कोई छुरा घोंप दे, कब कोई किसी का भ अपहरण कर ले...कुछ भी नहीं कहा जा सकता...आम आदमी पूरी तरह असुरक्षित हो गया है.उस  देश की सरकारें दारू की बिक्री से आमदनी बढ़ाती हैं....और बेचारे बेबस लोग कुछ नहीं कर पाते. जगह जगह मजबूरी और जगह जगह अन्याय....सोच रहा था यह कैसी सन्तान है उस बापू की.....? बात चली थी  फेसबुक पर एक  इवेंट की जिसका ज़िक्र करने से पूर्व आप एक गज़ल पढ़िए जिसे लिखा है मेरठ के नवीन त्यागी ने 
बर्फ के पन्नो पे लिखकर,इक इबारत आग की। 
फ़िर रहा करता शहर में, मै तिजारत आग की। 
बर्फ से गलते शहर में , ढूँढ़ते जो आशियाँ। 
बांटता मै फ़िर रहा,उनको इमारत आग की। 
ढेर पर बैठा हुआ मै ,लिख रहा तहरीर हूँ। 
ले जाए जिसको चाहिए,जितनी जरूरत आग की। 
तकदीर मे जिनके लिखा है,बस अँधेरा हर तरफ़। 
सिखला रहा करना उन्हें ही,मै इबादत आग की। 
लिखने गजल को जब उठाता,मै कलम को हाथ में। 
लगती उगलने आंच ये,लेके बगावत आग की।
अब लौटते हैं बापू पर. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर. जिन्हें  30 जनवरी 1948 की शाम को गोली मार कर शहीद कर दिया गया. गोली चलाने वाले युवक नाथू राम गौडसे ने वहां ऐ भागने का भी कोई प्रयास नहीं किया और न ही किसी और पर गोली चलाई. साफ़ ज़ाहिर है की उसने यह काम बहुत ही सोच समझ कर और संतुलन में रहते हुए किया होगा. पर ऐसा क्या था कि 80 बरस की उम्र में एक महात्मा को गोली मार दी गयी. मुझे यह सब कुछ आज याद आया इस इवेंट को देख कर जिसका आयोजन किया जा रहा है हिंदुत्व का प्रयास और अन्य सहयोगियों के सहयोग से अंकित Therealscholar और   स्वाति  Kurundwadkar की ओर से. अगर आप  इस इवेंट के बारे में जानना चाहते हैं तो इस लिंक पर क्लिक करें  जिसका नाम है गोडसे शौर्य दिवस लिखा है,"आप सभी राष्ट्रवादी मित्रों से निवेदन है की नाथूराम विनायक गोडसे के शौर्य दिवस पर भारत माता के इस सच्चे सपूत को श्रद्धांजली अर्पित करने के लिए 26 जनवरी से 30 जनवरी तक फेसबुक पर अपने प्रोफाइल के चित्र के स्थान पर इस महापुरुष का चित्र लगायें तथा इस काल खंड (26 से 30 जनवरी तक ) में फेसबुक के अपने सभी मित्रों को इस महान आत्मा के सम्बन्ध में अधिक से अधिक जानकारी अपने लेखों तथा अपनी फेसबुक स्थिति (status)की सहायता से दें तथा इस कथित भारत सरकार द्वारा इस महान देशभक्त के छवि को ख़राब करने के आज तक के समस्त प्रयासों के प्रभाव को समाप्त करने का अपनी शक्ती के अनुसार पूरा प्रयास करें | आप सभी से निवेदन है की अधिक से अधिक मित्रों को राष्ट्रभक्ति के इस महायाग्य में आहुति देने के लिए प्रेरित करें |"
जो लोग गोडसे के विचारों को नहीं जानते उन के लिए यह सब बहुत ही हैरानी की बात हो सकती है. आओ  देखते हैं उन विचारों की एक झलक जिनके चलते एक महात्मा पर गोली चली. आग जैसे ख्यालों को कागज़ पर उतारने वाले नवीन त्यागी अपने ब्लॉग में उन कारणों की चर्चा भी करते हैं.नवीन त्यागी कहते हैं,   "नाथूराम गोडसे एक ऐसा नाम है जिसको सुनते ही लोगो के मस्तिष्क में एक ही विचार आता है कि गाँधी का हत्यारा। हमारे इतिहास में भी गोडसे का इतिहास एक ही पंक्ति में समाप्त हो जाता है। गोडसे ने गाँधी वध क्यों किया, इसके पीछे क्या कारण रहे , इन बातों का कही भी व्याख्या नही की जाती।"
वह अपने ब्लॉग में आगे कहते हैं ," गोडसे ने गाँधी के वध करने के १५० कारण न्यायालय के समक्ष बताये थे। उन्होंने जज से आज्ञा प्राप्त कर ली थी कि वे अपने बयानों को पढ़कर सुनाना चाहते है । अतः उन्होंने वो १५० बयान माइक पर पढ़कर सुनाए। लेकिन कांग्रेस सरकार ने (डर से) नाथूराम गोडसे के गाँधी वध के कारणों पर बैन लगा दिया कि वे बयां भारत की जनता के समक्ष न पहुँच पायें। गोडसे के उन बयानों में से कुछ बयान क्रमबद्ध रूप में, में लगभग १० भागों में आपके समक्ष प्रस्तुत करूंगा। आप स्वं ही विचार कर सकते है कि गोडसे के बयानों पर नेहरू ने क्यो रोक लगाई ?और गाँधी वध उचित था या अनुचित।"
इन कारणों के पहले भाग को पढ़ने के लिए आप यहां क्लिक करें और दूसरे भाग को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. अगर आप इसी विषय पर अंग्रेजी में कुछ पढ़ना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें. आप इस मुद्दे पर क्या सोचते हैं, क्या कहना चाहते हैं....इस पर आपके विचारों का इंतज़ार रहेगा ही. अपने विचार भी प्रेषित करें और मित्रों के विचार भी भेजें व भिजवाएं. --रेक्टर कथूरिया 

Sunday, January 23, 2011

नमी इन आँखों की जाती ही नहीं....



नारी जीवन और नारी मन की बहुत सी उलझनें आज भी अनसुलझी पड़ी हैं. कहीं उन पर समाज का डर है, कहीं परम्परायों  का, कहीं असुरक्षा के इस माहौल का और कहीं लुट जाने के बाद भी बार बार अपमानित करने वाले इस सिस्टम का. यह सब कुछ लम्बे समय से जारी है और साथ ही जारी है इसके खिलाफ आवाज़ बुलंद करने का सिलसिला. जिन नारी लेखिकायों ने इसे एक कर्तव्य समझ कर कलम उठाई उनमें अलका सैनी का नाम भी आता है. चंडीगढ़ की सुंदर घाटियों में जन्मी अलका सैनी को प्रकृति प्रेम और कला के प्रति बचपन से अनुराग रहा। कॉलेज जमाने से साहित्य और संस्कृति के प्रति रूझान बढ़ा। पत्रकारिता जीवन का पहला लगाव था जो आजतक साथ है। खाली समय में जलरंगों, रंगमंच, संगीत और स्वाध्याय से दोस्ती, कलम की यात्रा पर पूछा जाये तो अलका का जवाब होता है: न मैं कोई लेखिका हूँ ,न मैं कोई कवयित्री , न मेरी ऐसी कोई खवाहिश है , बस ! ऐसे ही मन में एक उमंग उठी, कि साहित्य -सृजन करूँ जो नारी-दिल की व्यथा को प्रकट करें एक सच्चे दर्पण में , एक आशा के साथ , कवि की पंक्तियों कि कभी पुनरावृति न हो , हाय ! अबला तेरी यही कहानी , आँचल में है दूध और आँखों में पानी. अब अलका सैनी को इस मामले में कहां तक सफलता मिली इस का फैसला आप करेंगे  उनकी रचनायों को पढ़ कर:  --रेक्टर कथूरिया   
" इष्ट देव "  
तुम.. मेरे जीवन दाता  
...मेरे प्राणों के त्राता 
मेरे भूखंड की बगिया के तुम माली
दर से तुम्हारे जाए ना कोई खाली
किरण तुम्हारी पहली वक्ष को मेरे जब सहलाए
ताप से तुम्हारे रात की औंस भी पिघल जाए
स्पर्श से तुम्हारे मेरा रोम- रोम पुलकित हो उठे
सीने में मेरे इन्द्रधनुष के सातों रंग खिल उठे
हृदय से छनकर पैगाम तुम्हारा जब आता है
गर्भ में मेरे कई नवजीवन खिला जाता है
मेघ का आवरण जब चेहरा तुम्हारा छुपा लेता है
दर्द विरह का रक्त रंजित आँखों में मेरी उतर जाता है
ढलती शाम तुम्हे क्षितिज पार मुझ से परे जब ले जाए
सीने की मेरी धधकती ज्वाला भी बुझ जाए
लालिमा तुम्हारी सुबह सवेरे जब मुझे जगाए
वजूद मेरा तुम्हारे वजूद में मिल जाए
जीवन धारा के हम चाहे अलग दो किनारे हैं
तुम्हारे प्रेम के रस में भीगे मेरे अलग नजारें हैं
सर्द रातों में मन मेरा तुम्हारी गर्म साँसों को तरसता
मेरी निर्जन आँखों से घायल हृदय का लहू बरसता
कोहरे भरी रातों में पूर्णिमा की चांदनी ना भाए
चमकते हुए तारों की परछाई भी मुझे डराए
 मै धरा, तुम मेरे इष्ट देव
नमी इन आँखों की
इक नमी इन आँखों की जाती ही नहीं ...... 
इक नींद इन आँखों में आती ही नहीं....... 
कौन है इस भरी महफ़िल में हमारा 
इक तड़प उनकी  जाती ही नहीं...... 
इक याद  उनको  आती ही नहीं .......

तेरी मेरी बात

जब से तेरी मेरी बात हो गई ...........
हसीं मेरी हर इक  रात हो गई .........
 चाँद - सूरज का कैसा ये मिलन.......
हर दिन तारों की बारात हो गई ........
----अलका सैनी.

अलका सैनी की रचनायों को आप यहां क्लिक करके भी पढ़ सकते हैं. उनसे फ़ेसबुक पर मिलना चाहें तो बस यहां क्लिक करें. उनकी यहां प्रस्तुत रचनायें आपको कैसी लगीं, उनका प्रस्तुतिकरण कैसा रहा..इस सब पर आपके  विचारों की इंतज़ार हमेशां की तरह अब भी बनी रहेगी. आप अपने विचार पंजाब स्क्रीन को भी भेज सकते हैं और अगर आप चाहें तो अपने विचार उन्हें सीधे भी प्रेषित कर सकते हैं. उनका ईमेल आई डी है :  alkams021@gmail.com  ....विचारों की इंतज़ार में --रेक्टर कथूरिया 

महंगाई का हथौड़ा: क्या है आंकड़ों की हकीकत


महंगाई का हथौड़ा   
अब वो बातें पुरानी हो चुकीं हैं जब कहा जाता था कि  "दब्ब के वाह ते रज के खा " [मतलब: खूब कमा और खूब खा] लेकिन   आज के चलन में तो जैसे जैसे ये बात सोचनी भी गुनाह है | आज-कल तो यही बात बात जचती है "खाधा पीता लाहे दा, बाकी अह्म्दशाहे दा " [मतलब: जो खा-पी लिया सो खा-पी लिया| बचत कुछ भी नहीं है ] |  महंगाई इतनी बढ़ चुकी है कि  जैसे कोई पतंगबाज़ी का कोई मुकाबला चल रहा हो कि किसकी पतंग ज्यादा ऊँची है मतलब कि कौनसी चीज़ ज्यादा महंगी है | चलन यह चल पड़ा है कि रोज-मर्राह की ज़रूरत की वस्तुएं दिन-प्रति-दिन महंगी होती जा रहीं हैं और ऐश्प्रस्ती [लग्ज़री] की वस्तुएं मुकाबले के दौर की वजह से सस्ती होती जा रहीं हैं | एक बार आँख घुमा कर देखो अपने इर्द-गिर्द खुद ही मालूम पड़ जाएगा | 
फिर मुझे श्याम जगोता जी की और से कही गयी यह बात कहनी बड़ी ही स्वाभाविक लगती है कि आम इंसान कहीं न कहीं ये पूछना चाह रहा है की कि क्या आप मुझे भी अफजल और कसाब की तरह बचाएंगे ? तस्वीर में महंगाई के गुब्बार से उड़ रहे शख्स की जुबान चीख चीख कर यही बोल रही है | फिर अगर जवाब मिलता है तो बड़ी देर के बाद कि जब तक कई आम इंसान महंगाई के गुब्बार के साथ चढ़ाई कर चुके होते हैं  और फिर जवाब में मिलता है बहुत ही लंबा नारा कि जिसको पूरे होते होते आधी दुनिया की सांस सूख जाने वाली है | इन बातों के सरल अर्थ मैं बाद में बताऊंगा पहले महंगाई को आर्थिक पक्ष से भी देख लें | 
महंगाई दर :-
कार्टून साभार :  wheelosphere 
 25 दिसंबर के आंकड़ों के मुताबिक खाने-पीने की वस्तुओं की मुद्र्रा सफिती दर 18.32 % को छुह गयी थी | जब की यह उस से पिछले हफ्ते 14.44 % थी | 13 नवंबर को यह 10.15 % थी | आखिर ये 18.32 %, 14.44 %, 10.15 % क्या है ? अगर इसको आम भाषा में बताना हो तो इसको ऐसे बोला जा सकता है यह एक विअकती की खरीद शक्ति में इज़ाफा या कमी है | अब ये इज़ाफा है या कमी ये चक्कर उल्टा है | कहने का मतलब अगर अक्षर जमा के निशान में हैं तो खरीद शक्ति में कमी है और अगर अक्षर घटाओ के निशान में है तो खरीद शक्ति में इज़ाफा है | और सरल अर्थों में इसको ऐसे समझा सकते हैं, 18.32 % या +18.32 % [बात एक ही है] है तब खरीद शक्ति में कमी है और अगर येही आंकड़े -18.32 % हों तो खरीद शक्ति में इज़ाफा है | 
फोटो साभार: विचार मीमांसा 
अब सहज ही ये कहा जा सकता है की 13 नवंबर को महंगाई पर जो लगाम 10.15 % तक थी वो 25 दिसंबर को 18.32 % की हद्द को भी पार कर गयी | अब हम इसको ये बोल सकते हैं की 18.32 % से भाव की मनुष्य की खरीद शक्ति में 18.32 % की गिरावट आई है | आखिर ये खरीद शक्ति कैसे कम हुई ? इन आंकड़ों का आधार कौन से तथ्य हैं जो ये सब निर्धारित करते हैं ?
बात बड़ी स्पष्ट है | पहिले ये जान लें की ये निर्धारती कैसे होते हैं | दरअसल महंगाई को मापने के लिए हमारे देश कुछ मापदंड बनाए गए हैं जिनके ज़रिये  महंगाई की बढती और घटती चाल को आंका जा सकता है | इसको मापने के लिए बहुत सरे पक्ष देखने पड़ते हैं लेकिन जो पक्ष सबसे ज्यादा महत्व रखता है वो है आधार साल [Base Year] | मतलब कि किसी साल की कीमतों को आधार मान कर उस से अगले सालों में आये फरक [इज़ाफा या कमी] की लेकर आधार साल की कीमतों से तकसीम [divide] कर के 100 से जरब [multiply] किया जाता है और इसके नतीजे से जो आंकड़े मिलते हैं वो प्रतिशत में बोले जाते हैं | जैसे की 18.32 % | ये आधार साल कुछ समय के बाद बदल दिया जाता है | इस बार जो मुद्र्रा सफिती की दर है उसका आधार साल 2004-05 का वित्तीय वर्ष है |
महंगाई बढ़ने के कारण :- 
 जैसे विज्ञान में किसी क्रिया के होने या न होने का कारण होता है बिलकुल वैसे ही अर्थशास्त्र में भी महंगाई के बढ़ने या न बढ़ने का  कारण होता है | अर्थशास्त्र के मुताबिक वस्तुओं की कीमत बाजार में उनकी मांग और पैदावार पर आधारित होती है जिसको अंग्रेजी में Demand and Supply भी कहते हैं | अगर तो वस्तुओं की मांग एक जैसी रहे तो वस्तुएं एक संतुलित केन्द्र बिंदु [equilibrium point] पर आधारित रहती हैं | अगर मांग बढ़ जाये और पैदावार बराबर रहे या पैदावार कम हो जाये तो कीमतें बढ़ जाती हैं | अगर मांग कम हो जाये और पैदावार बढ़ जाये तो कीमतें कम हो जाती हैं | अर्थशास्त्र मुताबिक यही एक मुख्य  कारण है कीमतों के बढ़ने और कम होने का |
राजनीतिक हल और बयानबाजी :-
     कड़ी के मुताबिक अगला प्रशन यह बनता है कि आज जो कीमतें बढ़ी हुई हैं इनके पीछे क्या कारण हो सकता है ? क्या इस बार मांग अधिक बढ़ गयी और पैदावार न के बराबर है ? या फिर इस बार पैदावार कम हुई है और मांग बराबर है ? 
महंगाई के खिलाफ महिलायों का प्रदर्शन 
     मुझे इन दोनों में से कोई भी कारण  वाजिब नहीं लगता | ज़रा गौर करना क्या कीमतें जान-बूझ कर नहीं बढ़ाई जा सकतीं ? मगर कैसे ? जैसे कि अर्थशास्त्र के मुताबिक अगर पैदावार कम हो जाये तो कीमतें बढ़ जाती हैं बिलकुल वैसे ही अगर वस्तुओं की बाजार में आमद कम कर दी जाये या फिर बंद कर दी जाये तो कीमतें अपने आप ही बढ़ जाएँगी | फिर वही माल बिकेगा जो बाजार में मौजूदा रूप में मौजूद होगा और वो भी ऊँची दरों पर | लो जी बढ़ गयीं कीमतें |
 अब बात ये आती है कि इस सारे मामले  को अंजाम कैसे दिया जाता है ? इसमें कोई हैरानी वाली बात नहीं कि इस सारे साज़िशी घटनाक्रम को बड़े-बड़े व्यापारियों  और जमाखोरों की ओर से अंजाम दिया जाता है और काफी तकड़ा मुनाफा कमाया जाता है | इस जनविरोधी काम को अंजाम देने में मदद करते हैं राजनीतिक बयान | मगर वो कैसे ? थोडा सा सिक्के का दूसरा पहलू देखने का प्रयास करना, जब किसी  राजनीतिक नेता का ब्यान आता है कि इस बार बरसात की वजह से फसल खराब होने के असार हैं तो क्या ये व्यापारियों और जमाखोरों को मौजूदा माल गोदामों में दबा कर रखने के लिए दी गयी एक सीधे रूप से शह नहीं है ? और इनसे होने वाले  मुनाफों में अगर किसी नेता की मिलिभुगत हो तो इसमें कोई दो राए नहीं है | जब पवार साहब का यह बयान आता है कि महाराष्ट में बरसात की वजह से फसल खराब हो गयी है और इस बार पैदावार कम रहेगी |  तो क्या ये जमाखोरों को एक शह नहीं है ? 
महंगाई के खिलाफ कामरेड  
बात यह है कि पैदावार वाला बयान देना कितना ज़रूरी है ? क्या एक प्रदेश में हुई कम पैदावार पूरे देश को अनाज के संकट में डाल सकती है ? अगर डाल भी सकती है तो क्या पडोसी देशों से वस्तुएँ आयात नहीं की जा सकतीं ? फिर ये पैदावार कम होने वाली बात को जनतक करने की क्या ज़रूरत है ? क्या ये सीधे लफ़्ज़ों में अवश्यक वस्तुयों को जमा करके रखने और उन की कीमतों को आसमान पर पहुंचाने के लिए दी गयी शह नहीं है तो और क्या है ? 
     फिर कुछ दिनों बाद जब भारत के जाने-माने अर्थशास्त्री मोंटेक सिंह अहलुवालिया जी का बयान आता है कि कीमतें बढ़ने से आर्थिक खुशहाली बढ़ी है | देश की GDP बढ़ रही है और हमारा मनोरथ है की इस वित्तीय वर्ष के अंत तक 9 % का आंकड़ा पार कर जाये | मैं पूछता हूँ अहलुवालिया साहब से आप खुशहाली बढ़ने की बजाये ये बयान क्यों नहीं देते की लोगों की खरीद शक्ति में कमी आई है और ये दिन-प्रति-दिन जरी रहेगी ? आखिर जब कीमतें बढेंगी तो GDP तो स्वाभाविक तौर बढ़ेगी ही बढ़ेगी और फिर आप ये भी इशारा कर रहे हो की आप इसको 9 % तक लेकर जाना चाहते हो | बात तो तब बनती है जब कीमतें भी पकड़ में रहें और GDP भी बढती रहे | अहलुवालिया साहब ये GDP बढ़ने वाली बात को जनतक करने की क्या ज़रूरत है ? ये तो फिर यही हुआ कि जैसे औपचारिकता भर के लिए ही कोई कोई बयान दे दिया गया होता है | अब पाठक ही बताएं की सीधे रूप से कीमतें बढ़ाने को शह नहीं तो और क्या है ?
     मेरे मुताबिक कीमतें बढ़ने में जितना बड़ा हिस्सा सरकारी और राजनीतिक बयानबाजी का है उतना और किसी का भी नहीं है | अगर ये हिस्सा % से भी अधिक  है तो मेरे मुताबिक इसमें हैरानी वाली कोई बात नहीं होगी | अब तो देश के प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह जी का भी ब्यान आ गया है और कहतें हैं कि महंगाई मार्च महीने के अंत तक पकड़ में आ जायेगी | ये वही बातें हैं जिनके सरल अर्थ मैंने बाद में खोलने की बात मैंने ऊपर लिखी थी |
पेट्रोल की कीमतों में बढोतरी:-
     जब से सरकार ने पेट्रोल की कीमतों को निर्धारित करने का ज़िम्मा कंपनियों को सौंप दिया है तब से ये हर महीने कुछ न कुछ किसी न किसी तरीके से बढ़ रहा है | अभी हाल ही में इसकी कीमतों में उछाल देखने को मिला है | अगर देखा जाये तो कच्चे तेल की कीमत पिछले स्साल से सिर्फ 1 डालर प्रति बैरल बढ़ी है | लेकिन पेट्रोल की आज की कीमत और पिछले साल की कीमत में कितना फर्क है ये हर कोई आसानी से समझ सकता है | इसके पीछे अब क्या कारन है ये भी एक गहरायी की बात तो है ही लेकिन चिंता इस बात की है की अब कीमतों पर बढौतरी के रूप में क्या असर पड़ेगा ? महंगाई हर हाल में बढ़ेगी  ही बढ़ेगी | 
लेखक सतिन्द्र शाह सिंह 
अब तो हाल ये हो गया है की फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर युवकों की और से ऐसे सन्देश पढ़ने को मिलते हैं "This is the first time in the history that needs, comfort and luxuries are available on same price. Onions: Rs. 65/- KG, Petrol: Rs. 65/- liter, Beer: Rs. 65/- bottle."
अभी तो शुक्र है की डीजल की कीमतें निर्धारित करने का जिम्मा सरकार के हाथों में ही है और इसकी कीमत में अभी इज़ाफा नहीं किया गया है | लेकिन दर ये भी है की कहीं आने वाले वित्तीय बजट में इसकी कीमतें न बाधा दी जाएँ | अगर हुआ तो आम आदमी का जीना भी दुश्वार हुआ समझो |फिर जहाँ ये बात सिर्फ दिल्लों में है तब ये जुबान पर भी आ जाएगी | "क्या आप भी मुझे अफज़ल और कसाब की तरह बचाएंगे ?"  -- सतिन्द्र शाह सिंह
साहनेवाल (लुधियाना) के सतिन्द्र शाह सिंह आजकल नोयडा में रह कर उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं. जन हितों की चिंता करना और उन पर कुछ न कुछ लिखना उनके अवशयक कार्यों में से एक है जिसके लिए वह समय निकाल ही लेते हैं. आपको उनकी यह रचना कैसी लगी आ अवश्य बताएं....--रेक्टर कथूरिया  

Saturday, January 22, 2011

डाक्टर सरोजिनी साहू की नयी किताब

उड़िया और अंग्रेजी में नाम कमाने के बाद अब डाक्टर सरोजिनी साहू हिंदी पाठकों के दिल-ओ-दिमाग पर भी लगातार छाती जा रही है.ज़िन्दगी के दर्द, ज़िन्दगी की मजबूरियां, ज़िन्दगी के सपने और उन पर गरीबी का कफ़न...इन सब की चर्चा बेबाकी और सादगी से करने वाली डाक्टर सरोजिनी साहू के उपन्यास पक्षी-वास का जादू अभी चढ़ ही रहा था कि अब उनकी एक नयी किताब आई है रेप तथा अन्य कहानियां.उनकी इस पुस्तक को भी हिंदी के रंग में रंगा है जानेमाने अनुवादक दिनेश कुमार माली ने जो खुद भी ओडीसा की संस्कृति और उड़िया भाषा से भलिभांत अवगत हैं. माली जब अनुवाद  करते हैं तो लगता है कि रचना की रूह में उतर कर करते हैं जिसका परिणाम होता है रचना भाषा का नया लबादा ओड़ कर भी अपने मूल सार और सुन्दरता को पहले की तरह ही सहेजे रहती है. डाक्टर सरोजिनी साहू की इस नयी पुस्तक का बेहद सुंदर प्रकाशन किया है राजधानी दिल्ली से हिंदी जगत के जाने माने प्रकाशक राज पाल एंड सन्ज ने.इसके पेपर बैक एडीशन की कीमत है 175/- रूपये.इससे पूर्व पक्षी-वास भी हिंदी पाठकों में बहित लोकप्रिय हुआ है. उनकी पुस्तक के अंश जल्द ही आपके सामने रखे जायेंगे. --रेक्टर कथूरिया   

Tuesday, January 18, 2011

बोधिसत्व कस्तूरिया की 3 रचनायें

बोधिसत्व कस्तूरिया कम लिखते हैं...कभी कभी केवल तभी जब कोई भाव उनके दिल-ओ-दिमाग में बार उठता है..उसी तरह जैसे सागर की लहरें. कभी कभी ये लहरें बहुत ऊंची भी चली जाती हैं और कभी कभी पाताल की गहराईयों में भी जा पहुँचती हैं... जब ऊपर से शांत दिखते हैं तो भीतर ही भीतर कहीं बहुत गहरे में कोई तुफान चहल रहा होता है... उनकी रचनायें आप पंजाब स्क्रीन में पहले भी पढ़ चुके हैं. इस बार प्रस्तुत हैं उनकी तीन नयी कवितायें.---रेक्टर कथूरिया..:
सत्य की एक सौगन्ध ढूँढ्ता हूँ!
दुर्गन्ध के इस शहर मे -
मैं नालों के मुहानो पर,
किसी सुगन्ध को ढूँढ्ता हूँ!
मन की उश्रंखलता पर-
आत्म संयम का कोई,
एक नया प्रतिबन्ध ढूँढता हूँ!! दुर्गन्ध के इस......
धर्म और देश के नाम पर
बंटते  इस संसार मे-
प्रेम का सम्बन्ध ढूँढता हूँ !! दुर्गन्ध के इस .....
शाश्वत प्रेम की ऋचायें सुनाकर,
मानव से मानव का-
पुराना कोई अनुबन्ध ढूँढता हूँ!! दुर्गन्ध के इस...
इस नश्वर,मिथ्या-संसार मे-
मैं आज भी कोई नई
सत्य की एक सौगन्ध ढूँढ्ता हूँ!! दुर्गन्ध के इस...
गाँधी और बुद्ध के इस देश मे,
पतित- धर्माचार्यों और,
भ्रष्ट- नेताओं के सम्बन्ध ढूँढ्ता हूँ!! दुर्गन्ध के इस ...!


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यह अफ़साना सरे आम कर दो!!
तुम जो अपनी घनेरी- ज़ुल्फ़ से, 
गर कभी शाम कर दो,
कहते हैं खुदा की कसम सरे राह, 

इक कत्ले-आम कर दो!
देते हैं तुमको मुआफ़ी का हक, 
नज़रों से बस जाम भर दो!
हम तो शैदाई तेरे प्यार के,

बस एक बोसा मेरे नाम कर दो !!
आगोश की नर्म गर्मी मिले,

यह अफ़साना सरे आम कर दो!!
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आपका अन्दाज़े-मोहब्बत कुछ और है!
आपका अन्दाज़े-मोहब्बत कुछ और है!
आज हम है ,लेकिन कल कोई और है!!
कल तक जो थी,बस तेरे पाँव की जूती!
आज वो ही दीवाने ,तेरे हुए सिरमौर है!!
आपका अन्दाज़....
पोशाक की मानिन्द,जो सनम बदले है,
उसका कया कहें, कया कहीं भी ठौर है? आपका अन्दाज़....
पर यह सब ज़माने की हवा ने बदला है,
इसीलिए कहते हैं,नया ज़माना नया दौर है!!आपका अन्दाज़..
आँख से टपकती मोहब्बत,दिल कुफ़्र्ज़दा है,
ऐसे लोगों पर ना जाने क्यूँ,करता तू गौरहै!! आपका अन्दाज़..

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बोधिसत्व कस्तूरिया जी का सम्पर्क पता है: 202-नीरव निकुन्ज सिकन्दरा, आगरा-282007 और उनका मोबाईल नम्बर है: मो: 94124-43093 ..आपको ये रचनायें कैसी लगीं अवश्य बताएं.आपके विचारों की इंतज़ार रहेगी.--रेक्टर कथूरिया  

Tuesday, January 11, 2011

डाक्टर बेदी के नाम एक सम्मान और

योग के ज़रिये स्वास्थ्य का जादू लगातार सर चढ़ कर बोल रहा है.  पूरी दुनिया तेज़ी से योग का लोहा मानने की तरफ बढ़ रही है.योग, स्वास्थ्य और समाजिक तब्दीलियों के अभियान में एक नयी सफलता उस दिन दर्ज की गयी जब हरिद्वार में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन कराया गया. दो से पांच जनवरी तक पतंजलि योगपीठ की ओर से आयोजित इस सम्मेलन में दुनिया के अलग अलग भागों से आये तीन हज़ार प्रतिनिधियों ने भाग लिया. इस यादगारी आयोजन में सी एम सी अस्पताल लुधियाना की ओर से डाक्टर हरिंद्र सिंह बेदी विशेष तौर पर शामिल हुए. इस विशाल आयोजन में डाक्टर बेदी ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा कि दिल कि बीमारियों के इलाज में अगर योग थरेपी का सहारा भी लिया जाये तो मरीज़ बहुत ही जल्द ठीक होते हैं.  
उन्होंने कहा कि यदि हार्ट सर्जरी से पूर्व और बाद में योग अपनाया जाये तो परिणाम बहुत सुखद निकलते हैं. उन्होंने यह भी कहा कि सी एम सी अस्पताल लुधियाना में  योग थरेपी का उपयोग बहुत पहले से ही किया जा रहा.इस सम्मेलन में दस और पेपर भी पढ़े गए पर डाक्टर बेदी के पेपर को बेस्ट पेपर का एवार्ड मिला. इन पेपरों को सुनने वाले पेनल में इटली, अमेरिका और इंग्लैण्ड के डाक्टर भी शामिल थे. इसी बीच सी एम सी अस्पताल लुधियाना के डाक्टर अब्राहिम थोमस ने भी कहा कि सी एम सी इस क्षेत्र के लोगों को विश्व स्तर इलाज  सुविधायें देने को वचनबद्ध है.उन्होंने यह बी ही कहा कि जिन आल्टरनेटिव थ्रेपीयों के बारे में यहां रिसर्च चहल रही है उनमें योग भी शामिल है.     --रेक्टर कथूरिया     

Monday, January 03, 2011

वास्तव में विद्रोह की एक कविता है उपन्यास पक्षी-वास

जब इस किताब के बारे में पहली बार सुना तो बहुत ही उत्सुकता हुई. जी चाहा अभी पढ़ लूं. पर न तो जेब में पैसे थे और न ही किसी बुक स्टाल पर जा कर दुबारा उधार करने की हिम्मत. पहले का उधार ही इतना देरी से चुकता किया कि अब डर था कहीं वह इनकार न कर दे. इस डर के बावजूद भी कुछ नजदीकी मित्रों की दुकान पर देखा पर यह किताब नहीं मिल सकी. यह किताब कैसे मिली यह एक अलग लेकिन यादगारी कहानी है जिसकी चर्चा फिर कभी सही फिलहाल इतना ही कि यह किताब बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है. बिना किसी विचारधारा की बात किये यह किताब कैसे समाज को लगे दीमक का पता देती है यह इसे पढ़ कर ही जाना जा सकता है. इसकी शुरुआत धीमी गति से होती है और इसका इशारा भी तो उस घातक विष की ओर ही है जो बहुत ही धीमी गति से शुरू होती पर सब कुछ निगल जाती है. हो सकता है आपको इस में बहुत कुछ और भी दिखाई दे. 
हम विकास के चाहे कितने ही दावे करें लेकिन हकीकत तो बहुत दुखद है. हम जिस देश को महान कहते नहीं थकते उसमें लोग गरीबी के कारण तड़प रहे हैं, तिल तिल कर के मर रहे हैं, पेट की आग बुझाने के लिए एक दूसरे से छिन्न भिन्न हो कर बिखर रहे हैं. ऐसा ही एक भारतीय परिवार है. गमों के सागर में डूब रही सरसी और दुखों के पहाड़ तले दबे उसके गरीब पति अंतरा का; जिनके सभी बच्चे रोटी की तलाश में निकले तो फिर कभी नहीं लौटे. उसी तरह जैसे चिड़िया के बच्चे कभी नहीं लौटते.जब एक दिन एक बच्चे की खबर आती भी है तो गमों का एक नया दरिया लेकर. देखिये ज़रा चार में से एक बच्चे के लौटने की एक झलक.
अंत में जीप लौट आई थी गाँव में.....तुरंत कई पुलिस वाले जीप से  उतरे. दो सिपाहीयों ने जीप में पड़ी हुई लाश को निकाल कर ऐसे फेंका जैसे शिकार कर लाये हुए किसी एक जंगली सूअर या सांभर हिरण को.....पुलिस वाला चिल्ला कर कह रहा था,
"इसको पहचानो." 
"ये तुम्हारे गाँव का लड़का है या नहीं ?" 
" किसका बेटा है ?"  ..... ......
पुलिस अंतरा से पूछने लगी,"ये तुम्हारा लड़का ?"
" जी "
"तुम्हारा बेटा नक्सल में शामिल हुआ था ?" 
अंतर चुप रहा.
पुलिस धमकी भरे स्वर में कहने लगी, साला फोरेस्ट गार्ड को मारने के लिए आया था तेरा बेटा. चलो तुम गाड़ी में बैठो. धुल  उड़ाते चली गयी पुलिस की गाड़ी. अंतरा को भी साथ ले गयी.
गांव की चौपाल में बैठी थी सरसी.एकदम गुमसुम. आंखों में आंसू भी नहीं. गांव की चौपाल में सन्नाटा छ गया था. लोग अपने अपने घर चले गए थे. अंदर से सभी ने दरवाज़े बंद कर दिए थे. मातम का माहौल छा गया था गांव में. थम सा गया था गांव. 
आखिर कौन था यह फोरेस्ट गार्ड ? इसकी एक झलक मिलती है नीचे के वार्तालाप से जब जिस्म बेचने को मजबूर हुई परबा को उसकी एक पड़ोसन आ कर कहती है...रे परबा, तुम्हारे गांव बिजी गुड़ा से एक और लड़की यहां पहुंची है. वह तुम्हारे बारे में जानती है. झुमरी की बात सुन कर परबा धक सी रह गयी. 
"सच बोल रही हो, झुमरी, फिर किसका कपाल फूटा हमारे गांव में ?" 
उत्सुकता को दबा नहीं पायी और भागने लगी परबा नीचे वाली खोली की तरफ. खोली नके बाहर बैठी थी कुंद. कुंद को देख कर परबा को अपने पाँव के नीचे की ज़मीन खिसकती नज़र आई... बोली..
"तू तो मेरी भाभी बनती....तू कैसे आ गयी इस नर्क में ?" 
इन दोनों को इस नर्क में पहुंचाने का ज़िम्मेदार था वह फोरेस्ट गार्ड जिसकी इस करतूत के बारे में कुछ ही दिन पूर्व अपनी प्रेमिका/मंगेतर कुंद से सुन चुका था उसी बदनाम बस्ती में जा कर और वादा भी करके आया, "मैं रामचन्द्र हूं तेरा यहां से उद्धार करूंगा लेकिन छुपते छुपाते नहीं रावन को मारने के बाद ही." लेकिन हुआ उल्ट. यह राम ही मारा गया और सीता का उद्धार नहीं हो पाया. बदनसीब परबा भी तो इसी नक्सल की बहन है जो एक दिन मूसलाधार बारिश में निकल पड़ी थी घर से बाहर. घर की कच्ची दीवार गिर चुकी थी, मां बीमार थी, पिता थक हार कर खाली हाथ लौट आया था...और अब परबा निकली थी कि शायद कहीं कोई साग भाजी मिल जाये. देखो एक झलक...परबा को लगा कि ऐसे बुरे समय में उसका छोटा भाई ही मदद कर पायेगा. दुखी दरिद्रों को दुःख ऐ उबारने के लिए ही तो नक्सल में शामिल हुआ था. पूरे छह दिन हो गएपर घर में चूल्हा नहीं जला. भाई को पता चलने पर कुछ व्यवस्था ज़रूर करवा देगा...फिर जंगल है ही कितना दूर / दो कोस से भी कम ही होगा. वह अपने भाई से ज़रूर मिलेगी. 
लेकिन जंगल में पहुंच कर वह फंस जाती है फोरेस्ट गार्ड के चंगुल में और अपनी इज्जत तार तार हो जाने के बाद फिर घर नहीं लौटी. पहुंच जाती है वेश्यायों की बस्ती में.यह उपन्यास बहुत सी दूसरी समस्यायों का भी ज़िक्र करता है...उनकी जड़ों को कुरेदता है जो गरीबी, शोषण और अन्यायपूर्ण व्यवस्था के कारण पैदा हो रही हैं. इन समस्यायों में धर्म परिवर्तन,  अवैध कटाई के कारण मैदान बन रहे जंगल और गाँवों कस्बों में हो रहे काले धंधों का चित्रण भी शामिल है. धर्म परिवर्तन के मुद्दे पर ईसाइयत को गाली देना आसान है, हो हल्ला मचाना भी आसान है..पर देखो हकीकत  की एक झलक जो तमाचा मारती है धर्म के ऐसे ठेकेदारों पर.

जीने की लड़ाई का मंच

....इन्हीं दो चाकलेट की खातिर मैं गांव छोड़ने को राज़ी हो गया था. जिस दिन इमानुअल साहिब की बीवी मेरी मां को बोली," दे दे इस बच्चे को मुझे दे दे, मैं इसे आदमी बना दूँगी.
....."सवेरे सवेरे बाप बोला," जाने दो उसे यहां तो एक वक्त का खाना मिलता है तो एक वक्त का फाका पड़ता है. मिशन में रहेगा तो डाल भात कहा कर जीवन जी लेगा....दोनों वक्त का खाना तो मेरे बेटे को मिलेगा."
...."मां की गोद में से खींच कर बाप ले गया मुझे जबरदस्ती और मैं साहिब की गाड़ी में बैठा दिया..." इसके साथ ही देखो एक और कड़वी हकीकत की झलक....."घर के बोझ ने बेटे को उम्रदराज़ बना दिया था घर के बोझ से मुक्त हो कर बाप बेटे की तरह किशोर हो गया था." ....यह उपन्यास वास्तव में विद्रोह की एक कविता है. समस्यायों की जड़ों को कुरेदने के साथ साथ यह नक्सल लहर पर भी सवाल करता है. इसके बारे में और जानकारी के लिए यहां क्लिक करें. आपको यह पोस्ट कैसी लगी अवश्य बताएं.   --रेक्टर कथूरिया 



ਬਹੁਤ ਹੀ ਡੂੰਘੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਕਰਦਾ ਹੈ ਸਰੋਜਨੀ ਸਾਹੂ ਦਾ ਨਵਾਂ ਨਾਵਲ




सरोजिनी साहू की कवितायें 

सरोजिनी साहू की कहानियां 

बहुत कुछ सोचने को मजबूर करता है नावल पक्षी-वास 

एक पत्र मारिशियस से