Thursday, December 16, 2010

तीन अवाज़ें.....तीन रंग

कभी साहिर लुधियानवी  ने ताज को नकारते हुए कहा था......
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर, 
हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक.
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे. इस लम्बी और पुरसोज़ नज्म में साहिर साहिब अपनी बात को बहुत ही खूबसूरती और सलीके से साबित किया है. पर उस ताज के शहर आगरा से एक दर्द भरी आवाज़ आई है कहा है : 
ज़ख्म को जितना भी छुपाना चाहो तुम,
पर अपनो के सामने ही वो बेपर्द होता है.
मेरी मुराद है बोधिसत्व कस्तूरिया जी से. अमेरिका पर आतंकी हमला हुआ तो उस दिन तारीख थी 11 सितम्बर. .और यह दिन इतिहास का एक दुखद और अभिन्न अंग बन गया. लेकिन बहुत पहले भी यह दिन ख़ास दिन बन चुका था. 11 सितम्बर 1952 को जन्मे बोधिसत्व कस्तूरिया साहित्य के साथ साथ अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में एल एल बी के छात्र भी रहे पर लगता है कि कलम से उनका कोई जन्मजात सम्बन्ध था जो कानून की प्रैक्टिस पर भारी पड़ा. बहुत कम लिखते हैं लेकिन बहुत ही अच्छा लिखते हैं.आप उन्हें पंजाब स्क्रीन में पहले भी पढ़ चुके हैं लीजिये अब देखिये उनकी कविता का एक और रंग.  
दर्द  
कभी-कभी गर्मी मे भी मौसम सर्द होता है,
किसी के भी आंसू देख दिल मे दर्द होता है!
ज़ख्म को जितना भी छुपाना चाहो तुम,
पर अपनो के सामने ही वो बेपर्द होता है !! कभी- कभी.......
खुशियां हैं तो लाखों दोस्त साथ होते हैं,
पर गम मे भी साथ दे,वो हमदर्द होता है !! कभी- कभी......
खुशी मे तो बियांवां भी बागवां लगता है,
पर गम मे बागवां भी गुबारे-गर्द होता है !! कभी-कभी .......

  
 तन्हाईयां
कभी-कभी गुनगुनाती हैं,मेरे साथ मेरी तन्हाईयां!
एक बार जो हो गये बदनाम ,रह गई बस रुसवाईयां!!
ज़िक्र जो पिछला किये, उडने लगी हैं हवाईयां !
पार हम भी कर लेते ,पर सामने थी बडी खाईयां !! कभी-क्भी.....
साथ चल तो लेते,पर क्या करें पीछे रह गई परछाईयां !
जिन आँखों के नमूदार थे लाखों,अब उन पर हैं झाईयाँ !! कभी कभी..
पहले और अब 
पहले खून का रिश्ता होता था ,
अब रिश्तों का खून हो रहा है !
पहले बात होती थी सम्मान की,
अब जमीर ही शून्य हो रहा है !!पहले खून .....
पहले गाँव की लड़की होती थी ,
अब बहन का रिश्ता न्यून हो रहा है!!पहले खून ...
पहले समाज की मर्यादा होती थी,
अब समाज ही शून्य हो रहा है !! पहले खून.....
                    

बोधिसत्व कस्तूरिया,
202  नीरव निकुन्ज,
 सिकन्दरा, आगरा-282007

अब आपको उन की कविता का यह रंग कैसा लगा अवश्य बताएं...आपके विचारों का इंतज़ार पूरी शिद्दत से बना रहेगा लेकिन इसके साथ ही आपको लेकर चलते हैं उस की एक झलक दिखाने जिसके बारे में कहा जाता है कि दिल्ली है दिल हिंदुस्तान का..यह तो तीर्थ सारे जहान का. 
दिल्ली में रह रही एक शायरा पूनम मटिया की कविता का रंग आप पंजाब स्क्रीन में पहले भी देख चुके हैं. उनकी  अन्य खूबियों और अन्य रंगों की तरह उनकी कविता का रंग भी गहरा है इसकी एक वजह उनके पति नरेश मटिया का साथ, सहयोग और उत्साह भी लगता है.आपकी कभी भेंट हो तो आप पूछ भी सकते हैं...फिलहाल देखिये उनकी तीन कवितायें.  
1.
अंतर्द्वंद अब खत्म हुआ
नहीं राग -द्वेष का स्थान यहाँ
प्रेम-प्रकाश हरे 'तम' सब ओर
हो नित्य-नयी एक भोर यहाँ
उज्जवल भारत के स्वप्न सजे
खिले पौध नव तरु बने
ईश्वर की जब लग्न लगे
हो दमन अशांति और कलह-क्लेश का
स्नेह-पुष्प हम अर्पित कर
करे निर्माण स्वर्ग-सम भारत का
              ----०-----
2.
तुम मेरा अभिन्न अंग बन गए
न कर सकूँ तुम्हे अलग
भूलना भी मुनासिब नहीं,अब
और कोशिश की जब भुलाने की तुम्हे
मेरा "मैं" भी खो गया कहीं
   ------०----- 3.
 "क्या अच्छा होता तुम...तुम ही रहते
हमने तुम्हे ही चाहा था........
हसरत भी तुम्हारी ही थी
पर गुस्ताखी भी हमसे ही हुई
क्यों शिकायत करें तुमसे
तुम-तुम न रहे
इसमें तुम्हारी खता नहीं"
                      --पूनम मटिया
------0----
आज तीसरे रंग के लिए हम बात कर रहे हैं उस सुंदर स्थान की जिसे सिटी ब्यूटीफुल के नाम से भी जाना जाता है और चंडीगढ़ के नाम से भी. हालांकि  नेक चंद सैनी ने वहां एक छोटे से व्यक्तिगत प्रोजेक्ट को एक मिसाल बना दिया. उसने 1957 में यह काम बहुत ही गुप चुप ढंग से शुरू किया था जिसका पता सरकार को लगा 1975 में जब यह 12 एकड़ तक फ़ैल चुका था. अब यह 40 एकड़ तक फ़ैल चुका है.  के रोक गार्डन को अपनी धुन और लगन के बल पर दुनिया भर में मशहूर कर दिया. यह उसकी रचनात्मक शक्ति ही थी जिसके बल पर उसने सभी मुश्किलों और चुनौतियों का सामना किया. लोग उसके इस करिश्मे को  देखने के लिए दूर दूर से आते हैं लेकिन वहां वहां की भाग दौड़ और व्यस्त ज़िन्दगी ने जो असर वहां छोड़ा उसकी वजह से चंडीगढ़ को पत्थरों का शहर भी कहा जाता है. बात काफी हद तक सही है लेकिन वहां कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इन पत्थरों में फूल खिला रहे हैं. इस तरह के कुछ खास लोगों में ही एक नाम है अलका सैनी का. अलका सैनी की कविता और अन्य रचनायों का कुछ रंग भी आप पंजाब स्क्रीन में देख चुके हैं. इस बार ज़रा फिर देखिये उसकी कविता का रंग. जिसमें वह कहती है....... मै ख्वाब नहीं हकीक़त हूँ ...पढ़िए पूरी कविता:


"मै ख्वाब नहीं हकीक़त हूँ "

मन में मेरे कई बार ये ख्याल आता है 

मै किसी कवि की प्रेरणा बनूँ ,

मै किसी शायर की ग़ज़ल बनूँ ,

मै किसी चित्रकार की कल्पना बनूँ , 

पर मै ख्वाब नहीं हकीकत हूँ 
मै तस्वीर नहीं जीती मूरत हूँ 

मेरे भी कुछ अधूरे अरमान  हैं 
मेरे भी कुछ बाकी अहसास  हैं 

ए कवि !
मै कहीं सपनों की परछाई बनके रह ना जाऊं 

ए शायर !
मै कहीं कलम की नोक बनके रह ना जाऊं 

ए चित्रकार !
मै कहीं कैनवास के ब्रश पर सिमटके रह ना जाऊं 

मन में मेरे कई बार ये ख्याल आता है 
मै ख्वाब नहीं हकीकत हूँ !
                    --अलका सैनी 
ख़्वाबों और हकीकतों को अपनी कविता के रंगों से रंगने वाली इस शायरा अलका सैनी से आप यहां क्लिक कर के भी मिल सकते हैं. आपको आगरा, दिल्ली, और चंडीगढ़ की इन तीन अवाज़ों के यह तीन रंग कैसे लगे..इस पर जो भी आप महसूस करते हैं अबश्य कहें... आपके विचारों की प्रतीक्षा में. --रेक्टर कथूरिया. 

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