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Wednesday, January 04, 2012

श्यामल सुमन की नयी कवितायें

Courtesy photo 
ये दुनिया तो सिर्फ मुहब्बत
आने वाले कल का स्वागत, बीते कल से सीख लिया
नहीं किसी से कोई अदावत, बीते कल से सीख लिया

भेद यहाँ पर ऊँच नीच का, हैं आपस में झगड़े भी
ये दुनिया तो सिर्फ मुहब्बत, बीते कल से सीख लिया

हंगामे होते, होने दो, इन्सां तो सच बोलेंगे
सच कहना है नहीं इनायत, बीते कल से सीख लिया

यह कोशिश प्रायः सबकी है, हों मेरे घर सुख सारे
क्या सबको मिल सकती जन्नत, बीते कल से सीख लिया

गर्माहट टूटे रिश्तों में, कोशिश हो, फिर से आए
क्या मुमकिन है सदा बगावत, बीते कल से सीख लिया

खोज रहा मुस्कान हमेशा, गम से पार उतरने को
इस दुनिया से नहीं शिकायत, बीते कल से सीख लिया

भागमभाग मची न जाने, किसको क्या क्या पाना है
सुमन सुधारो खुद की आदत, बीते कल से सीख लिया 


नये साल का शोर क्यों?

कुछ भी नया नहीं दिखता पर नये साल का शोर क्यों?
बहुत दूर सत - संकल्पों से है मदिरा पर जोर क्यों?

हरएक साल सब करे कामना हो समाज मानव जैसा
दीप जलाते ही रहते पर तिमिर यहाँ घनघोर क्यों?

अच्छाई है लोकतंत्र में सुना है जितने तंत्र हुए
जो चुनते हैं सरकारों को आज वही कमजोर क्यों?

सारे जग से हम बेहतर हैं धरम न्याय उपदेश में
लेकिन मौलिक प्रश्न सामने घर घर रिश्वतखोर क्यों?

जब से होश सम्भाला देखा सब कुछ उल्टा पुल्टा है
अँधियारे में चकाचौंध और थकी थकी सी भोर क्यों?

धूप चाँदनी उसके वश में जो कुबेर बन बैठे हैं
                                                      जेल संत को भेज दिया पर मंदिर में है चोर क्यों

है जीवन की यही हकीकत नये साल के सामने
भाव सृजन का नूतन लेकर सुमन आँख में नोर क्यों?



कामना

नव किरणें मुस्काकर लायीं नये वर्ष का नव पैगाम
कोयल कूक रही है जग में गूँजेगा भारत का नाम

वही आसमां वही फ़िज़ा है वही दिशाएँ अभी तलक
नयी चेतना नये जोश से नया सृजन होगा अविराम

बहुत रो लिये वर्तमान पर परिवर्तन की हो कोशिश
सार्थक होगा तब विचार जब हालातों पर लगे लगाम

पिंजड़े के तोते भी रट के बातें अच्छी कर लेते
बस बातों से बात न बनती करना होगा मिलकर काम

नित नूतन संकल्पों से नव सोच की धारा फूटेगी
पत्थर पे भी सुमन खिलेंगे और होगा उपवन अभिराम 



परिचय


नाम :  श्यामल किशोर झा

लेखकीय नाम :  श्यामल सुमन 

जन्म तिथि :  10.01.1960 

जन्म स्थान :  चैनपुर, जिला सहरसा, बिहार, भारत

शिक्षा :  एम० ए०-अर्थशास्त्र

तकनीकी शिक्षा : विद्युत अभियंत्रण में डिप्लोमा

वर्तमान पेशा :  प्रशासनिक पदाधिकारी टाटा स्टील, जमशेदपुर, झारखण्ड, भारत

साहित्यिक कार्यक्षेत्र :  छात्र जीवन से ही लिखने की ललक, स्थानीय समाचार पत्रों सहित देश के प्रायः सभी स्तरीय पत्रिकाओं में अनेक समसामयिक आलेख समेत कविताएँ, गीत, ग़ज़ल, हास्य-व्यंग्य आदि प्रकाशित

स्थानीय टी.वी. चैनल एवं रेडियो स्टेशन में गीत, ग़ज़ल का प्रसारण, कई राष्ट्रीय स्तर के कवि-सम्मेलनों में शिरकत और मंच संचालन

अंतरजाल पत्रिका "अनुभूति,हिन्दी नेस्ट, साहित्य कुञ्ज, साहित्य शिल्पी, प्रवासी दुनिया, आखर कलश आदि मे अनेकानेक  रचनाएँ प्रकाशित

गीत ग़ज़ल संकलन "रेत में जगती नदी" - कला मंदिर प्रकाशन दिल्ली 
                          "संवेदना के स्वर" - राज-भाषा विभाग पटना में प्रकाशनार्थ 

अपनी बात - इस प्रतियोगी युग में जीने के लिए लगातार कार्यरत एक जीवित-यंत्र, जिसे सामान्य भाषा में आदमी कहा जाता है और जो इसी आपाधापी से कुछ वक्त चुराकर अपने भोगे हुए यथार्थ की अनुभूतियों को समेट, शब्द-ब्रह्म की उपासना में विनम्रता से तल्लीन है - बस इतना ही। 

सादर  
श्यामल सुमन

09955373288

Saturday, September 17, 2011

श्यामल सुमन की दो नई कवितायेँ

                                                  चित्र दैट्स हिंदी से साभार


क्या तिहाड़ संसद बन जाए


अब तिहाड़ में कितने मंत्री
बतियाते आपस में संतरी

पता नहीं अब कितने आए
क्या तिहाड़ संसद बन जाए

संसद में चलता है झगड़ा
यह मिलाप का मौका तगड़ा

हो जुगाड़ हम कैसे छूटें
बाहर जाकर फिर से लूटें

यूँ तो हम सब भाई भाई
न्यायालय ही बना कसाई

न्यायालय को रोके कौन
इसीलिये है सत्ता मौन

किया है जनता से जब धोखा
जेल में खाएं खिचडी चोखा


उसको बना सिकन्दर देखा

भालू देखा बन्दर देखा
यह लोगों के अन्दर देखा

जो दबंग हैं नालायक भी
उसको बना सिकन्दर देखा  

सुख सारे शोषण के दम पर
भाषण मस्त कलन्दर देखा

सांसद की नैतिकता में भी
कितना बड़ा भगन्दर देखा

विकसित देश सुमन का ऐसा
सबके आँख समन्दर देखा

Wednesday, September 14, 2011

पन्द्रह दिन क्यों वर्ष में हिन्दी आती याद?

 चित्र प्रवक्ता.कॉम से साभार 
राज काज के काम हित हिन्दी है स्वीकार।
लेकिन विद्यालय सभी हिन्दी के बीमार।।

भाषा तो सब है भली सीख बढ़ायें ज्ञान।
हिन्दी बहुमत के लिए नहीं करें अपमान।।

मंत्री की सन्तान सब अक्सर पढ़े विदेश।
 
भारत में भाषण करे हिन्दी में संदेश।।

दिखती अंतरजाल पर हिन्दी नित्य प्रभाव।
लेकिन हिन्दुस्तान में है सम्मान अभाव।।

सिसक रही हिन्दी यहाँ हम सब जिम्मेवार।
करो राष्ट्र-भाषा इसे ऐ दिल्ली सरकार।।

पन्द्रह दिन क्यों वर्ष में हिन्दी आती याद?
 
हो प्रति पल उपयोग यह सुमन करे फ़रियाद।। 


श्यामल सुमन
09955373288

Sunday, August 14, 2011

जीवन का गणित // श्यामल सुमन


कहने को तो साँसें चलतीं हैं यात्रा-क्रम भी प्रतिपल बढ़ता जाता है।
मैंने तो देखा सौ बर्षों में मुश्किल से कोई एक दिवस जी पाता है।।


अचानक आज अपने जिन्दगी के दिनों का मोटे तौर पर हिसाब करने लगा। कहते हैं कि साहित्य वैयक्तिक अनुभूति की निर्वैयक्तिक प्रस्तुति है और आज उसी व्यक्तिगत अनुभव को आप सब के बीच बाँटने की कोशिश कर रहा हूँ।

एक इन्सान अमूमन लगभग सत्तर साल जीता है और साल के तीन सौ पैंसठ दिन के हिसाब से लगभग चौबीस हजार दिनों की आयु मानी जा सकती है। दिन रात मिलाकर चौबीस घण्टे होते हैं। अगर चौबीस घण्टे के समय का दैनिक हिसाब कर लिया जाय तो जीवन का हिसाब स्वतः लग जायगा यानि जितने घण्टे उतने हजार दिन।

हर चौबीस घण्टे में प्रायः हम सभी मोटे तौर पर आठ घण्टा सोते हैं और आठ घण्टा रोजी रोटी के लिये या तो काम करते हैं या भबिष्य में काम मिले, इसका प्रयास करते हैं अर्थात पढ़ाई, लिखाई, प्रशिक्षण इत्यादि। यह किसी भी आदमी के लिए अत्यावश्यक है। यानि चौबीस घण्टे में से सोलह घण्टे सिर्फ इन अनिवार्यताओं के लिए निकल गए जिस पर हमारा कोई वश नहीं होता। तो इस हिसाब से हमारे जीवन के लगभग सोलह हजार दिन सिर्फ इन दो बातों की भरपाई में ही बीत जाते हैं। अब बचे आठ हजार दिन। इस आठ हजार दिनों का भी मोटा मोटी हिसाब करने की जरूरत महसूस हुई।

यदि ध्यान से सोचा जाय तो उक्त दो महत्वपूर्ण कार्यों के अतिरिक्त कई काम ऐसे हैं जो हमें जीने के लिए करने ही पड़ते हैं। मसलन मुँह धोने से लेकर नहाने तक, कपड़ा बनबाने से लेकर साफ करने और पहनने तक, सामाजिक कार्य जैसे शादी-विवाह, श्राद्ध, आदि में शामिल होना, घर पर मित्रों का आना और मित्रों के घर जाना, बाजार के दैनिक कार्यों का निपटारा, और अन्य कई इसी तरह के दैनिक क्रियाकलापों का जब हम सूक्षमता से अध्ययन करते हैं तो पाते है कि बचे हुए आठ घण्टे में से चार घण्टे खर्च हो जाते हैं। यानि चार हजार दिन और खत्म। अब शेष चार हजार दिनों के बारे में यदि सोचें तो बचपन के कुछ दिनों निकालना होगा क्योंकि बचपन में न तो उतनी समझ होती हैऔर वह स्थिति परवशता की होती है।

सही अर्थों में यदि देखा जाय तो औसतन एक इन्सान के जीवन में मात्र ढ़ाई से तीन हजार दिन ही ऐसे होते हैं जिसे वह अपनी मर्जी से जी सकता है। जरा सोचें कि कितना कम समय है जीने के लिए और काम कितना करना है। हो सकता है कि कई लोगों को यह भी लगे कि यह एक नकारात्मक सोच है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह भी हैकि अगर ये बात किसी के हृदय में उतर जाय तो वह व्यक्ति कभी भी अपना समय खोटा नहीं करेगा और जिन्दगी में हर कदम सार्थकता की ओर उठेंगे। पता नहीं आप सब किस प्रकार से सोचते है? लेकिन कम से कम मेरे कदम तो उठे इस दिशा में, इसी कोशिश में हूँ।

जिन्दगी धड़कनों की है गिनती का नाम।
फिर जो बैठे निठल्ले है उनको प्रणाम।।


परिचय
नामश्यामल किशोर झा

लेखकीय नामश्यामल सुमन 
जन्म तिथि10.01.1960 
जन्म स्थान चैनपुर, जिला सहरसा, बिहार, भारतशिक्षाएम० ए० - अर्थशास्त्र
तकनीकी शिक्षा : विद्युत अभियंत्रण में डिप्लोमा
वर्तमान पेशाप्रशासनिक पदाधिकारी टाटा स्टील, जमशेदपुर, झारखण्ड, भारतसाहित्यिक कार्यक्षेत्रछात्र जीवन से ही लिखने की ललक, स्थानीय समाचार पत्रों सहित देश के प्रायः सभी स्तरीय पत्रिकाओं में अनेक समसामयिक आलेख समेत कविताएँ, गीत, ग़ज़ल, हास्य-व्यंग्य आदि प्रकाशित
स्थानीय टी.वी. चैनल एवं रेडियो स्टेशन में गीत, ग़ज़ल का प्रसारण, कई राष्ट्रीय स्तर के कवि-सम्मेलनों में शिरकत और मंच संचालनअंतरजाल पत्रिका "अनुभूति,हिन्दी नेस्ट, साहित्य कुञ्ज, साहित्य शिल्पी, प्रवासी दुनिया, आखर कलश आदि मे अनेकानेक  रचनाएँ प्रकाशितगीत ग़ज़ल संकलन "रेत में जगती नदी" - कला मंदिर प्रकाशन दिल्ली
                           "संवेदना के स्वर" - राज-भाषा विभाग पटना में प्रकाशनार्थ

रुचि के विषयनैतिक मानवीय मूल्य एवं सम्वेदना 
सम्पर्क:श्यामल सुमन
           09955373288

Sunday, June 19, 2011

"लक्ष्मी-पुत्रों" को अपने देश में हमेशा "बिशेष-दर्जा" प्राप्त रहा

Fri, Jun 17, 2011 at 6:02 PM 
स्वामी निगमानंद:लक्ष्य मिला न ठाम:जय हो लक्ष्मी मैया की
निगमानन्द जी बिना हो हल्ला के इस "असार" संसार को छोड़ कर चले गए और छोड़ गए गंगा को उसकी उसी पीड़ा के साथ जिसके लिए उन्होंने जान दिया। इसी के साथ उनके जननी और जनक की मानसिक छटपटाहट को भी समझने की जरूरत है। निगमानन्द कब अनशन पर बैठे? कब कोमा मे गए? प्रायः सभी अनजान। उसी अस्पताल में बाबा रामदेव के प्रति सारा देश चिन्तित लेकिन वहीं निगमानन्द के बारे में चर्चा तक नहीं। जबकि उनके भी अनशन का उद्येश्य "सार्वजनिक-हित" ही था, अन्ना और रामदेव की तरह। मीडिया की कृपा हुई और सारा देश निगमानन्द के मरने के बाद जान पाया इसकी पृष्ठभूमि और मरने के बाद का किचकिच भी।
निगमानन्द के माता पिता ने लाश पर दावेदारी की, जो बहुत हद तक स्वभाविक भी है। संतान को नौ महीने अपने कोख में रखकर उसे पालने की पीड़ा एक माँ से बेहतर कौन जाने? यूँ तो किसी के सन्तान की मौत किसी भी माँ बाप के लिए असहनीय है लेकिन इस असहनीय पीड़ा के बाद भी यदि उस मृत सन्तान की लाश भी न मिले तो उसकी पीड़ा को सहानुभूतिपूर्वक समझने की जरूरत है।
निगमानन्द मिथिला का बेटा था। जन्म से लेकर मृत्यु तक जितने भी संस्कार होते हैं और उससे जुड़े सारे धार्मिक कर्म-काण्ड का मिथिला में एक अलग महत्व है और इस दृष्टिकोण से सम्भवतः पूरे देश में सबसे अलग एवं अग्रणी। संस्कृत मे एक उक्ति भी है "धर्मस्य गुह्यं ज्ञेयो मिथिलायां व्यवहारतः"। लेकिन निगमानन्द के माता पिता को अपने पुत्र की ही लाश नहीं मिली सशक्त दावा पेश करने के बाद भी। स्थानीय प्रशासन ने भी मना कर दिया। हाँ इजाजत मिली भी तो शांति पूर्वक अंतिम संस्कार (भू-समाधि) देखने के लिए जो कि मिथिला की संस्कृति में किसी भी हाल में स्वीकार्य नहीं है कम से कम ब्राह्मण परिवार में।
जिस आश्रम में निगमानन्द रहते थे उसके प्रमुख शिवानन्द जी की "वाणी" सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वे एक पुरानी चिट्ठी को संदर्भित करते हुए बड़े ही तार्किक ठंग से फरमा रहे थे कि "एक सन्यासी का लाश एक गृहस्थ को नहीं दिया जा सकता"। अन्ततोगत्वा नहीं ही दिया गया। सन्यासी का मोटा मोटी जो अर्थ जो आम जनों की भाषा में समझा जाता है वो यह कि जो व्यक्तिगत भौतिकता की मोह छोड़ कर "बहुजन हिताय बहुजन सुखाय" कार्य करे। आदरणीय शिवानन्द जी तो उस सन्यासियों के प्रमुख हैं। फिर एक "लाश" से उनका इतना जबरदस्त "मोह" कैसा? वो भी तो किसी माँ की सन्तान हैं। क्या माँ की ममता का कोई मोल नहीं? यदि हाँ तो फिर ऐसे "सन्यास" का क्या मोल? जब किसी साधु- सन्यासी का भरण-पोषण भी इस समाज की उत्पादकता पर किसी न किसी रूप में निर्भर है तो क्या उस सन्यासी का उस समाज के प्रति कोई जवाबदेही नहीं? सामाजिक सम्वेदना से कोई सरोकार नहीं?
हमारे देश में मुख्यतः दो प्रकार के महत्वपूर्ण मंदिर पाये जाते हैं - एक "आस्था" के तो दूसरा "न्याय" के। मजे की बात है कि इन दोनों मंदिरों में या इसके इर्द-गिर्द, अभीतक ज्ञात या अज्ञात जितने भी प्रकार के भ्रष्टाचार हैं, अनवरत होते हैं। क्या मजाल जो आप इनके खिलाफ आवाज उठा दें? यदि न्यायलय के खिलाफ बोले तो "न्यायिक अवमानना" का खतरा और यदि आस्था के खिलाफ बोले तो "धार्मिक गुंडई" का डर। अतः "प्रिय शिवानन्द" जी के बारे में इससे अधिक कहना खतरों से खेलने जैसा लगता है। पता नहीं किसकी "धार्मिक भावना" को चोट लग जाए? सम्वेदनाएं मरतीं जा रहीं हैं। प्रशासन के लोग की भी अपनी बेबसी है। उन्हें मंत्रियों से निर्देश मिलता है और मंत्री जी की आत्मा निरन्तर जातिगत या धार्मिक "वोट" के लिए लालायित रहती है। तो फिर वो ऐसा खतरा कभी मोल लेंगे क्या? प्रशासन ने भी माता-पिता की ममता को कुचल दिया अपने आदेश से। 
लेखक श्यामल सुमन 
अन्ततः निगमानन्द के अंतिम संस्कार में वही हुआ जो उनके कौलिक-संस्कार से भिन्न था। उनके माता पिता का हाल भगवान जाने। गंगा-प्रदूषण बदस्तूर जारी है। आगे भी जारी रहेगा चाहे निगमानन्दों की फौज ही क्यों न अनशन पर बैठ जाय और प्राण-दान भी क्यों न कर दे। अन्ना और रामदेव जी के जबरदस्त आन्दोलन और उसके हस्र से अनुमान लगाना कठिन नहीं है। न गंगा को प्रदूषण से मुक्ति मिली और यदि मिथिला के "वयवहार" को मानें तो निगमानन्द को भी "मुक्ति" नहीं मिली। आखिर निगमानन्द को क्या मिला? "लक्ष्मी-पुत्रों" को अपने देश में हमेशा "बिशेष-दर्जा" प्राप्त रहा है और आगे भी रहेगा, इसकी पुरजोर सम्भावना है। जय हो लक्ष्मी मैया की। : श्यामल सुमन 

Friday, May 27, 2011

शादी और युद्ध में सिर्फ़ एक अन्तर है...!


चित्र साभार:पापुलर कार्टून 

शेर की शादी में चूहे को देखकर हाथी ने पूछा - "भाई तुम इस शादी में किस हैसियत से आये हो?" चूहा बोला, " जिस शेर की शादी हो रही हैवह मेरा छोटा भाई है।" हाथी का मुँह खुला का खुला रह गयाबोला, "शेर और तुम्हारा छोटा भाई?" चूहा - "क्या कहूँशादी के पहले मैं भी शेर ही था।" यह तो हुई मजाक की बातलेकिन पुराने समय से ही दुनिया का मोह छोड़करसच की तलाश में भटकनेवाले भगोड़ों को सही रास्ते पर लाने के लिएशादी कराने का रिवाज़ हमारे समाज में रहा है। कई बिगड़ैल कुँवारों को इसी पद्धति से आज भी रास्ते पर लाया जाता है। हम सबने कई बार देखा-सुना है कि तथाकथित सत्य की तलाश में भटकने को तत्पर आत्माशादी के बाद पत्नी को प्रसन्न करने के लिए लगातार भटकती रहती है। कहते भी हैं कि "शादी वह संस्था है जिसमें मर्द अपनी 'बैचलर डिग्रीखो देता है और स्त्री 'मास्टर डिग्रीहासिल कर लेती है।"
प्रायः शादी के पहले की ज़िंदगी पत्नी को पाने के लिए होती है और शादी के बाद की ज़िंदगी पत्नी को ख़ुश रखने के लिए। तक़रीबन हर पति के लिए पत्नी को ख़ुश रखना एक अहम और ज्वलंत समस्या होती है और यह समस्या चूँकि सर्वव्यापी है,अतः इसे हम चाहें तो राष्ट्रीय (या अंतर्राष्ट्रीय) समस्या भी कह सकते हैं। लगभग प्रत्येक पति दिन-रात इसी समस्या के समाधान में लगा रहता हैपर कामयाबी बिरलों के भाग्य में ही होती है। सच तो यह है कि आदमी की पूरी ज़िंदगी पत्नी को ही समर्पित रहती है और पत्नी है कि ख़ुश होने का नाम ही नहीं लेती। अगर ख़ुश हो जाएगी तो उसका बीवीपन ख़त्म हो जाएगाफिर उसके आगे-पीछे कौन घूमेगाकिसी ने ठीक ही तो कहा है कि "शादी और प्याज में कोई ख़ास अन्तर नहीं - आनन्द और आँसू साथ-साथ नसीब होते हैं।"
पत्नी को ख़ुश रखना इस सभ्यता की संभवतः सबसे प्राचीन समस्या है। सभी कालखण्डों में पति अपनी पत्नी को ख़ुश रखने के आधुनिकतम तरीकों का इस्तेमाल करता रहा है और दूसरी ओर पत्नी भी नाराज़ होने की नई-नई तरक़ीबों का ईजाद करती रहती है। एक बार एक कामयाब और संतुष्ट-से दिखाई देनेवाले पति से मैंने पूछा- 'क्यों भाई पत्नी को ख़ुश रखने का उपाय क्या है?' वह नाराज़ होकर बोला- 'यह प्रश्न ही गलत है। यह सवाल यूँ होना चाहिए था कि पत्नी को भी कोई ख़ुश रख सकता है क्या?' उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि "शादी और युद्ध में सिर्फ़ एक अन्तर है कि शादी के बाद आप दुश्मन के बगल में सो सकते हैं।" 
जिस पत्नी को सारी सुख-सुविधाएँ उपलब्ध होंवह इस बात को लेकर नाराज़ रहती है कि उसका पति उसे समय ही नहीं देता। अब बेचारा पति करे तो क्या करेसुख-सुविधाएँ जुटाए या पत्नी को समय देइसके बरअक्स कई पत्नियों को यह शिकायत रहती है कि मेरे पति आफिस के बाद हमेशा घर में ही डटे रहते हैं। इसी प्रकार के आदर्श-पतिनुमा एक इन्सान(?)से जब मैंने पूछा कि 'पत्नी को ख़ुश रखने का क्या उपाय है?'तो उसने तपाक से उत्तर दिया-'तलाक।मुझे लगा कि कहीं यह आदमी मेरी ही बात तो नहीं कह रहा हैमैं सोचने लगा, " 'विवाहऔर 'विवादमें केवल एक अक्षर का अन्तर है शायद इसलिए दोनों में इतना भावनात्मक साहचर्य और अपनापन है।"
पतिव्रता नारियों का युग अब प्रायः समाप्ति की ओर है और पत्नीव्रत पुरुषों की संख्याप्रभुत्व और वर्चस्व लगातार बढत की ओर है। यदि इसका सर्वेक्षण कराया जाय तो प्रायः हर दसरा पति आपको पत्नीव्रत मिलेगा। मैंने सोचा क्यों न किसी अनुभवी पत्नीव्रत पति से मुलाकात करके पत्नी को ख़ुश रखने का सूत्र सीखा जाए। सौभाग्य से इस प्रकार के एक महामानव से मुलाकात हो ही गईजो इस क्षेत्र में पर्याप्त तजुर्बेकार थे। मैंने अपनी जिज्ञासा जाहिर की तो उन्होंने जो भी बतायाउसे अक्षरशः नीचे लिखने जा रहा हूँताकि हर उस पति का कल्याण हो सकेजो पत्नी-प्रताड़ना से परेशान हैं- 
१ - ब्रह्ममुहुर्त में उठकर पूरे मनोयोग से चाय बनाकर पत्नी के लिए 'बेड टीका प्रबंध करें। इससे आपकी पत्नी का 'मूड नार्मल'रहेगा और बात-बात पर पूरे दिन आपको उनकी झिड़कियों से निजात मिलेगी। वैसे भीकिसी भी पत्नी के लिए पति से अच्छा और विश्वासपात्र नौकर मिलना मुश्किल हैइसलिए इसे बोझस्वरूप न लेंबल्कि सहजता से युगधर्म की तरह स्वीकार करें। कहा भी गया है कि "सर्कस की तरह विवाह में भी तीन रिंग होते हैं - एंगेजमेंट रिंगवेडिंग रिंग और सफरिंग।" 
२ - अगर आपका वास्ता किसी तेज़-तर्रार किस्म की पत्नी से है तो उनके तेज में अपना तेज (अगर अबतक बचा हो तो) सहर्ष मिलाकर स्वयं निस्तेज हो जाएँ। क्योंकि कोई भी पत्नी तेज-तर्रार पति की वनिस्पत ढुलमुल पति को ही ज्यादा पसन्द करती है। इसका यह फायदा होगा कि आप पत्नी से गैरजरूरी टकराव से बच जाएँगेअब तो जो भी कहना होगापत्नी कहेगी। आपको तो बस आत्मसमर्पण की मुद्रा अपनानी है। 
३- आपकी पत्नी कितनी ही बदसूरत क्यों न होआप प्रयास करकेमीठी-मीठी बातों से यह यकीन दिलाएँ कि विश्व-सुन्दरी उनसे उन्नीस पड़ती है। पत्नी द्वारा बनाया गया भोजन (हालाँकि यह सौभाग्य कम ही पतियों को प्राप्त है) चाहे कितना ही बेस्वाद क्यों न होउसे पाकशास्त्र की खास उपलब्धि बताते हुए पानी पी-पीकर निवाले को गले के नीचे उतारें। ध्यान रहेऐसा करते समय चेहरे पर शिकायत के भाव उभारना वर्जित है,क्योंकि "विवाह वह प्रणाली हैजो अकेलापन महसूस किए बिना अकेले जीने की सामर्थ्य प्रदान करती है।" 
४ - पत्नी के मायकेवाले यदि रावण की तरह भी दिखाई दे तो भी अपने वाकचातुर्य और प्रत्यक्ष क्रियाकलाप से उन्हें'रामावतारसिद्ध करने की कोशिश में सतत सचेष्ट रहना चाहिए। 
५ - आप जो कुछ कमाएँउसे चुपचाप 'नेकी कर दरिया में डालकी नीति के अनुसार बिल्कुल सहज समर्पित भाव से अपनी पत्नी के करकमलों में अर्पित कर दें और प्रतिदिन आफिस जाते समय बच्चों की तरह गिड़गिड़ाकर दो-चार रूपयों की माँग करें। पत्नी समझेगी कि मेरा पति कितना बकलोल है कि कमाता खुद है और रूपये-दो रूपयों के लिए रोज मेरी खुशामद करता रहता है। एक हालिया सर्वे के अनुसार लगभग पचहत्तर प्रतिशत पति इसी श्रेणी में आते हैं। मैं अपील करता हूँ कि शेष पच्चीस प्रतिशत भी इस विधि को अपनाकर राष्ट्र की मुख्यधारा में सम्मिलित हो जाएँ और सुरक्षित जीवन-यापन करें।
अंत में उस अनुभवी महामानव ने अपने इस प्रवचन के सार-संक्षेप के रूप में यह बताया कि उक्त विधियों को अपनाकर आप भले दुखी हो जाएँलेकिन आपकी पत्नी प्रसन्न रहेगी और उनकी मेहरबानी के फूल आप पर बरसते रहेंगे। किसी ने बिलकुल ठीक कहा है कि "प्यार अंधा होता है और शादी आँखें खोल देती है।" मेरी भी आँखें खुल गई। कलम घिसने का रोग जबसे लगासाहित्यिक मित्रों की आवाजाही घर पर बढ़ गई। चाय-पानी के चक्कर में जब पत्नी मुझे पूतना की तरह देखती तो मेरी रूह काँप जाती थी। मैंने इससे निजात पाने का रास्ता ढूँढ ही लिया। 
आपने फूल कई रंगों के देखे होंगेलेकिन साँवले या काले रंग के फूल प्रायः नहीं दिखते। 
लेखक;श्यामल सुमन 
मैंने अपने नाम 'श्यामलके आगे पत्नी का नाम 'सुमनजोड़ लिया। हमारे साहित्यिक मित्र मुझे 'सुमनजी-सुमनजीकहकर बुलाते हुए घर आते। धीरे-धीरे नम्रतापूर्वक मैंने अपनी पत्नी को विश्वास दिलाने में आश्चर्यजनक रूप से सफलता पाई कि मेरे उक्त क्रियाकलाप से आखिर उनका ही नाम तो यशस्वी होता है। अब मेरे घर में ऐसे मित्रों भले ही स्वागत-सत्कार कम होता होपर मैं निश्चिन्त हूँ कि अब उनका अपमान नहीं होगा। किसी ने ठीक ही कहा है कि "विवाह वह साहसिक-कार्य है जो कोई बुजदिल पुरुष ही कर सकता है।"-- श्यामल सुमन