Tuesday, January 25, 2011

वसुंधरा पाण्डेय की कविता का रंग

 वसुंधरा पाण्डेय का नाम इंटरनेट साहित्य में भी बहुत ही गर्व से लिया जाता है. गहरी से गहरी बात को भी बहुत ही सादगी से कहने की कला में उसे मुहारत हासिल है. इस दुनिया में 13 अप्रैल 1974 को आई तो लगा जैसे वैशाखी की खुशियाँ साथ लेकर ही आई. इस दिन पर...इस त्यौहार पर खुशियाँ मनाई जाती हैं....पंजाब के लोग भांगड़ा भी डालते हैं लेकिन इस मौके पर शहीदों को भी याद किया जाता है, उनकी कुर्बानियों का भी ज़िक्र होता है....इस लिए एक दर्द वसुंधरा पाण्डेय की रचनायों में भी महसूस होता है.  दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर यूनीवर्सिटी में अध्यन करने के बाद आज कल अलाहाबाद में रह रही वसु जब कलम उठाती है तो कोई यादगारी रचना इस पूरे समाज को दे जाती है जो बार बार सोचने को मजबूर करती है... ज़रा देखिये उनके ख्यालों का रंग.... उनकी उड़ान...उनकी कविता की एक झलक:  
   पेड़ को 'मौत' नहीं आती है...
'पत्ते'... 'रोज' गिरा करते हैं...!!
    ---०००---
ये बोनसई कितना बड़ा कितना छोटा 
"बोनसई"
नाम दिया मेरा बोनसई
क्यूँ ???
तुम जानते हो
मै बहुत बड़ी हूँ
लेकिन तुम्हारे
संकुचित बिचारों के
वजह से मै यंहा हूँ
तुम चाहते नहीं की
तुम मेरा वो रूप देखो
इसलिए तुम कर दिए
कैद मुझे -एक छोटे से
मिटटी के बरतन में
छोड़ के देखो मुझे
खुले जमीन में !
मुझे देखने के लिए
तुम्हे उठानी पड़ेगी नजरें -
दूर बहुत ऊपर तक जो की
तुम नहीं चाहते
अपनी ख़ुशी
शान ,और अहंकार के कारण
दिखाते हो सजा के
अपने घर के क्यारी में मुझे
डर है तुम्हे कंही मै छू न लूँ
आसमान
और तुम रह जावो जमीन पर...!

       -----०००---

मेरी लुप्त पहचान , एक चिट्ठी माँ के नाम

माँ --
तुमने सदैव कहना नहीं ,सहना हीं सिखाया है
दरवाजों के बंद पोखरों में झांकना
दूसरों के लिए स्वयं को तब्ब्दिल कर देना ,
मौन रह कर जरुरत पर जरुरत, बने रहना
छिनना नहीं बस मांगना सिखाया ,
प्रारम्भ से अंत तक
धुरी रही तुम मेरी
और काटती रही चक्कर ,पृथ्वी की भांति
तुमसे हीं बदले मेरे दिन और रात
करती रही एक अनवरत यात्रा
बेवजह ,
दबा दी मेरी इच्छाएं पुराने कपड़ो की तरह
और जोड़ना सिखाया कतरनों पर कतरने
माँ -
तुमने सदैव उगता नहीं ,ढहता सूरज ही दिखाया
कहना नहीं बस सहना सिखाया ,
वनस्पतियों सा जीवन मरुअस्थल बन गया
उग आयी उसमे कटीली झाड़ियाँ
देखते हीं देखते मिट गया अस्तित्व मेरा ,मेरे हीं भीतर
न दी कोई सीढ़ी ,न बनाया संबल
तुम्हारा प्यार मुझ तक आते -आते समाप्त हो जाता क्यों माँ ?
तुमने तोड़ना नहीं बस जोड़ना सिखाया
बना डाला मजबूर ,जीने के लिए जीवन.
~~~~000~~~~~~

आपको वसुंधरा पाण्डेय की कविता का यह रंग किया लगा अवश्य बताएं. आपके विचारों की इंतज़ार उर बार की तरह इस बार भी रहेगी. --रेक्टर कथूरिया 

3 comments:

harshchopra1972 said...

tum jante ho main bahut badi hun lakin tumhare sankuchit vicharon ki vajh se yahan hun


bahut artpuran panktian hain

Shanno Aggarwal said...

बहुत सुंदर रचना...

Gulshan Dayal said...

Beautiful poetry , great thoughts, i loved the 1st poem, so well expressed, the sad situation of human mind that always wants to dwarf others so that he himself can feel taller.....my compliments, 2nd poem is also nice , a univerasl evergreen theme is our society...