Sunday, May 16, 2010

हिंदी कविता की कार्यशाला

कोई ज़माना था कि कवि या लेखक कुछ लिखते थे तो सब से बड़ी समस्या होता था उसे छपवाना. जब किसी की पहली रचना छपती तो उसके लिए यह दिन सब से स्वर्णिम दिन की तरह होता. यह सब तो था समाचार पत्रों और पत्रिकायों के मामले में. अपनी पुस्तक का मामला तो किसी महायज्ञ से कम न होता. प्रकाशक ढूँढना उसे मनाना, फिर पांडुलिपि तैयार करना, फिर उसकी भूमिका लिखवाना और फिर पत्र पत्रिकायों में उसकी समीक्षा प्रकाशित करवाना...सचमुच बहुत ही टेड़ी खीर थी. इसके साथ ही होता था कवि सम्मेलनों का आयोजन. कभी किसी शहर में कभी किसी शहर में. वहां पहुंचना आसान नहीं होता था फिर भी वहां बड़े बड़े नामी गिरामी लोग पहुंचा करते थे. जेब तंग हो तब भी कोई न कोई जुगाड़ किया ही जाता था पर अब लगता है कि सब कुछ बदलने वाला है. इसका अहसास  हुआ मुझे हिंदी कविता की एक कार्यशाला को देख कर.इसमें भाग लेने के लिए 882 लोगों के जवाब का अभी भी इंतज़ार था, 365 लोगों ने किसी न किसी मजबूरी के कारण भाग लेने से इनकार कर दिया था और 190 ने भाग लेने की संभावना व्यक्त की लेकिन इस सब के बावजूद 233 शायरों ने कहा के वे भाग ले रहे हैं हर हालत में. 
इस कार्यशाळा का समय था 6 मई 2010 सुबह 6 बजे से 16 मई की रात 9 बजे तक और स्थान था फेसबुक.हिंदी कविता की ओर से  आयोजित इस कविता कार्यशाला जब मैं इस कार्यशाला में पहुंचा तो शाम के साढ़े चार बज चुके थे. मेरे सामने थी Vashini Sharma  की एक ज़बरदस्त कविता. राम की बात करती हुई, अहिल्या की बात करती हुई जब आज की नारी की बात करती है तो उसके तेवर और भी दमदार और तीखे हो जाते हैं. लीजिये आप भी महसूस कीजिये इस में छुपा दर्द... 




शिला का अहिल्या होना
क्या अहिल्या इस युग में नहीं है                    

पति के क्रोध से शापित ,निर्वासित,निस्स्पंद ,शिलावत

वन नहीं भीड -भाड भरे शहर में , वैभव पूर्ण - विलासी जीवन में

रोज़ रात को मरती है बिस्तर पर अनचाहे संबंधों को जीने को विवश

भरसक नकली मुस्कान और सुखी जीवन का मुखौटा ओढ़े ।

एक राम की अनवरत प्रतीक्षा में रत इस अहिल्या को कौन जानता है?


गौरतलब है की इस कार्यशाला में एक तस्वीर भी दी गयी थी जिसमें एक बाघ जल में उछलकूद करता नज़र आता है. कविओं से कहा गया था की वे इस पर कुछ लिखें. इस बात पर धर्मेन्द्र कुमार सिंह ने एक बहुत ही अच्छी रचना लिखी. आप भी इस बाल गीत का आनंद लीजिये.

जंगल में तो लगी आग है,

जान बचा कर भगा बाघ है,

मछली संग बतियायेगा ये,

जमकर आज नहायेगा ये।

बहुत दिनों से ढूँढ रह था,

पानी का ना कहीं पता था,              

गोते आज लगायेगा ये,

जमकर आज नहायेगा ये।

बाघिन बोली थी गुस्साकर, गड्ढे में मुँह आओ धोकर,

तन-मन धोकर जायेगा ये,

जमकर आज नहायेगा ये।

फिर जाने कब पाये पानी,

जाने कब तक है जिन्दगानी,

रो जंगल में जायेगा ये,

जमकर आज नहायेगा ये।


इसी तस्वीर को Madhu Gujadhur ने बहुत ही गंभीरता से लिया और  ललकार कर बोली...





किसने मेरी सुप्तावस्था से मुझ को आज जगाया है ,

आतंकवाद.. ये शब्द कैसे मेरे घर आँगन में आया है

किस की इतनी हिम्मत मेरी दीवारों पर नजर गड़ाई        

कौन है वो किस्मत का मारा किस की अब म्रत्यु है आई

मैं हूँ भारत... मेरी दहाड़ से अब सारा विश्व थर्रायेगा

लिए कटोरा अर्थ ,ज्ञान की भिक्षा यहाँ मांगने आएगा

मेरी शक्ति मेरे ज्ञा
न का तुम को कुछ आभास नहीं ,

देखो मेरे साथ आज भी स्वर्णिम युग का साया है.


इसी तरह Navin C. Chaturvedi ने मौसम में बढ़ रही गर्मी के नजरिये से देखा और कह उठे:उफ़ यह गर्मी :




उफ़ ये गर्मी!
जंगल में भी ,
चैन से रहने नहीं देती|

गर्म लू के थपेड़े,

घायल कर रहे हैं-
मेरी कोमल खाल को|                                                      

और उस पर,
तपता सूरज,
ऊपर से हावी है,
जैसे कि उसने कसम खा रखी हो-
मुझे ,
चैन से बैठे न रहने देने की |

जिनका शिकार कर सकूँ में,
वो भी तो मारे गर्मी के,
छुपे हुए हैं -
अपनी अपनी
शरणस्थलियों में|

भूख को तो सहन कर लूँगा,
पर क्या करूँ प्यास का?

प्यास,
जो सिर्फ़ गले की ही नहीं है,
बदन की भी है|

चलो,
दोनो प्यासों को बुझाने के लिए,
क्यों न,
पानी में ही छलाँग लगाई जाए ||
 -
नवीन सी. चतुर्वेदी
इसी कार्यशाला को और भी यादगारी बनाते हुए Saket Kumar ने  महांभारत की भी बात की और आज की भी. उनकी इन छोटी छोटी कवितायों में से एक यहां भी दी जा रही है.


कह ये वचन वो नारी-शक्ति, बाघिनी सदृश दिखी

सब शूरवीरों के जलद में चिंघाड़ करती वो उडी      
"जब जब जलजला ज्वाल का जल जाएगा जंजाल में
जब जब कनक भूषित मनुज रह जाएगा कंगालमय

जिस दिन धरा पे जननी के अपमान पे सन्नाटा है, ख़ामोशी है
बस जान लेना ये कि बस, महाभारत अब होने ही वाली है"
कहते हैं कि फिर उस दिन ठाकुर जी ने लज्जा की तो लाज रखी
र बाघिन की चिंघाड़ कुरुखेत्र के पहले भी है भला कभी थमी.

एक और युवा कवित्री Swati Kumar  ने बहुत ही सादगी से कई गहरी बातें की. लीजिये आप भी देखिये, सुनिये और पढ़िए :मैं वनराज :
ऊपर जलता सूरज,

नीचे शीतल जल,
और

इनमे कुचाले मारता
मैं वनराज निश्छल,
मुझे क्या लेना इससे
के
गर्मी बढती जाती है,
मुझे नहीं पता मगर
माँ यही बताती है,
मैंने
देखा है यह
के मेरे साथी कम हो रहे हैं,
साथ साथ खेलते कूदते
जाने
कैसे और कहाँ खो रहे हैं,
यूँ उछलते कूदते
जल में विचरते
मैं
बहुत खुश होता हूँ,
अपनी ही दिखती परछाई को
पकड़ने की कोशिश
करता हूँ ||

इसी सुअवसर पर बात करते हुए Shail Agrawal  ने एक अलग से अंदाज़ में बात की. अब वह अंदाज़ कैसा है...यह जानिए उन्हीं की ज़ुबानी:




साथ जो
परछांई-सा पलपल
उलझाता क्यों दूर से
बेचैन एक ख्वाइश
छलांग लगाती उड़ चली
पीछे सब छोड़
जमीं इनकी ना आसमान इनका
पकड़ो, सम्भालो, अधर में लटके
सपने ‘शेर’ नहीं होते
राजदां थीं जो उठती तरंगें
अब बस चन्द बुलबुले
मिटती जातीं झाग बन-बन के
अपना ही शिकार आसां नहीं
ना शिकार औ शिकारी साथ-साथ
खामोशी बिना हवचल के
मानो या न मानो
ौत ही एक खेल, एक अहसास
जिन्दा रह पाए वन में..
--
शैल अग्रवाल

पर वहां एक अंदाज़ और भी था और वह भी अपने आप में अलग सा था. यह शानदार अंदाज़ था योगेश चन्द्र का.




भागो
चाहे जितना ही तेज...
लगाओ कितनी ही उची
छ्लाग
फ़िर भी...
तैरती रहेगी
परछाइया
साथ साथ
तेरे...
अतीत के जलाशय मे !

Ashok Kr ने बहुत ही कम शब्दों में गहरी बात की: 

अपने ही साये से, हूँ मैं परेशान

भागना चाहता हूँ दूर तक  

एक लम्बी छलांग लगाकर
फिर भी यह साया साथ नहीं छोड़ता,
हूँ मैं बेहद हैरान....

इसी तरह इसी तस्वीर पर Meena Chopra का अंदाज़ भी यादगारी बना: 




मुट्ठी भर पानी--

जीवन ने उठा दिया चेहरे से अपने
शीत का वह ठिठुरता नकाब
फिर उसी गहरी धूप में
वही जलता शबाब
सूरज की गर्म साँसों में
उछलता है आज फिर से
छलकते जीवन का
उमड़ता हुआ रुआब|

इन बहकते प्रतिबिम्बों के बीच
कहीं यह ज़िंदगी के आयने की
मचलती मृगतृष्णा तो नहीं?

किनारों को समेटे जीवन में अपने
कहीं यह मुट्ठी भर पानी तो नहीं?
             --
मीना

इसी मुद्दे पर Deepak Jain ने अपने अंदाज़ और तेवरों में बात की: 

क्यूँ ना कुछ मछरियाँ पकड़ी जाए

क्यूँ ना पानी में घात लगाईं जाये

या प्रतिबिम्ब से ही खेला जाये

या बस यूँ ही छलांग लगाईं जाए

मगर का शिकार भी कर ले आज

चलो कुछ अनोखा आजमाया जाए

तुम तपते रहो दिवाकर...

गर हराना है तो तुम्हे हराया जाये.


इंटरनैट की दुनिया को इस ढंग तरीके से सदुपयोग करने का यह सारा प्रयास किया अमृतसर में जन्मी और इस समय लन्दन में बसी हुई Dr.Kavita Vachaknavee ने. इस अनोखे कविता मेले में पाकिस्तान के वरिष्ठ कवि, लेखक और पत्रकार गुल खान देहलवी ने भी नवाज़ा. उनकी गज़ल सर्वश्रेष्ठ रही. आपको यह कार्यशाला कैसी लगी...उन्हें भी ज़रूर बताईगा.  इस कार्यशाला में बहुत कुछ और भी है जनाब.पूरा पढ़े सुने बिना मत जाना. आपकी टिप्पणी का इंतज़ार तो रहेगा ही.--रेक्टर कथूरिया 


पोस्ट स्क्रिप्ट
गुल खान देहलवी की गज़ल :
शाम ढलने वाली है सोचते हैं घर जाएँ
फिर खयाल आता है किस तरफ़ किधर जाएँ

दूसरे किनारे प’ तीसरा न हो कोई
फिर तो हम भी दरिया में बे- खतर उतर जाएँ

हिज़रती परिन्दों का कुछ यकीं नहीं होता
कब हवा का रुख बदले कब ये कूच कर जाएँ

धूप के मुसाफ़िर भी क्या अजब मुसाफ़िर हैं
साए में ठहर कर ये साए से ही डर जाएँ
  


12 comments:

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

सर आपका यह प्रयास वाकई सराहनीय है| हर कवि का अपना एक नज़रिया होता है, और जैसा कि आप भी जानते हैं कि "निज कवित्त किन लागि न नीका"; ऐसे में आप की टिप्पणियाँ हम सब के लिए काफ़ी ज्ञानवर्धक रहेंगी| धन्यवाद|

मनोज कुमार said...

क्या शानदार प्रस्तुति है ...!! बयान नहीं कर सकता। एक से बढ़कर एक उम्दा रचना पढने को मिली।
आपका आभार।

शरद कोकास said...

पहले इस तरह की कार्यशालायें या कविता वर्कशॉप हुआ करते थे । अब यह बन्द हो गये है । लेकिन यह निरंतर होना चाहिये इनसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है ।

Kavita Vachaknavee said...

कथूरिया जी,
बहुत बहुत धन्यवाद कि आपने कार्यशाला की सूचना ब्लॉगजगत् को भी दी। बस आप इसमें फ़ेसबुक पर इस event का लिंक (http://www.facebook.com/group.php?gid=77250317543&v=app_2344061033&ref=ts#!/event.php?eid=120611414623484&ref=mf )

दे देते तथा यह और जोड़ देते कि कविता कार्यशाला का आयोजन फ़ेसबुक पर "Poetry : Hindi Kavita (हिन्दी-कविता)"( http://www.facebook.com/#!/group.php?gid=77250317543&ref=ts )
द्वारा किया गया था। ताकि आपके ब्लॉग के माध्यम से कोई कार्यशाला को देखना चाहे/ जुड़ना चाहे तो सम्भव हो सके।
एक विशेष बात और जोड़ दूँ कि इस कार्यशाला को पाकिस्तान के वरिष्ठ कवि/गज़लकार/पत्रकार/लेखक गुल खान (देहलवी) जी ने भी अपनी गज़ल से नवाज़ा । उनकी रचना निस्सन्देह कार्यशाला में आई सभी प्रविष्टियों में सर्वश्रेष्ठ थी/है।

अस्तु! अब तो इस कार्यशाला के समापन का समय हो चुका है, सो बस २ घंटे बाद इसे बन्द कर रही हूँ। हाँ, ग्रुप पूर्ववत् जारी और सक्रिय रहेगा।
पुन: आभारी हूँ आपके बड़प्पन के लिए, आत्मीयता के लिए। धन्यवाद।

Tarlok Judge said...

This is marvelous. I have enjoyed a full Kavia Mehfil from this blog. This type work shops are required in every language every where. Rector ji, Thganks that you shared a good topic. Let us we too make efforts to start this type workshops in Punjabi so that new comers may learn some thing about the various formats of Punjabi Poetry and the trends being settled in it. Thanlks a Lot once again.

My best regards for all Hindi poets who participated in this work shop and its organizers .

Meena said...

Bahut hi sarahniye...sabhi kaviyon ne apne apne andaaz mein bahut hi umda rachna ki prastuti ki...abb ke zamane mein sab kuch kitna asaan ho gaya hai...humne toh net ke jariye ghar baithe hi sammelan mein bhaag le liye...thnks Rector Ji

JASPAL SINGH BAWA said...

har ek ghazal,kavita apne aap me kamaal ki thi,ek bahut achha paryaas hai,shukriya kathuria sahib,kavita ji ko shayad mai sun chuka hu,leicester me choupal ke ek programme me

JASPAL SINGH BAWA said...

shukria kathuria sahib,ek se bad kar ek kavita ghazals padne ko miliaapke is paryaas ki sarahna karta hu,leicester me choupal ki kisi mehfil me maine shayad kavita ji ko suna hai,esa lag raha hai

Kavita Vachaknavee said...

जसपाल जी, आपने सही पहचाना। "आवाज़ एफ़.एम." के "चौपाल" पर ३-४ बार कार्यक्रम में आई हूँ।
पर २००८ तक की बात है यह तो, उसके बाद वहाँ जाना नहीं हो पाया। आश्चर्य है कि आपको वह तब के इन्टर्व्यूज़् की बात याद है आप ने चीजों को एसोसिएट भी किया। सो नाईस!!

वैसे एक बात और जोड़ दूँ कि अभी १५-२० दिन पहले मैं आपके शहर में ही थी - लेस्टर में। :) पर तब जिस परिवार में थी, उनके अतिरिक्त किसी से पहचान ही नहीं थी।

कथूरिया जी ! आपकी पोस्ट का कमाल है। :)

Rector Kathuria said...

कविता जी,
कमाल तो कविता के उस पुल का है जो आपने बनाया या फिर कमाल है बावा जी की यादाशत का...

दरअसल बावा जी बहुत ही भावुक और कवि मन के भी हैं...

लुधियाना के सभी पुराने मित्र और स्थल भी इनके स्मुर्ति संग्रह में अभी तक ताज़ा हैं...

मुझे यकीन है कि अब आपके वहां शायरी के आयोजन और बढ़ जायेंगे.....!

Kavita Vachaknavee said...

See -

http://srijangatha.com/bloggatha24_2k10

Anonymous said...

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And naturally, thanks in your effort!