इस कार्यशाळा का समय था 6 मई 2010 सुबह 6 बजे से 16 मई की रात 9 बजे तक और स्थान था फेसबुक.हिंदी कविता की ओर से आयोजित इस कविता कार्यशाला जब मैं इस कार्यशाला में पहुंचा तो शाम के साढ़े चार बज चुके थे. मेरे सामने थी Vashini Sharma की एक ज़बरदस्त कविता. राम की बात करती हुई, अहिल्या की बात करती हुई जब आज की नारी की बात करती है तो उसके तेवर और भी दमदार और तीखे हो जाते हैं. लीजिये आप भी महसूस कीजिये इस में छुपा दर्द...
शिला का अहिल्या होना
क्या अहिल्या इस युग में नहीं है
पति के क्रोध से शापित ,निर्वासित,निस्स्पंद ,शिलावत
वन नहीं भीड -भाड भरे शहर में , वैभव पूर्ण - विलासी जीवन में
रोज़ रात को मरती है बिस्तर पर अनचाहे संबंधों को जीने को विवश
भरसक नकली मुस्कान और सुखी जीवन का मुखौटा ओढ़े ।
एक राम की अनवरत प्रतीक्षा में रत इस अहिल्या को कौन जानता है?
किसने मेरी सुप्तावस्था से मुझ को आज जगाया है ,
आतंकवाद.. ये शब्द कैसे मेरे घर आँगन में आया है
किस की इतनी हिम्मत मेरी दीवारों पर नजर गड़ाई
कौन है वो किस्मत का मारा किस की अब म्रत्यु है आई
मैं हूँ भारत... मेरी दहाड़ से अब सारा विश्व थर्रायेगा
लिए कटोरा अर्थ ,ज्ञान की भिक्षा यहाँ मांगने आएगा
मेरी शक्ति मेरे ज्ञा न का तुम को कुछ आभास नहीं ,
देखो मेरे साथ आज भी स्वर्णिम युग का साया है.
इसी तरह Navin C. Chaturvedi ने मौसम में बढ़ रही गर्मी के नजरिये से देखा और कह उठे:उफ़ यह गर्मी :
उफ़ ये गर्मी!
जंगल में भी ,
चैन से रहने नहीं देती|
गर्म लू के थपेड़े,
घायल कर रहे हैं-
मेरी कोमल खाल को|
और उस पर,
तपता सूरज,
ऊपर से हावी है,
जैसे कि उसने कसम खा रखी हो-
मुझे ,
चैन से बैठे न रहने देने की |
जिनका शिकार कर सकूँ में,
वो भी तो मारे गर्मी के,
छुपे हुए हैं -
अपनी अपनी
शरणस्थलियों में|
भूख को तो सहन कर लूँगा,
पर क्या करूँ प्यास का?
प्यास,
जो सिर्फ़ गले की ही नहीं है,
बदन की भी है|
चलो,
दोनो प्यासों को बुझाने के लिए,
क्यों न,
पानी में ही छलाँग लगाई जाए ||
- नवीन सी. चतुर्वेदी
जंगल में भी ,
चैन से रहने नहीं देती|
गर्म लू के थपेड़े,
घायल कर रहे हैं-
मेरी कोमल खाल को|
और उस पर,
तपता सूरज,
ऊपर से हावी है,
जैसे कि उसने कसम खा रखी हो-
मुझे ,
चैन से बैठे न रहने देने की |
जिनका शिकार कर सकूँ में,
वो भी तो मारे गर्मी के,
छुपे हुए हैं -
अपनी अपनी
शरणस्थलियों में|
भूख को तो सहन कर लूँगा,
पर क्या करूँ प्यास का?
प्यास,
जो सिर्फ़ गले की ही नहीं है,
बदन की भी है|
चलो,
दोनो प्यासों को बुझाने के लिए,
क्यों न,
पानी में ही छलाँग लगाई जाए ||
- नवीन सी. चतुर्वेदी
कह ये वचन वो नारी-शक्ति, बाघिनी सदृश दिखी
सब शूरवीरों के जलद में चिंघाड़ करती वो उडी
"जब जब जलजला ज्वाल का जल जाएगा जंजाल में
जब जब कनक भूषित मनुज रह जाएगा कंगालमय
जिस दिन धरा पे जननी के अपमान पे सन्नाटा है, ख़ामोशी है
बस जान लेना ये कि बस, महाभारत अब होने ही वाली है"
कहते हैं कि फिर उस दिन ठाकुर जी ने लज्जा की तो लाज रखी
प र बाघिन की चिंघाड़ कुरुखेत्र के पहले भी है भला कभी थमी.
एक और युवा कवित्री Swati Kumar ने बहुत ही सादगी से कई गहरी बातें की. लीजिये आप भी देखिये, सुनिये और पढ़िए :मैं वनराज :
ऊपर जलता सूरज,
नीचे शीतल जल,
और
इनमे कुचाले मारता
मैं वनराज निश्छल,
मुझे क्या लेना इससे
के
गर्मी बढती जाती है,
मुझे नहीं पता मगर
माँ यही बताती है,
मैंने
देखा है यह
के मेरे साथी कम हो रहे हैं,
साथ साथ खेलते कूदते
जाने
कैसे और कहाँ खो रहे हैं,
यूँ उछलते कूदते
जल में विचरते
मैं
बहुत खुश होता हूँ,
अपनी ही दिखती परछाई को
पकड़ने की कोशिश
करता हूँ ||
इसी सुअवसर पर बात करते हुए Shail Agrawal ने एक अलग से अंदाज़ में बात की. अब वह अंदाज़ कैसा है...यह जानिए उन्हीं की ज़ुबानी:
साथ जो
परछांई-सा पलपल
उलझाता क्यों दूर से
बेचैन एक ख्वाइश
छलांग लगाती उड़ चली
पीछे सब छोड़
जमीं इनकी ना आसमान इनका
पकड़ो, सम्भालो, अधर में लटके
सपने ‘शेर’ नहीं होते
राजदां थीं जो उठती तरंगें
अब बस चन्द बुलबुले
मिटती जातीं झाग बन-बन के
अपना ही शिकार आसां नहीं
ना शिकार औ शिकारी साथ-साथ
खामोशी बिना हवचल के
मानो या न मानो
म ौत ही एक खेल, एक अहसास
जिन्दा रह पाए वन में..
-- शैल अग्रवाल
पर वहां एक अंदाज़ और भी था और वह भी अपने आप में अलग सा था. यह शानदार अंदाज़ था योगेश चन्द्र का.
अपने ही साये से, हूँ मैं परेशान
भागना चाहता हूँ दूर तक
एक लम्बी छलांग लगाकर
फिर भी यह साया साथ नहीं छोड़ता,
हूँ मैं बेहद हैरान....
इसी तरह इसी तस्वीर पर Meena Chopra का अंदाज़ भी यादगारी बना:
मुट्ठी भर पानी--
जीवन ने उठा दिया चेहरे से अपने
शीत का वह ठिठुरता नकाब
फिर उसी गहरी धूप में
वही जलता शबाब
सूरज की गर्म साँसों में
उछलता है आज फिर से
छलकते जीवन का
उमड़ता हुआ रुआब|
इन बहकते प्रतिबिम्बों के बीच
कहीं यह ज़िंदगी के आयने की
मचलती मृगतृष्णा तो नहीं?
किनारों को समेटे जीवन में अपने
कहीं यह मुट्ठी भर पानी तो नहीं?
-- मीना
इसी मुद्दे पर Deepak Jain ने अपने अंदाज़ और तेवरों में बात की:
क्यूँ ना कुछ मछरियाँ पकड़ी जाए
क्यूँ ना पानी में घात लगाईं जाये
या प्रतिबिम्ब से ही खेला जाये
या बस यूँ ही छलांग लगाईं जाए
मगर का शिकार भी कर ले आज
चलो कुछ अनोखा आजमाया जाए
तुम तपते रहो दिवाकर...
गर हराना है तो तुम्हे हराया जाये.
पोस्ट स्क्रिप्ट :
गुल खान देहलवी की गज़ल :
शाम ढलने वाली है सोचते हैं घर जाएँ
फिर खयाल आता है किस तरफ़ किधर जाएँ
दूसरे किनारे प’ तीसरा न हो कोई
फिर तो हम भी दरिया में बे- खतर उतर जाएँ
हिज़रती परिन्दों का कुछ यकीं नहीं होता
कब हवा का रुख बदले कब ये कूच कर जाएँ
धूप के मुसाफ़िर भी क्या अजब मुसाफ़िर हैं
साए में ठहर कर ये साए से ही डर जाएँ
12 comments:
सर आपका यह प्रयास वाकई सराहनीय है| हर कवि का अपना एक नज़रिया होता है, और जैसा कि आप भी जानते हैं कि "निज कवित्त किन लागि न नीका"; ऐसे में आप की टिप्पणियाँ हम सब के लिए काफ़ी ज्ञानवर्धक रहेंगी| धन्यवाद|
क्या शानदार प्रस्तुति है ...!! बयान नहीं कर सकता। एक से बढ़कर एक उम्दा रचना पढने को मिली।
आपका आभार।
पहले इस तरह की कार्यशालायें या कविता वर्कशॉप हुआ करते थे । अब यह बन्द हो गये है । लेकिन यह निरंतर होना चाहिये इनसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है ।
कथूरिया जी,
बहुत बहुत धन्यवाद कि आपने कार्यशाला की सूचना ब्लॉगजगत् को भी दी। बस आप इसमें फ़ेसबुक पर इस event का लिंक (http://www.facebook.com/group.php?gid=77250317543&v=app_2344061033&ref=ts#!/event.php?eid=120611414623484&ref=mf )
दे देते तथा यह और जोड़ देते कि कविता कार्यशाला का आयोजन फ़ेसबुक पर "Poetry : Hindi Kavita (हिन्दी-कविता)"( http://www.facebook.com/#!/group.php?gid=77250317543&ref=ts )
द्वारा किया गया था। ताकि आपके ब्लॉग के माध्यम से कोई कार्यशाला को देखना चाहे/ जुड़ना चाहे तो सम्भव हो सके।
एक विशेष बात और जोड़ दूँ कि इस कार्यशाला को पाकिस्तान के वरिष्ठ कवि/गज़लकार/पत्रकार/लेखक गुल खान (देहलवी) जी ने भी अपनी गज़ल से नवाज़ा । उनकी रचना निस्सन्देह कार्यशाला में आई सभी प्रविष्टियों में सर्वश्रेष्ठ थी/है।
अस्तु! अब तो इस कार्यशाला के समापन का समय हो चुका है, सो बस २ घंटे बाद इसे बन्द कर रही हूँ। हाँ, ग्रुप पूर्ववत् जारी और सक्रिय रहेगा।
पुन: आभारी हूँ आपके बड़प्पन के लिए, आत्मीयता के लिए। धन्यवाद।
This is marvelous. I have enjoyed a full Kavia Mehfil from this blog. This type work shops are required in every language every where. Rector ji, Thganks that you shared a good topic. Let us we too make efforts to start this type workshops in Punjabi so that new comers may learn some thing about the various formats of Punjabi Poetry and the trends being settled in it. Thanlks a Lot once again.
My best regards for all Hindi poets who participated in this work shop and its organizers .
Bahut hi sarahniye...sabhi kaviyon ne apne apne andaaz mein bahut hi umda rachna ki prastuti ki...abb ke zamane mein sab kuch kitna asaan ho gaya hai...humne toh net ke jariye ghar baithe hi sammelan mein bhaag le liye...thnks Rector Ji
har ek ghazal,kavita apne aap me kamaal ki thi,ek bahut achha paryaas hai,shukriya kathuria sahib,kavita ji ko shayad mai sun chuka hu,leicester me choupal ke ek programme me
shukria kathuria sahib,ek se bad kar ek kavita ghazals padne ko miliaapke is paryaas ki sarahna karta hu,leicester me choupal ki kisi mehfil me maine shayad kavita ji ko suna hai,esa lag raha hai
जसपाल जी, आपने सही पहचाना। "आवाज़ एफ़.एम." के "चौपाल" पर ३-४ बार कार्यक्रम में आई हूँ।
पर २००८ तक की बात है यह तो, उसके बाद वहाँ जाना नहीं हो पाया। आश्चर्य है कि आपको वह तब के इन्टर्व्यूज़् की बात याद है आप ने चीजों को एसोसिएट भी किया। सो नाईस!!
वैसे एक बात और जोड़ दूँ कि अभी १५-२० दिन पहले मैं आपके शहर में ही थी - लेस्टर में। :) पर तब जिस परिवार में थी, उनके अतिरिक्त किसी से पहचान ही नहीं थी।
कथूरिया जी ! आपकी पोस्ट का कमाल है। :)
कविता जी,
कमाल तो कविता के उस पुल का है जो आपने बनाया या फिर कमाल है बावा जी की यादाशत का...
दरअसल बावा जी बहुत ही भावुक और कवि मन के भी हैं...
लुधियाना के सभी पुराने मित्र और स्थल भी इनके स्मुर्ति संग्रह में अभी तक ताज़ा हैं...
मुझे यकीन है कि अब आपके वहां शायरी के आयोजन और बढ़ जायेंगे.....!
See -
http://srijangatha.com/bloggatha24_2k10
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I am sending it to some pals ans additionally sharing in delicious.
And naturally, thanks in your effort!
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