We call upon you all to quit the bandwagon of dead TUs
Carry forward the Strike of 11th July
हड़ताल को टालने का निर्णय पड़ेगा भारी
कर्मचारियों को लग रहा कि नेताओं ने उनके साथ धोखा किया है
Worker Socialist Movement |
नईदिल्ली। हड़ताल को टालने का निर्णय फेडरेशनों के साथ-साथ इनसे जुड़ी यूनियनों को भारी पडऩे वाला है। कर्मचारियों को लगने लगा है कि अब रेलवे में इनका विकल्प जरूरी हो गया है ताकि इनकी मनमानी पर अंकुश लगाया जा सके। कर्मचारियों के बीच अब यह नारा लग रहा है शौक नहीं मजबूरी है अब दोनों यूनियनों को हटाना जरूरी है…। इसी एक नारे से कर्मचारियों की भावनाओं को समझा जा सकता है। फेडरेशनों के निर्णय से कर्मचारियों के बीच काम करने वाले यूनियन पदाधिकारियों के सामने विकट स्थिति उत्पन्न हो गई है। वह चुप होकर बैठ गये हैं। उन्होने हांलाकि हड़ताल स्थगित करने को अपनी जीत बताने की कोशिश की लेकिन जिस प्रकार के उनको जबाव सुनने को मिले उससे उन्होने चुप रहना ही बेहतर समझा है। कर्मचारियों के बीच तेजी से यह बात फैल रही है कि जबतक सेवानिवृत्त लोगों को घर नहीं बैठाया जाता तब तक उनका भला होने वाला नहीं है।
हड़ताल को स्थगित करने के फैसले से कर्मचारी बिफरे हुये हैं। उन्हे लग रहा है कि नेताओं ने उनके साथ धोखा किया है। पहले से ही वेतन आयोग के खिलाफ सरकार को कोसने वाले यह लोग अब नेताओं को सबसे बड़ा धोखेबाज बताने से गुरेज नहीं कर रहे हैं। इनको लग रहा है कि सरकार के साथ फे डरेशनों के नेताओं ने कोई गुप्त समझौता किया है जिसके कारण हड़ताल को रद्ध किया गया है।
कर्मचारियों को किसी भी समिति पर कोई विश्वास नहीं है। वह तो 11 जुलाई को हड़ताल या फिर उठाये गये मुद्धों का हल चाहते थे। लेकिन फेडरेशनों के नेताओं ने जिस प्रकार से सरकार के सामने समर्पण किया उसे लेकर वह काफी आक्रोशित हैं। उन्हे लग रहा है कि नेताओं ने उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया, हड़ताल के नाम पर उन्हे बरगलाया गया।
वहीं दूसरी ओर अब जमीनी स्तर पर कार्य करने वाले यूनियन के पदाधिकारियों के सामने अजीब स्थिति उत्पन्न हो गई है। वह पद जाने के डर से अपनी यूनियन के निर्णय का विरोध नहीं कर पा रहे हैं लेकिन उन्हे भी लग रहा है कि बड़े नेताओं ने गलत किया है। पिछले कई दिनों से सोशल मीडिया में यह पदाधिकारी हड़ताल को लेकर जमकर माहौल बनाने में लगे हुये थे। अब इनके पास कोई जबाव नहीं है। कई कर्मचारियों ने रेलवार्ता कार्यालय में फ ोन कर जानना चाहा कि नेता कितने में बिके हैं यदि कोई गुप्ता जानकारी हो तो उसे सार्वजनिक किया जाये। कर्मचारी पदाधिकरियों से पूछ रहे हैं कि उनके नेताओं ने कितने में समझौता किया है…। सोशल मीडिया पर कई दिनों से छाये यह नेता अब भूमिगत हो गये हैं।
दरअसल हड़ताल स्थगित करने के निर्णय को सही ठहराने की उन्होने कोशिशें की लेकिन कर्मचारियों के जबाव सुनकर इन्होने चुप रहना ही बेहतर समझा।
कल तक सरकार को वेतन आयोग की सिफारिशों को लेकर निशाना बना रहे यह कर्मचारी अब दोनों फेडरेशनों को निशाना बनाये पड़े हुये हैं। नेताओं को गंदी से गंदी गाली देने में भी इन्हे अब परहेज नहीं हैं। कर्मचारियों के इस गुस्से को देखकर लगता है कि यदि फेडरेशन के नेता हड़ताल के लिये अड़ जाते तो शायद कर्मचारियों का कुछ भला हो जाता या फिर 1974 के बाद एक बार हड़ताल हो जाती। इस तरह से घुटने टेकने से अच्छा था एक सम्मान जनक समझौता या फिर हड़ताल। कर्मचारियों का कहना है कि फेडरेशनों के नेता कभी हड़ताल करना ही नहीं चाहते थे वह तो सरकार को ताकत दिखाना चाहते थे ताकि कुछ पर्दे के पीछे से कुछ पाया जा सके लेकिन उल्टा हो गया। आज मोदी सरकार ने इन नेताओं की विश्वनीयता पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। कल तक सरकार को गाली देने वाले आज इनको गाली दे रहे हैं। शायद सरकार चाहती भी यही थी।
by Rohit kumar tpz
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