An Article by the Asian Human Rights Commission Wed, Sep 18, 2013 at 1:42 PM
सत्ता में सहभागिता का भ्रम-1
21वीं सदी में मध्यप्रदेश में तीसरे विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. हम उम्मीद करते हैं कि चुनाव एक बेहतर समाज के निर्माण की दिशा में सबसे बड़ी लोकतान्त्रिक घटना होती है. इसी चुनाव के पहले मध्यप्रदेश में गुर्जर महासभा की बैठक हुई और उन्होंने कहा कि देश में हमारे १८ लाख मतदाता हैं इसलिए हर दल ४० से ज्यादा सीटों पर गुर्जरों को चुनाव लड़ाएं. इसके बाद चेतावनी शुरू होती है – यदि ऐसा नहीं किया गया तो हर राजनीतिक दल को सबक सिखाया जायेगा! आज दुनिया में लोगों की सहभागिता को एक अधिकार के रूप में स्वीकार किये जाने के लिए वकालत की जा रही है. इस आंदोलन की बहस में सबसे बड़ा सवाल यह होना चाहिए कि जिस तरह की राज्य और राजनीतिक व्यवस्था हमारे सामने है, क्या उसकी मंशा होगी कि तथाकथित विकास और नियोजन की प्रक्रिया में लोग शामिल हों?
हमें हर स्तर पर सिखाया जाता है कि लोकतंत्र का मतलब है लोगों की, लोगों के लिए और लोगों के द्वारा चलने वाली व्यवस्था. इसका बहुत सीधा सा मतलब है कि हम उस व्यवस्था की कल्पना करते हैं जिसमे लोगों के हित सबसे ऊपर हों और उसके नीचे कोई दूसरा हित हो ही न. वर्ष २००७ से एक शब्द बहुत सुना, अब यह शब्द चुभने लगा है- समावेशी विकास; अपने योजना आयोग ने ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना का आधार बनाया था इन दो शब्दों को. अब सबसे पहला सवाल यह है कि भारत में समावेशी विकास लाने की पहल कौन कर रहा है? और दूसरा सवाल यह कि किसके समावेश की बात हो रही है? तीसरा सवाल यह कि किसके विकास की बात हो रही है? यह बात मन में खटकना ही चाहिए कि भारत का योजना आयोग समावेशी विकास की अवधारणा दे रहा है; वह कहता है कि वंचित तबकों, आदिवासियों, दलितों, महिलाओं, विकलांगों को विकास की मुख्यधारा में लाया जाना है. भारत में इससे तीन दशक पहले विकास में लोगों की खासतौर पर वंचित तबकों की सहभागिता की बात शुरू हुई. फिर ८० के दशक में शासन व्यवस्था में लोगों की सहभागिता की चर्चा शुरू हुई. और फिर ९० के दशक में ग्रामीण और नगरीय निकायों के जरिये यह दिखाया गया कि सरकार चाहती है कि लोग भी विकास की कहानी में कोई छोटा-मोटा पात्र निभाएं. इन दो शब्दों – समावेशी विकास और सहभागिता को एक दूसरे का पूरक मानते हुए चलिए कुछ बात की जाए. हमें लगता है कि सहभागिता का मतलब एक भीड़ का इकट्ठे हो जाना मात्र नहीं है; इसका मतलब है अपने और अपने समाज की बेहतरी के लिए सोचना और कदम उठाना; अपने समाज के लिए लोग जो भी निर्णय लें, उसकी जिम्मेदारी लेना और यह सुनिश्चित करना कि अपनी जरूरतें पूरी करते समय आने वाली पीढ़ी और प्रकृति के हितों को नुक्सान न पंहुचाया जाए.
हमारी सरकारों की यह कभी मंशा नहीं रही कि वास्तव में लोगों की सहभागिता हो, इससे सरकारों और व्यावस्था की निरंकुशता सीमित हो जाना तय था. सबसे ताज़ा उदाहरण देखिये. वर्ष २००९ के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने वायदा किया कि वह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून लागू करेगी ताकि किसी को भूखा न सोना पड़े. वाजिब वायदा था. ३० करोड़ से ज्यादा लोग हर रोज आधे पेट रहते हैं. एक प्रक्रिया चली और संसद में विधेयक प्रस्तुत किया गया. संसदीय प्रणाली में प्रावधान है कि यदि कोई बहस हो तो संसद विधेयक को चर्चा के लिए संसद की स्थायी समिति के पास भेजेगी. खाद्य सुरक्षा विधेयक भी स्थायी समिति के पास गया. इस समिति की जिम्मेदारी होती है कि वह लोगों, संस्थाओं और नागरिक संगठनों की सहभागिता सुनिश्चित करते हुए उनके विचारों को इसमे शामिल करे. यहाँ सहभागिता के उन रूपों का उल्लेख जरूरी है. समिति ने अपनी रिपोर्ट में उल्लेख किया है कि उसे इस विषय पर डेढ़ लाख से ज्यादा पत्र मिले. यानी ऐसा नहीं है कि लोग सो रहे हों या जागरूक नहीं हैं, यह साबित हो गया. इन पत्रों में लोगों ने खाद्य सुरक्षा के लोकव्यापीकरण, अधिकारों में दाल-तेल का उल्लेख, खेती को शामिल करना की सबसे ज्यादा मांग की थी. समिति ने इनमे से किसी मांग को नहीं माना. पूरी सम्भावना है कि हर मांग या सुझाव को स्वीकार कर पाना भी संभव नहीं हुआ होगा. यानी हर सुझाव को खारिज करने का कोई न कोई कारण रहा होगा. यह हम लोगों की सहभागिता का सच में सम्मान करते तो हम उन्हे वे कारण बताते जिनके चलते लोगों की ज्यादातर मांगें नहीं मानी गयी. इस मामले में हमारी संसदीय प्रणाली भी लोगों के प्रति जवाबदेय नहीं है. इसके बाद स्थायी समिति ने अपने सुझाव संसद को दिए. सरकार ने उनमे से कुछ को माना, कुछ को नहीं माना. यहाँ भी लोगों को यह नहीं बताया गया कि उनके निर्णय का आधार क्या रहा? इसी सन्दर्भ में लोक सभा के सांसदों ने बहुत गंभीरता के साथ ३१८ संशोधन सदन में पेश किये. इनमे से १० संशोधन खाद्य मंत्री के पेश किये थे. जब बहस हुई तो मंत्री के संशोधन स्वीकार किये गए बाकी के सभी संशोधन अस्वीकार कर दिए गए. लोगों से लेकर चुने हुए जनप्रतिनिधियों तक सहभागिता भी शर्तों पर होती है.
हम सहभागी लोकतंत्र की बहस करते हैं पर यह भूल जाते हैं कि हमारी ४३ फीसदी आबादी १८ साल से कम उम्र की है. जिसे न वोट देने का अधिकार है और न ही वह नियमों के मुताबिक़ ग्रामसभा और वार्ड सभा का हिस्सेदार है.. उस समूह के लिए अपने मन और मस्तिष्क की बात कहने का कोई मंच या तंत्र हमारे संविधान ने ही नहीं बनाया है. न तो वह शिक्षा व्यवस्था के बारे में अपनी कोई प्रतिक्रिया दे सकता है, न ही यह बता सकता है कि उसे मध्यान्ह भोजन या अपनी किताबें या शिक्षकों के पढाने की तरीका पसंद है या नहीं!
हमने पंचायतीराज व्यवस्था को यह मानते हुए स्वीकार किया कि हर गांव और हर बस्ती एक गणराज्य का रूप ले सकेगा. शायद हम यह सपना देखने लगे थे कि लोग अपनी जरूरतों के आधार पर अपनी उत्पादन, वितरण और प्रबंधन की व्यवस्था खुद बनायेंगे. वे संसाधनों का जिम्मेदार और रचनात्मक संरक्षण करेंगे और उपयोग भी. वर्ष २००० में मध्यप्रदेश में बने दो बड़े बांधों इंदिरा सागर और ओंकारेश्वर बांधों से सिंचाई के लिए बड़ी और मझौली नहरों के निर्माण का काम होना तय किया गया. सरकार ने १० सालों तक न कोई योजना बनायी, न लोगों को इसके बारे में कुछ बताया कि उन्हे बाँध के बाद नहरों के लिए भी जमीन छोड़ना होगी. और फिर अचानक तत्काल अनिवार्यता का प्रावधान लागु करके खुदाई शुरू कर दी. उल्लेखनीय है कि इस काम में जाने वाली जमीनों के लिए कोई मुआवजे का भी प्रावधान नहीं था. लोगों ने कुछ कहा, पर सरकार नहीं रुकी. तब अदालत में यह मामला गया क्योंकि आदिवासी इलाकों में पंचायती राज क़ानून के तहत हर काम के लिए ग्राम सभा की अनुमति लेना जरूरी है. लोगों ने अदालत को कहा कि क़ानून के मुताबिक हमसे तो कुछ पूछा ही नहीं गया, न पंचायत ने अनुमति दी है. इस पर सरकार ने तत्काल यह संशोधन कर दिए कि पंचायत नहीं, बल्कि उपयुक्त स्तर पर पंचायत की अनुमति जरूरी है. यानी तब ग्राम पंचायत के बजाये जनपद पंचायत की अनुमति ले ली गयी और गाँव को धक्का मार कर रास्ते से हटा दिया गया. सहभागिता तो दूर की कौड़ी है.
About the Author: Mr. Sachin Kumar Jain is a development journalist, researcher associated with the Right to Food Campaign in India and works with Vikas Samvad, AHRC's partner organisation in Bhopal, Madhya Pradesh. The author could be contacted at sachin.vikassamvad@gmail.comTelephone: 00 91 9977704847
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About AHRC: The Asian Human Rights Commission is a regional non-governmental organisation that monitors human rights in Asia, documents violations and advocates for justice and institutional reform to ensure the protection and promotion of these rights. The Hong Kong-based group was founded in 1984.
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