Wednesday, October 27, 2010

मीडिया कभी नहीं बताता कि आखिर अरुंधति के पास कौन सा जादू है ?

जानी मानी लेखिका अरुंधति राये को लेकर  विवाद फिर गरमाया जा रहा है. अरुंधति की कवरेज को लेकर मीडिया का कुछ हिसा अगर खामोश है तो दूसरा हिस्सा बार बार चिल्ला रहा है कि आखिर अभी तक अरुंधति पर देशद्रोह का मामला दर्ज क्यूं नहीं हुआ. मीडिया के इस हिस्से ने कानूनी विशेषज्ञों की राये भी सब के सामने रखी है कि अरुंधति के कौन कौन से शब्दों पर कौन सा मामला दर्ज हो सकता है और कहां कहां पर हो सकता है. कभी अरुंधति के पुतले जलाये जाने की खबर दिखा दिखा कर, कभी उसे माओवादी बता बता कर, कभी उसे अलगाववादी बता कर एक विशेष "जनमत" बनाने में जुटा मीडिया कभी नहीं बताता कि आखिर अरुंधति के पास कौन सा जादू है ? उसकी सभायों में लोग दूर दूर से चल कर क्यूं पहुंचते हैं? उसकी बातों को देव-वाणी की तरह क्यूं सुनते हैं....? बहुत से सवाल हैं जिनका जवाब भी मीडिया के पास है लेकिन वह उन्हें जनता के सामने लाना ही नहीं चाहता.  मीडिया के इस हिस्से की कुछ अपनी मजबूरियां हैं जिन्हें कभी राष्ट्रवाद का नाम दिया जाता है और कभी शांति और अहिंसा का.  मीडिया की भूमिका पर, मीडिया की आज़ादी पर जनतंत्र ने अरुंधति से ही बात की. सवाल समरेंद्र ने किया  भारत में मीडिया की आज़ादी को आप किस तरह देखती हैं? क्या मीडिया सच में आज़ाद है? 
जवाब में अरुंधति राये ने जो कहा वह भी ज़रा गौर से पढ़ि भारत में बहुत अलग-अलग किस्म का मीडिया हैं। ये जिसे हम कॉरपोरेट मीडिया कहते हैं वो किसी भी तरह आज़ाद नहीं है। हमको मालूम है कि ये सारे जो टीवी चैनल हैं और न्यूज़पेपर हैं उनका 90 फीसदी रेवेन्यू कॉरपोरेट से आता है। तो वो आज़ाद कैसे रह सकते हैं। हम इस चक्कर में पड़ जाते हैं कि आदमी अच्छे नहीं हैं, लेकिन सच्ची बात तो ये है कि उसका ढांचा ही ऐसा है कि वो आज़ाद नहीं रह सकते। अगर उन्होंने किसी भी कॉरपोरेट के ख़िलाफ़ लिखा जैसे टाटा या रिलायंस के ख़िलाफ़ तो अचानक उनकी एडवर्टाइजिंग रेवेन्यू कम हो जाएगी। न्यूज़ पेपर या चैनल चलाना ही मुश्किल हो जाएगा। एक तरह से पूरा जो निजीकरण और कॉरपोरेटाइजेशन हो रहा है। पानी का, हेल्थ का एग्रीकल्चर का .. एक तरह से हमारी ज़िंदगी का पूरा कंट्रोल कॉरपोरेट्स के हाथ में जा रहा है। एक तरह से मीडिया का कंट्रोल भी उनके हाथ में है। जो मीडिया का मौलिक काम है वो इस ढांचे में नहीं हो सकता। ऐसी बहुत सी बातें अरुंधति राये ने कही हैं जो सोचने को मजबूर करती हैं. इन सभी बातों को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करिए. 
हाल ही में जब अरुंधति ने एक सभा में साफ़ साफ कहा कि समाज से तो नक्सली जुड़े हुए हैं, लेकिन सरकार आजादी के बाद से आज तक नहीं जुड़ सकी। जुड़ी होती तो माओवाद पैदा ही नहीं होता। इस बात ने सभी को अंदर तक हिला दिया, सोचने पर मजबूर कर दिया. विकास के दावों की पोल खोलते हुए अरुंधति ने कहा," विकास और नरसंहार का क्या कोई रिश्ता है? अरुधंती ने कहा औपनिवेशिक युग में विकास के लिए नरसंहार होते रहे हैं। यह रिश्ता बहुत पुराना है। जो भी आज विकसित देश बने हैं, वे अपने पीछे नरसंहार छोड़ आए हैं। लैटिन अमेरिका, दक्षिण अफ्रिका आदि देशों में विकास के लिए बड़े पैमाने पर नरसंहार किए गए। अपने देश में भी सरकार विकास के लिए आदिवासियों का नरसंहार कर रही है। आपरेशन ग्रीन हंट इसीलिए चलाया जा रहा है। इसके जरिए सरकार आदिवासियों की जमीन अधिग्रहण कर कारपोरेट कंपनियों को देना चाहती है। वे धरती के गर्भ में छिपे बाक्साइट को कंपनियों के हवाले करना चाहते हैं। इससे किसका विकास होगा? देश का? नहीं। इससे कंपनियां मालामाल हो जाएंगी, हो रही हैं। सरकार के हाथों कुछ नहीं आएगा। रॉय ने कहा, देश में नई स्थिति है। अब अपने देश में ही आदिवासी क्षेत्रों में नई कालोनियां बनाई जा रही हैं। यह आंतरिक उपनिवेशवाद है।" इसे पूरा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.
अरुंधति  की चर्चा अब मुंबई, रांची या दिल्ली में ही नहीं, पंजाब में भी है. उसकी बात अब हिंदी या अंग्रेजी में ही नहीं पंजाबी में भी है, टीवी या अखबारों में ही नहीं इंटरनैट और फेसबुक पर भी है.  फेसबुक पर पंजाबी पाठक इसे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. अगर आप भी इस मुद्दे पर कुछ कहना चाहते हैं तो आपके विचारों की इंतज़ार हमें भी है.   --रेक्टर कथूरिया 

4 comments:

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जिस विषय पर पूरे देश में बहस छिड़ी हो, उस पर तुरंत कुछ कहना सम्भव नहीं| अरुंधती जी का विवादों से जुड़ा रहना ज़रूर अखरता है अक्सर| राजनीति क्या है? बयानबाज़ी क्या है? दो ग्रहों की टक्कर का परिणाम कितना, किसे, कब और कैसे भुगतना होता है - यह सब हिन्दुस्तानी समझ चुके हैं अब तक| देश के खिलाफ बोली गयी किसी भी बात का कोई भी राष्ट्रीय व्यक्ति समर्थन नहीं कर सकता| पर अगर सच कुछ और ही है, तो थोड़ा सब्र कर लेते हैं, जो भी होगा - सामने आना ही है|

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