Wednesday, October 27, 2010

अरुंधति रॉय के खिलाफ दर्ज मामले पर सुनवाई 22 नवम्बर को

अरुंधति राये के खिलाफ कारवाई की अशंकायो के बढ़ते ही वैब मीडिया में इसके विरोध का स्वर भी तेज़ी से मुखर होने लगा है. विरोध और समर्थन की रेखा इस बार कुछ और गहरी हुई है. दोनों तरफ अपने अपने तर्क हैं जिनके साथ समर्थन करने वाले भी और उनका विरोध करने वाले भी कुछ और खुल कर सामने  आये हैं.इस तरह लगता है कि कलम का युद्ध प्रचंड होने की तैयारी में है. इसकी चचा करने से अच्छा होगा कि अरुंधति के ब्यान को एक बार पढ़ लिया जाए. अरुंधति रॉय का वह बयान कुछ इस तरह है:मैं यह श्रीनगर, कश्मीर से लिख रही हूँ. आज सुबह के अख़बारों ने लिखा है कि मैं कश्मीर पर आयोजित एक आमसभा में कही गयी अपनी बातों के लिए देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार हो सकती हूँ. मैंने वह कहा जो यहाँ दसियों लाख लोग रोज कह रहे हैं. मैंने वही कहा जो दूसरे लेखक सालों से लिखते और कहते आये हैं. मेरे भाषणों को पढने की ज़हमत उठानेवाले यह देखेंगे कि मैंने बुनियादी तौर पर इंसाफ की मांग की है. मैंने कश्मीरी लोगों के लिए इंसाफ के बारे में कहा है जो दुनिया के सबसे क्रूर फौजी कब्ज़े में रह रहे हैं, उन कश्मीरी पंडितों के लिए, जो आपने घरों से उजाड़ दिए जाने की त्रासदी में जी रहे हैं, उन दलित सैनिकों के लिए, कूड़े के ढेर पर बनी कब्रों को मैंने कुड्डालोर में उनके गांवों में देखा, भारत के उन गरीबों के लिए जो इस कब्ज़े की कीमत चुकाते हैं और एक बनते जा रहे पुलिस राज के आतंक में जीना सीख रहे हैं.
कल मैं शोपियां गयी थी- दक्षिणी कश्मीर के सेबों के उस शहर में जो पिछले साल 47 दिनों तक आसिया और नीलोफर के बर्बर बलात्कार और हत्या के विरोध में बंद रहा था. इन दोनों युवतियों की लाशें उनके घरों के पास की एक पतली सी धारा में पाई गयी थी और उनके हत्यारे अब भी क़ानून से बहार हैं. मैं नीलोफर के पति और आसिया के भाई शकील से मिली. मैं वेदना और गुस्से से पागल उन लोगों के साथ एक घेरे में बैठी जो भारत से इंसाफ पाने की उम्मीद को खो चुके हैं, और अब यकीन रखते हैं कि आज़ादी उनकी अकेली उम्मीद है. मैं पत्थर फेंकनेवाले उन नौजवानों से मिली जिनकी आँखों में गोली मारी गयी थी. मैंने एक नौजवान के साथ सफ़र किया, जिसने मुझे बताया कि अनंतनाग जिले के उसके तीन किशोर दोस्त हिरासत में लिए गए और पत्थर फेंकने की सजा के तौर पर उनके नाखून उखाड़ लिए गए.
अख़बारों में कुछ लोगों ने मुझ पर नफ़रत फ़ैलाने और भारत को तोड़ने का आरोप लगाया है. इसके उलट, मैंने जो कहा है उसके पीछे प्यार और गर्व की भावना है. इसके पीछे यह इच्छा है कि लोग मारे न जाएँ, उनका बलात्कार न हो, उन्हें कैद न किया जाये और उन्हें खुद को भारतीय कहने पर मज़बूर करने के लिए उनके नाखून न उखाड़े जाएँ. यह एक ऐसे समाज में रहने की चाहत से पैदा हुआ है जो इंसाफ के लिए जद्दोजहद कर रहा हो. तरस आता है उस देश पर जो लेखकों की आत्मा की आवाज़ को खामोश करता है. तरस आता है उस देश पर जो इंसाफ की मांग करनेवालों को जेल भेजना चाहता है जबकि सांप्रदायिक हत्यारे, जनसंहारों के अपराधी, कार्पोरेट घोटालेबाज, लुटेरे, बलात्कारी और गरीबों के शिकारी खुले घूम रहे हैं....( 26 अक्टूबर 2010 ) हाशिया ब्लॉग पर प्रकाशित इस ब्यान को यहाँ हाशिया से साभार हू-ब-हू दिया गया है. आप इसे अंग्रेजी में भी पढ़ सकते हैं केवल यहां क्लिक करके
अरुंधति राये के विरोध में भी काफी कुछ कहा गया है लेकिन अरुंधति के तर्क की गरिमा कहीं भी कम नहीं हो पाई. विरोध के स्वर उनके आस पास भी नहीं पहुंच पाते. इसी बेच बहुत ही तीखे तेवर लिए हुए एक और लेख सामने आया है भूपेन सिंह का.   भूपेन सिंह सहारा समय, ज़े न्यूज़ और स्टार न्यूज़ में लम्बे समय तक नौकरी कर चुके हैं. आजकल पूरी तरह अध्यापन से जुड़े हैं पर  कुछ अखबारों के लिए भी नियमत तौर पर  लिखते हैं. उन्हों ने अब साफ़ आफ कहा है कि राष्ट्र अंतिम सत्य नहीं इस लिए अरुंधति को सुनो. प्रस्तुत है उनका लेख ज्यूं का त्यूं, जिसे हम मोहल्ला लाइव से साभार यहां प्रकाशित कर रहे हैं.: 
लेखिका अरुधंती रॉय पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाने के लिए गृह मंत्रालय ने पुलिस को हरी झंडी दे दी है। अब हो सकता है कि अरुंधती पर मुकदमा दर्ज हो जाए और उन्हें पकड़कर जेल में डाल दिया जाए। गृह मंत्रालय इस मामले में जिस तरह सक्रिय हुआ है, उससे लगता है कि हमारा लोकतंत्र लगातार असहमति की आवाजों को दबाने में अपना बड़प्पन समझ रहा है और राष्ट्र को बचाने के नाम पर अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगा रहा है।
अरुंधती को कश्मीर की आजादी का समर्थन करने की वजह से देशद्रोही ठहराने की कोशिश की जा रही है। इसी महीने की इक्कीस तारीख को उन्होंने दिल्ली के मंडी हाउस में कश्मीरी नेता सैयद अली शाह गिलानी के साथ आजादी : द ऑनली वे(आजादी : एक ही रास्ता) नाम के एक सेमिनार में कश्मीरी लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन किया था। वे अपने इस पक्ष को पहले भी कई बार सार्जनिक कर चुकी हैं। गौरतलब है कि अरुंधती किसी भी आजादी का अंध समर्थन नहीं करती हैं बल्कि वे कश्मीरियों का समर्थन करती हुईं न्याय के सार्वभौमिक सिद्धांतों की याद दिलाती हैं। वे कश्मीर की आजादी की बात कर रहे लोगों को सचेत करती हैं कि जो आजादी अपनी जनता को न्याय नहीं दिला सकती, उसका कोई मतलब नहीं। इस तरह अरुंधती तमाम तरह की गैरबराबरी से मुंह मोड़कर राष्ट्रीय एकता की वकालत करने वाली सरकार के साथ ही कश्मीर को इस्लामी राष्ट्र बनाने की ख्वाहिश रखने वालों की तरफ से भी ‘गलत’ समझ लिये जाने के खतरों को उठाती हुई न्याय के पक्ष में बोलती हैं।
उस दिन सेमिनार में अरुंधती के बाद जब हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेता सैयद अली शाह गिलानी को बोलने के लिए बुलाया गया तो कश्मीर की आजादी की मांग करते हुए वे इस बात का यकीन दिलाने की कोशिश करते दिखे कि आजाद कश्मीर में हर किसी को न्याय मिलेगा। लेकिन उनके भाषण के निहितार्थों से लगा कि वे किस तरह के न्याय के पक्षधर हैं। उनकी तरफ से कश्मीर को इस्लामी कानून पर चलाने की मंशा आत्मनिर्णय के अधिकार के पक्ष में वहां मौजूद बहुत से लोगों को हजम नहीं हुई। गिलानी का भाषण भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की बहसों की याद दिलाने वाला था, जिसमें कुछ लोग जैसे-तैसे सिर्फ आजादी हालिस करना चाहते थे, जबकि भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी तब भी सवाल उठा रहे थे कि उन्हें ऐसी आजादी नहीं चाहिए जिसमें गोरे अंग्रेज चले जाएं और काले अंग्रेज सत्ता पर बैठ जाएं। अफसोस की बात है कि कश्मीर में आजादी की बात करने वालों में भगत सिंह जैसे धर्मनिरपेक्ष और न्यायप्रिय लोग बहुत कम नजर आते हैं। ऐसे हालात में अरुंधती भगत सिंह की उसी परंपरा को याद दिलाती हैं।
अरुंधती की बातों का अलग विश्लेषण किया जाए तो वे राष्ट्र को किसी कट्टरपंथी नजरिये से देखने के बजाय उसे मानवाधिकार और न्याय से जोड़कर देखती हैं। समाजशास्त्रीय व्याख्याओं को ध्यान में रखते हुए राष्ट्र कोई अंतिम सत्य नहीं है। राष्ट्र हमेशा इंसानी कल्पनाओं की उपज होता है। उसे गढ़ते वक्त एक भाषा, नृजातीयता और संस्कृति को आधार बनाया जाता है और हमेशा एक तरह की समरूपता तलाशी जाती है या निर्मित करने की कोशिश की जाती है। अक्सर समाज का सबसे ताकतवर तबका ही ‘राष्ट्र’ की कल्पना करता है, जबकि दो जून की रोटी के लिए लड़ रहे गरीब इंसान के लिए ‘राष्ट्र’ के कोई मायने नहीं होते। उसे राष्ट्र की प्रभुत्ववादी परिभाषाओं को मानने के लिए हमेशा मजबूर किया जाता है। हमारे विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम राष्ट्रीयता पर इस तरह के विमर्शों से भरे पड़े हैं। तो क्या सरकार आने वाले दिनों में उन सभी विचारों पर भी प्रतिबंध लगाने जा रही हैं? या राष्ट्र की एक रेखीय परिभाषा को मानने के लिए विद्यार्थियों और प्राध्यापकों को मजबूर करने जा रही है? विवेक पर प्रतिबंध लगाने का ये उपक्रम सिर्फ फासीवाद की तरफ ही ले जा सकता है।
अरुंधती लगातार शोषित जनता के सवालों को उठाते हुए सत्ता के खिलाफ खड़ा होने का साहस दिखाती रही हैं। न्याय के दृष्टिकोण से वैश्वीकरण विरोधी आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन, माओवादी आंदोलन और कश्मीरी आंदोलन समेत वैकल्पिक राजनीति की बात करने वाले कई आंदोलनों के साथ उनकी सहानुभूति रही हैं। वो एक पब्लिक इंटलेक्चुअल की तरह निर्भीकता से सही और न्यायसंगत बात के पक्ष में खड़े होने का साहस दिखाती रही हैं। जाहिर है कि सत्ताधारी वर्ग को हमेशा उनकी बातों से दिक्कत होती है। लेकिन सरकारों को इस बात को इस बात को समझना पड़ेगा कि कलाकारों और बुद्धिजीवियों से किस तरह बर्ताव किया जाना चाहिए। वे व्यवहार में न सही विचारों के लोकतंत्र को तो कम से कम स्वीकार कर लें।
अरुंधती ने उनके खिलाफ हो रही बयानबाजियों पर टिप्पणी की है कि ऐसे राष्ट्र पर तरस आता है, जो न्याय मांगने पर जेल में डाल देता है। जबकि वहां सांप्रदायिक कत्लेआम मचाने वाले, कॉर्पोरेट घोटालेबाज, लुटेरे, बलात्कारी और शोषक मुक्त होकर घूमते हैं। वे कश्मीर में सरकारी या गैर सरकारी हिंसा और दमन के शिकार सभी लोगों से सहानुभूति दिखाती हैं। यही वजह है कि वे वहां से भगाये गये हिंदुओं पर हुए अन्याय को भी स्वीकारती हैं और इससे मुंह चुराने की वजाय इसे एक त्रासदी बताती हैं। इन सारी बातों को ध्यान में रखते हुए इस साहसी लेखिका को सलाखों के पीछे डालने की धमकी देना कुछ भी हो लोकतांत्रिक तो नहीं हो सकता।
हमारे शासकों को ध्यान रखना चाहिए कि न्यायप्रिय बुद्धिजीवियों के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाए। इस सिलसिले में फ्रांसीसी राष्ट्रपति चार्ल्स द गॉल और नोबल पुरस्कार ठुकराने वाले लेखक और विचारक ज्यां पॉल सार्त्र से जुड़ा एक वाकया गौरतलब हो सकता है। तब अल्जीरिया फ्रांस का उपनिवेश हुआ करता था। सार्त्र खुलेआम अल्जीरिया की आजादी के पक्ष में उतर आये। कट्टर राष्ट्रवादी ताकतों ने देशभर में उनके खिलाफ माहौल बनाया। उन्हें गिरफ्तार कर जेल के डालने की मांग दोहरायी तब द गॉल ने कहा कि सार्त्र वॉल्तेयर की तरह हैं और फ्रांस वाल्तेयर को गिरफ्तार नहीं कर सकता। यानी दे गाल जैसा शासक जानता था कि न्यायप्रिय बुद्धिजीवियों और कलाकारों के साथ समाज में किस तरह बर्ताव किया जाए। क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का घमंड पालने वाले हमारे शासक इस वाकये से कुछ सबक लेंगे। इसी बीच द गाड आफ मॉल थिंग्स की रचेयता और इसी रचना पर  बुकर पुरस्कार विजेता लेखिका अरुंधति रॉय के खिलाफ रांची में दर्ज मामला मंगलवार को न्यायिक दंडाधिकारी की अदालत में स्थानांतरित कर दिया गया। मामले पर 22 नवम्बर को सुनवाई होगी। 
मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी विजय कुमार ने दोनों मामलों को न्यायिक दंडाधिकारी अमित शेखरी के पास न्यायिक जांच के लिए भेज दिया।

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