यदि कार्ल मार्क्स अपनी कब्र से उठकर कभी भारत आ पहुंचें तो वे हक्के-बक्के रह जाएंगे| वे अपने भारतीय चेलों को चीनी चेलों से भी आगे-आगे दौड़ता हुआ पाएंगें| बंगाल के हमारे कामरेडों ने पहले देसी और विदेशी पूंजीपतियोंके आगे घुटने टेके, नंदीग्राम और सिंगुर किया और अब वे वोट के खातिर उस मज़हब की शरण में जा रहे हैं, जिसे महात्मा मार्क्स ‘जनता की अफीम’ कहते थे| प. बंगाल की सरकार ने अब पिछड़ों का आरक्षण सात प्रतिशत से बढ़ाकर 17 प्रतिशत कर दिया है ताकि बंगाली मुसलमानों के वोट खींचे जा सकें| यह मार्क्सवादियों का दोहरा शीर्षासन है|दोहरा इसलिए कि ‘वर्ग’ की छाती पर पहले उन्होंने मज़हब को बिठाया और फिर मज़हब के सिर पर जात बिठा दी| वह वर्ग-संघर्ष दरकिनार हो गया, जो मार्क्सवाद की प्राणवायु है| कैसी विडंबना है कि भारत के कांग्रेसियों, भाजपाईयों और जातिवादी नेताओं की तरह हमारे मार्क्सवादी भी जात और मज़हब के नाम पर रेवाडि़यां बांटने में जुट गए हैं| आए थे, वेवर्गविहीन समाज की स्थापना करने और अब वे पाए जा रहे हैं, भारत में जातिवादी और मजहबवादी समाज को मजबूत बनाते हुए | सर्वहारा को संघर्ष की कला सिखाने के बदले मार्क्सवादी उन्हें ‘अफीम’ की गोलियां बाट रहे हैं| मान लिया कि सारे सर्वहारा एक-जैसे हैं| क्या हिंदू और क्या मुसलमान ? यहां तक तो ठीक है लेकिन असली सवाल यह है कि जब सेंत-मेत में नौकरियां मिलेंगी तो क्या उनके दिलों में वर्ग-संघर्ष का जज़्बा मजबूत होगा ? दूसरों की दया पर जीनेवाले लोग क्या कभी न्याय के लिए लड़ सकते हैं ? नौकरियों में आरक्षण विपन्नों को संपन्नों का मौन अनुगत बनाने का षडयंत्र् है| इस वर्ग-चेतना के विनाश में अपने मार्क्सवादियों का भागीदार होना सचमुच आश्चर्यजनक है| नौकरियों में आरक्षण को प्रोत्साहित करना हमारे देश के सर्वहारा को अनंतकाल के लिए अपंग बना देना है| जनोक्ति पर डाक्टर वेड प्रताप वैदिक के इस ज्वलंत लेख को पूरा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.
अभी हाल ही में पंजाब स्क्रीन की किसी पोस्ट में फैज़ साहिब पर चर्चा की गयी थी. इसी सिलसिले में जनोक्ति की एक और नयी पोस्ट भी बहुत महत्वपूर्ण है. भारतीय उपमहाद्वीप में इस साल फैज़ अहमद फैज़ की जन्मशती का जश्न चल रहा है। पाकिस्तान की सरजमीं के इस शानदार शायर को संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप का शायर माना जाता है। फैज़ अहमद फैज़ की शायरी मंत्रमुग्ध करने वाली शायरी मानी जाती है। इसका अहम् कारण रहा कि फै़ज़ ने साहित्य और समाज की खातिर जीवनपर्यन्त कठोर तपस्या अंजाम दी। जिंदगी भर समाज के गरीब मजलूमों के लिए समर्पित रहने वाले फै़ज़ ने बेवजह शेर कहने की कोशिश कदाचित नहीं की। उनके कविता संग्रह नक्श ए फरयादी पढते हुए गालिब की एक उक्ति बरबस याद आ जाती है कि जब से मेरे सीने का नासूर बंद हो गया, तब से मैने शेर ओ शायरी करना छोड़ दिया। सीने का नासूर फिर चाहे मुहब्बत अथवा प्रेम भाव के रूप में विद्यमान रहे और चाहे वतन एवं मानवता के प्रेम के तौर पर कायम रहे। यह महान् भाव कविता के लिए ही नहीं वरन सभी ललित कलाओं के लिए एक अनिवार्य तत्व रहा है। अध्ययन और अभ्यास के बलबूते पर बात कहने का सलीका तो आ सकता है, किंतु उसे दमदार और महत्वपूर्ण बनाने के लिए कलाकार को अपने ही अंतस्थल में बहुत गहरे उतरना पड़ता है।
मौहम्मद इक़बाल ने फरमाया अपने अंदर डूब कर पा जा सुराग ए जिंदगी तू अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन
फै़ज़ अहमद फै़ज़ आधुनिक काल के उन बडे़ शायरों में शुमार रहे हैं, जिन्होने काव्य कला के नए अनोखे प्रयोग अंजाम दिए, किंतु उनकी बुनियाद सदैव ही पुरातन क्लासिक मान्याताओं पर रखी। इस मूल तथ्य को कदापि नहीं विस्मृत नहीं किया कि प्रत्येक नई चीज का जन्म पुरानी कोख से ही होता आया है।जनोक्ति में प्रकाशित प्रभात कुमार रॉय की इस पूरी पोस्ट को आप पढ़ सकते हैं केवल यहां क्लिक करके.
अगर आपके पास भी कुछ ऐसी ही सामग्री हो तो उसे अवश्य भेजें. हम उसे आपके नाम के साथ प्रकाशित करेंगे..रेक्टर कथूरिया.
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बन्धु , नमस्कार ! जनोक्ति.कॉम को आपका सहयोग निरंतर मिलता रहा है | आज इस लेख में जनोक्ति.कॉम की बेहद सुन्दर चर्चा की गयी है | अपना स्नेह बनाये रखें ताकि हमें आगे बढ़ते रहने का साहस मिलता रहे | जय हिंद !
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