Saturday, October 02, 2010

आपके गाँव में इसे फैसला कहते होंगे

बाबरी मस्जिद की ज़मीन का फैसला आ गया है . इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने अपना आदेश सुना दिया है .फैसले से एक बात साफ़ है कि जिन लोगों ने एक ऐतिहासिक मस्जिद को साज़िश करके ज़मींदोज़ किया था, उनको इनाम दे दिया गया है.
जो टाइटिल का मुख्य मुक़दमा था उसके बाहर के भी बहुत सारे मसलों को मुक़दमे के दायरे में लेकर फैसला सुना दिया गया है. ऐसा लगता है कि ज़मीन का विवाद अदालत में ले जाने वाले हाशिम अंसारी संतुष्ट हैं. हाशिम अंसारी ने पिछले २० वर्षों में अपने इसी मुक़दमे की बुनियाद पर बहुत सारे झगड़े होते देखे हैं. शायद इसीलिये उनको लगता है कि चलो बहुत हुआ अब और झगड़े नहीं होने चाहिए. लेकिन यह फैसला अगर न्याय की कसौटी पर कसा जाए  तो कानून के बहुत सारे जानकारों की समझ में नहीं आ रहा है कि हुआ क्या है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ए एम अहमदी पूछते हैं कि अगर टाइटिल सुन्नी वक्फ बोर्ड की नहीं है तो उन्हें एक तिहाई ज़मीन क्यों दी गयी और अगर टाइटिल उनकी है तो उनकी दो तिहाई ज़मीन किसी और को क्यों दे दी गयी? उनको लगता है कि यह फैसला कानून और इविडेंस एक्ट से ज़्यादा भावनाओं और आस्था को ध्यान में रख कर दिया गया है. इसलिए यह फैसला किसी हाईकोर्ट का कम किसी पंचायत का ज्यादा लगता है. अगर कोर्ट भी भावनाओं को ध्यान में रख कर फैसले करने लगे तो संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप का क्या होगा. हाईकोर्ट का फैसला सब की भावनाओं को ध्यान में रख कर किया गया फैसला लगता है. विस्फोट में प्रकाशित जानेमाने पत्रकार शेष नारायण सिंह के इस विशेष लेख को पढ़ने के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. जहां आपको इसी  विषय पर बहुत सी और रचनायें भी मिलेंगी. यदि आप नही इस मुद्दे पर कुछ कहना चाहते हैं तो अवश्य भेजिए.

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