यह इन्हीं दिनों की बात है पर अभी तक मुझे यकीन नहीं हो पा रहा. लगता है कोई सपना देख लिया. भला आज के युग में इतने सच कोई इतनी बेबाकी से कैसे बोल सकता है ? किसको है देश की फ़िक्र ? कौन करता है मुद्दों की बात ? कौन छोड़ता है अपना सुख ? कौन करता होगा जनता की बात ? पर यह सभी कुछ है आजके इस कलियुग में है. आज के इस कारोबारी युग में है. मैं पहली बार तो पूरा पढ़ ही नहीं पाया. गला भरा, आँखें भरी..जी चाहा कहीं जा कर छुप छुपा कर रो लूं तो शायद मन हल्का हो जाए. तीन चार बार में तोड़ तोड़ कर पढ़ा तो सारी रात सो नहीं पाया. दिल दिमाग को हिला देने वाला यह आलेख. प्रस्तुत हैं उस सम्पादकीय लेख के कुछ अंश.--रेक्टर कथूरिया
हरिवंश | 7/18/2010 2:59:25 AM
खबर को पढ़ने के बाद से ही बार-बार यह सवाल बेचैन कर रहा है कि 42 वर्षीय कैक्सी ताइवान में सुख का जीवन जी रहे हैं. इनवेस्टमेंट बैंकर हैं. फ़िर भी वह चीन जाने को क्यों बेचैन हैं? क्यों मौत आमंत्रित करने की बेचैनी है, उनमें? चीन, जहां उन्हें बचा जीवन जेल के शिकंजों में ही गुजारना होगा या मृत्युदंड की सजा होगी.
22 वर्षो से कैसे वह आग एक इंसान में धधकती रह सकती है? यह जानना, इंसान के उत्कर्ष को समझने जैसा है. वह भी इस भोग के युग में? किस तरह वह सुख का जीवन छोड़ अपने मार्गदर्शक और मित्र ली के साथ जेल काटना चाहते हैं? कैक्सी कहते हैं कि इस तरह का जीवन जीना ही मेरे लिए बड़ा सम्मान है.‘इट विल बी ए ग्रेट ऑनर फ़ॉर मी’. एक तरफ़ चीन में आज भी ऐसे नेता हैं, अपने विचारों के लिए मर मिटनेवाले? पर क्या रीढ़ है, भारत के नेताओं की? पद और कुरसी के लिए हर क्षण अपनी आत्मा गिरवी रखने को तैयार हैं. कर्म,जीवन और कनविक्शन में भारतीय नेताओं का कोई तालमेल ही नहीं.
1975-1980 तक भारत में तपे-तपाये नेताओं की पीढ़ी बची थी. जब इमरजेंसी लगी, तो अनेक लोगों ने माफ़ी मांग ली. फ़िर भी रीढ़वाले लोग थे. आज की राजनीति में अगर भारत में यह अग्नि परीक्षा हो जाये, तो कैक्सी के चरित्र के कितने लोग मिलेंगे? आज मामूली प्रतिबद्धता या वैचारिक आग्रह भी हमारे नेताओं में नहीं है. जीतते किसी दल से हैं, समर्थन किसी सरकार को देते हैं. सरकार बनाने में कहीं फ़ुदक कर चले जाते हैं. याद करिए लालू जी के जमाने में भाजपा से लेकर माले तक के विधायक अपनी मूल नाभि (दल) विचार से टूट कर सत्ता पक्ष में जा मिले.
हम रीढ़हीन कौम हैं. पैसे और पद के लिए विचार, संकल्प और अंतरात्मा गिरवी रखनेवाले. हम जयचंद, मीरजाफ़र,जगत सेठ की परंपरा, विचार और प्रभाव में पले-बढ़े लोग हैं. हमारे रक्त में खोट और दोष है.1857 से 1947 के बीच भारतीयों की एक रीढ़वाली कौम पैदा हुई. बहादुरशाह जफ़र, झांसी की रानी, कुंवर सिंह से चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह और सुभाष की आवाज. आत्मबलवाले गांधीवादियों की साहसिक परंपरा. पर अब वह सब कुछ अतीत बन रहा है.
विरोध की राजनीति करना, सम्मान की बात नहीं रही. आत्मा की सौदेबाजी कर या गिरवी रख सत्ता पाना उपलब्धि है. दलाल बनना गौरव की बात है. शॉर्टकट सफ़लता आज फ़ैशन में है.क्यों हैं हम ऐसे?
मुझको ऐसा लगता है कि अपने देश में क्रांति, असंभव शब्द मैं इस्तेमाल नहीं करूंगा, प्राय: असंभव हो गयी है. लोग आधे-मुर्दा हैं, भूखे और रोगी हैं, लेकिन संतुष्ट भी हैं. संसार के और देशों में गरीबी के साथ-साथ असंतोष है और दिल में जलन. यहां थोड़ी-बहुत जलन इधर-उधर हो तो हो, लेकिन कोई खास मात्रा में जलन या असंतोष नहीं है.०हिंदुस्तान में सचमुच दिलजला आदमी पाना मुश्किल है, जैसा कि यूरोप में होता है. यूरोप में तो आदमी अकड़ जाता है. अंदरूनी जुल्म के खिलाफ़ उस तरह का अकड़ा हुआ आदमी यहां पाना मुश्किल है. मैं इस बात को फ़िर दोहरा देना चाहता हूं कि बाहरी जुल्म के खिलाफ़ तो हमारे यहां भी उखड़े हुए आदमी रहे हैं, लेकिन अंदरूनी जुल्म के खिलाफ़ नहीं.
सच कहने को कोई तैयार नहीं.अब इस प्रकरण में एक नयी जानकारी आयी है, द संडे गार्जियन (20 जून, 2010) में. इस जानकारी के अनुसार एंडरसन की रिहाई के बाद मोहम्मद युनूस के बेटे की गंभीर सजा को अमेरिका ने माफ़ किया. मोहम्मद युनूस नेहरू परिवार के निकट मित्र और विश्वस्त सहयोगी रहे हैं. उनके पुत्र ओदल सहरयार को अमेरिका ने एक अपराध के मामले में 35 वर्ष की सख्त सजा सुनायी थी. इसके ठीक छह महीने पहले 7दिसंबर 1984 को भारत ने यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वारेन एंडरसन द संडे गार्जियन की रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि सहरयार की रिहाई, एंडरसन को सुरक्षित अमेरिका पहुंचाने के बाद हुई. साफ़ है, दोनों घटनाओं के बीच कोई रिश्ता है.यह खेल है सत्ता का. पर भारत में कोई सच बोलने का साहस नहीं कर रहा. दूसरी तरफ़ हाल में मैक्िसको की खाड़ी में तेल का रिसाव हुआ. अमेरिका के समुद्री तट से 65 किलोमीटर दूर. इसमें कुल 11 लोग मारे गये. इस मामले को खुद राष्ट्रपति ओबामा देख रहे हैं. दुनिया की सबसे बड़ी तेल कंपनी बीपी भारी मुसीबत में है. खुद ओबामा कंपनी के खिलाफ़ बयान दे चुके हैं.को भारत से निकालने में मदद की.
एक बार एक ही आदमी को सूली लगायी गयी थी, उस एक का परिणाम गुलामों का नजात साबित हुआ. एक ही आदमी को गोली मार दी गयी थी, उस एक का नतीजा हुआ नफ़रत की जलती हुई मशालें बुझ गयीं. सिर्फ़ 72 आदमियों ने नमक आंदोलन शुरू किया था, और उसके अंत में करोड़ों बिजलियां कौंधने लगी थीं. एक ही बच्चे को सामंत की गाड़ी ने कुचला था और उसके फ़लस्वरुप फ्रांस की गलियों में आजादी को बराबरी की पुकार लहू से भीग कर चिल्लाई थी. एक मंगल पांडेय के शरीर को गोलियों ने छेदा था और उसके नतीजे में लाखों गरज फ़ूट कर निकली थी, दिल्ली चलो- दिल्ली चलो. और एक ही हब्शी को जिंदा जलाया गया था, जब अब्राहम लिंकन ने कहा था कि गुलामी को नेस्तनाबूद कर दो. बगावत एक ही लफ्ज है. उसकी बुनियाद में इंसान है, उसका फ़ैलाव इंकलाब है. उसका नतीजा तख्तों और जुल्मों को पलटनेवाली आजादी है.
मैं एक अघोषित पागल हूं. कड़ियों, ईटों की छत-दीवारें दरकीं, बिना पलस्तर की,टूटे-उखड़े हैं फ़र्श और हैं फ़टी चादरें बिस्तर की,घर की न मरम्मत करा सका, दो बार विधायक रहकर भी, मैं एक खंडहरवासी हूं, खुश हूं इस बदहाली में भी,लाखों जनसाधारण बेघर उनकी पीड़ा से घायल हूं. मैं एक अघोषित पागल हूं. 111 करोड़ के इस मुल्क को आज ऐसे पागल चाहिए! अगर कहीं है, तो उनका विवरण और पता जरूर भेजें. (प्रभात खबर से साभार)
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एक नज़र :गबरू जवान हुआ एक किशोर
नदीम अख्तर
नदीम अख्तर
1 comment:
bahut umda baat ki aapne
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
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