दुनिया को मेरा जुर्म बता क्यूँ नहीं देते ?
मुजरिम हूँ तो फिर मुझको सजा क्यूं नहीं देते ?
बतला नहीं सकते अगर दुनिया को मेरा जुर्म !
इल्जाम नया मुझ पे लगा क्यूं नहीं देते ?
मुश्किल मेरी आसान क्यूं बना क्यूं नहीं देते !
थोड़ी सी ज़हर मुझको पिला क्यूं नहीं देते ?
यूं तो बहुत कुछ आप ने इजाद किया है !
इन्सान को इन्सान बना क्यूं नहीं देते..?
दिल में जनूं की आग जला क्यूं नहीं लेते !
इन शोअलों को कुछ और हवा क्यूं नहीं देते ?
(10, 11 और 12 अप्रैल 1991 को)
2 comments:
वाह!! बहुत बढ़िया.
बहुत अच्चा कलाम...लिखते रहें...
नीरज
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