भारतीय प्रेस परिषद जिसे अधिकतर लोग प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया के नाम से जानते हैं का सम्मान देश में भी है और विदेश में भी. यह माननीय संस्थान किसी भी अखबार, पत्र-पत्रिका या टीवी चैनेल के पत्रकारों, प्रबंधकों यहां तक की मालिकों से भी पूछ सकता है कि उन्होंने प्रेस के लिए बनी अचार सहिंता का उल्लंघन क्यूं किया ? किसी भी सरकारी अधिकारी और आम नागरिक की शिकायत पर भी इस संस्थान में सबंधित अख़बार या फिर टीवी चैनेल के मामले में सुनवाई होती है. इसी तरह अगर किसी पत्रकार, सम्पादक, या फिर किसी मीडिया संस्थान के मालिक को कोई बड़े से बड़ा सरकारी अधिकारी भी तंग करे तो वह भारतीय प्रेस परिषद के पास जाकर अपनी शिकायत दर्ज करवा सकता है. प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया उस की व्यथा भी सुनती है. देश के सभी अख़बार और चैनेल इस संस्थान का आदेश बहुत ही विनम्रता से मानते हैं.यह एक ऐसा संस्थान है जो भारतीय प्रेस की रक्षा और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा...दोनों को सुनिश्चित करने के लिए लम्बे समय से अपना दायित्व निभाता चला आ रहा है. यह परिषद प्रेस से या फिर प्रेस के खिलाफ प्राप्त शिकायतों का निपटारा करते वक्त चेतावनी दे सकती है, निंदा कर सकती है और सबंधित पत्रकार के आचरण को गलत भी ठहरा सकती है. इस महान संस्थान के गौरव और सम्मान का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस के निर्णय को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती. इसका कार्यभार चलाने के लिए सरकार काफी वित्तीय सहायता पर्दान करती है पर फिर भी सरकार का इस पर कोई नियंत्रण नहीं होता. भारतीय प्रेस परिषद को पूरी पूरी स्वतंत्रता भी दी गयी है. इस के सम्मान और अधिकारों की चर्चा समय समय पर पहले भी हो चुकी है. गौरतलब है कि इसकी स्थापना 1966 में भारतीय संसद की ओर से की गयी थी हालांकि इसकी आवश्यकता को बहुत पहले ही अनुभव कर लिया गया था.इस संस्थान के गौरव ओर निशानों कि चर्चा करते हुए एक मज़बूत आवाज़ पहले भी बुलंद हुई थी- मीडिया को भटकने से रोकना होगा-- इस आशय की बात करते हुए कुछ ही समय पूर्व ही तहलका ने भी कहा था--करवाई तो करनी पड़ेगी. पर कुल मिलाकार हालत बिगड़ती चली गयी. शायद इसी का परिणाम है कि आखिर मीडिया पर खबरों से खिलवाड़ करने का आरोप लगने के बाद मीडिया आयोग बनाने की बात को अस्तित्व में लाने कि तैयारियन तकरीबन तकरीबन पूरी हो चुकी हैं.
लेकिन वास्तव में मामला अब बहुत ही गंभीर हो चुका है. जिस संस्थान के सामने सरकार भी नतमस्तक है ओर मीडिया भी अब उसे चुनौती मिल रही है. वह भी उन लोगों से जो खुद को पत्रकार भी कहते हैं. इस तरह के लोगों को सहयोग ओर सहायता दे रहे हैं वे लोग जो सरकार के प्रतिनिध भी हैं. अपने आपको पत्रकार कहने वालों ने इस सम्मानीय संस्थान को ठेंगा दिखाते हुए एक तरह से इसका मजाक उड़ाना शुरू कर दिया है. प्रेस कौंसिल के नाम का दुरपयोग एक आम बात होती जा रही है. इसे रोकने के लिए कदम उठाने की बजाये सरकार के प्रतिनिध खुद इस तरह के कार्यक्रमों में शामिल हो कर बाकायदा अनुदान भी दे रहे हैं. कभी इस तरह के आरोप भोपाल ओर दूसरे स्थानों पर आधारित सभा सोसाईटियों पर लगते थे पर अब इस तरह की उंगलियां लुधियाना की तरफ भी उठ रही हैं. स्थानीय पार्षद और राज्य स्तर के मंत्री इन कार्यक्रमों में शामिल हो रहे हैं. इसकी ताज़ा मिसाल मिली एक कार्यक्रम में.प्रस्तुत है एक प्रमुख समाचारपत्र में प्रकाशित हुई सचित्र रिपोर्ट. --रैक्टर कथूरिया














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