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दिलों की बदसलूकी से ज़ेहन बीमार होता है.
कोई बढ़ते हुए दरिया के कानों में कहे जाकर,
बहुत मुश्किल से मिटटी का मकां तैयार होता है.
उसी को वक्त देता है सजाएं काले पानी की,
जो गुलशन में बहारों का असल हक़दार होता है.
इसी तरह उसी अंक में एक ग़ज़ल नवीन कमल की भी थी देखिये वह भी कमाल की बात कह गए:-
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बागबां ही खुद हमें सहरा के अंदर ले गया.
सिर्फ नेकी और बदी से आदमी का ज़िक्र है,
वर्ना इतनी सल्तनत से क्या सिकंदर ले गया.
जब किसी की एकता में कुछ कमी आयी "कमल",
बिल्लीयां लड़ती रहीं, रोटी को बंदर ले गया.
और अंत में पुष्प कुमार सिंह "कुमार" की कलम का जादू भी देखिये...
आप इतने हो गए मगरूर ये अच्छा नहीं.
कर दिया है दिल का शीशा चूर ये अच्छा नहीं.
साथ चल कर अब सनम पीछे कदम क्यूं रख लिया,
हो गए किस बात से मजबूर ये अच्छा नहीं.
हालांकि बहुत कुछ और भी है जिसकी चर्च फिर कभी अवश्य की जाएगी पर फ़िलहाल आप केवल इतना बताने की कृपा करें कि रद्दी और कबाड़ के कमरे में से कुछ काम का निकला या नहीं? जवाब दें तो आपकी मेहरबानी होगी.....!
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