Tuesday 14th May 2024 at 8:10 PM
शहीद की जन्मस्थली आज भी उचित पहचान से वंचित है
अमर शहीद सुखदेव थापर को याद करते हुए एक विशेष पाठ
विश्व प्रसिद्ध लाहौर षडयंत्र केस :“क्राउन बनाम सुखदेव एवं अन्य”, इस केस में पुराने लुधियाना शहर के नौघरा मुहल्ला में 15 मई, 1907 को जन्मे सुखदेव थापर को मुख्य षडयंत्रकारी तथा आरोपी बनाया गया था। आप और भगत सिंघ व राजगुरू तथा 22 अन्यों को भी, जो लगभग एक समान आयुवर्ग के थे इस केस में आरोपित किए गए थे। इसी के साथ उनके समान आयु के बहुत से अन्य युवा साथियों को भी अभियुक्त बनाया गया था। 1920 के दशक में हुई घटनाओं व इस केस के आरम्भ होते ही राष्ट्र के स्वतंत्रता संघर्ष ने भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की चूलें हिला दीं थीं। अंतत: इस “क्रांतिकारी त्रिमूर्ति” को फांसी के माध्यम से मृत्युदण्ड की सज़ा दी गई और 23 मार्च 1931 को फांसी पर चढ़ा दिया गया। यही नहीं, इस केस में बहुत से अन्य लोगों को आजीवन कारावास की सज़ाएं हुईं जबकि कई लोगों को दूर दूर भेजा गया, जलावतन किया गया।
जब हम शहीद सुखदेव की जीवन यात्रा पर नज़र दौड़ाते हैं तो दिखाई देता है कि जब वह मात्र 03 वर्ष की आयु के ही थे कि उनके पिता श्री राम लाल थापर का देहांत हो गया था। श्री राम लाल थापर एक बहुत ही छोटे कारोबारी थे। इस प्रकार अबोध बालक सुखदेव का लालन पालन उनके ताया श्री अचिंतराम थापर जी जी की देख रेख में हुआ जो उन दिनों लायलपुर (अब पाकिस्तान, पंजाब) में रहते थे। लायलपुर में श्री अचिंतराम एक प्रमुख समाजसेवी थे तथा स्वतंत्रता लहर के प्रबल समर्थक थे तथा 1919 में और उसके बाद 1921 में हुई उनकी गिरफ्तारी ने युवा सुखदेव के मन पर भारी रोषपूर्ण प्रभाव डाला और उन्होंने इस के विरुद्ध संघर्ष करने को प्रतिबद्ध होने की ठानी। शहीद भगत सिंघ और सुखदेव के परिवारों की आपस में गहरी जान पहचान थी। इस प्रकार, इस युवा जोड़ी ने अपनी स्कूली शिक्षा पूर्ण कर आगे की शिक्षा के लिए नैशनल कालेज, लाहौर में दाखिला ले लिया। उन दिनों यही वह कालेज था जिसकी स्थापना सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, योद्धा लाला लाजपत राय द्वारा की गई थी और इसी कालेज में युवाओं को समाज सेवा के भाव कूट कूट कर भरे जाते थे, मानो समाज सेवा का गहन प्रशिक्षण दिया जाता था।
इसी कालेज में युवा प्रतिभाओं को खुले में बौद्धिक चर्चाओं में भाग लेने, विभिन्न विषयों पर अपने अध्यापकों से खुलकर प्रश्न पूछने, विश्व के क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता संघर्ष में भारत के क्रांतिकारियों के क्रिया कलापों, विचारों पर चर्चा करने की छूट थी। इस प्रकार इस कालेज के जिन अध्यापकों ने इस युवा जोड़ी को सर्वाधिक प्रभावित किया, वे थे राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक श्री जयचंद्र विद्यालंकार। यही नहीं, वे अध्ययन के लिए लाला लाजपत राय जी द्वारा स्थापित द्वारिकानाथ पुस्तकालय में भी नियमित तौर पर जाया करते थे।
इस पुस्तकालय में उन दिनों में बड़ी संख्या में राजनीति शास्त्र के साहित्य और समसामयिक मामलों पर पुस्तकें और ज्ञानवर्धक पत्रिकाएं भी उपलब्ध होतीं थीं, जिन्होंने भगत सिंघ और सुखदेव को बहुत आकर्षित किया। भगत सिंघ और सुखदेव इस पुस्तकालय से उधार लेकर उन्हें पढ़ते अपने किराये के कमरे में पुस्तकों, पत्रिकाओं के विषयों पर घण्टों विस्तृत चार्चाएं करते। उन दिनों लाहौर अविभाजित भारत के पंजाब राज्य में शिक्षा का एक बड़ा केंद्र था तथा यहां के कालेज युवा प्रतिभाओं के स्वाभाविक आकर्षण का केंद्र थे। इस प्रकार, उन दिनों स्वतंत्रता संघर्ष की लहर प्रत्येक युवा भारतीय को प्रभावित करती थी।
इसी क्रम में इन युवा छात्रों ने मार्च 1926 में लाहौर में “नौजवान भारत सभा” के नाम से एक छात्र संगठन का गठन किया। यह संगठन पूर्णत: समाजवादी और प्रकृति से किसी भी धार्मिक भेद-भाव से रहित था। इस संगठन में, जो अपनी प्रकृति में पूर्णत: समाजवादी और किसी भी दृष्टि से अधार्मिक था, में भगत सिंघ और सुखदेव ने पंजाब के युवाओं को अपने साथ काम करने के लिए तैयार करने के उद्देश्य से भागीरथ प्रयास किए। इन युवाओं के अभिभावक पहले से ही राम प्रसाद बिस्मिल द्वारा 1924 में बंगाल में गठित हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन से जुड़ चुके थे।
लाहौर स्थित युवा क्रांतिकारियों ने उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, और पंजाब के सम विचारक युवाओं से विशेष मेल- जोल, सम्पर्क आरम्भ किया। 08-09 सितम्बर 1928 को फिरोज़शाह कोटला, दिल्ली में उन्होंने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक ऐसोसिएशन (एच.एस.आर.ए.) के गठन की घोषणा की। इस प्रकार, हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के नाम में सोश्लिस्ट शब्द जोड़ा गया। भगत सिंघ और सुखदेव, दोनों साम्प्रदायिकता से घृणा करते थे और केवल एक न्यायिक सोसायटी बनाना चाहते थे। इस प्रकार चंद्रशेखर आज़ाद को एच.आर.एस.ए. का कमांडर बनाया गया। इस संगठन की संरचना की मुख्य प्रकृति ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह करना था। सुखदेव की संगठनात्मक प्रतिभा को ध्यान में रखते हुए और संगठन के प्रमुख कार्यकर्ताओं में से एक होने के नाते, उन्हें पंजाब मामलों का प्रभारी बनाया गया। .... और यही वह समय था जब इस संगठन ने सायमन कमीशन का विरोध करने का निर्णय लिया तथा सहारनपुर, आगरा और लाहौर में बम बनाने भी शुरू किए।
ब्रिटिश सरकार ने “भारत सरकार कानून 1919” के अंतर्गत चल रही भारत सरकार की कारगुज़ारियों का अध्ययन करने हेतु सायमन कमीशन नाम से एक आयोग भारत भेजा, लेकिन इसमें किसी भारतीय को शामिल नहीं किया गया था। लाहौर में रहने वाले राजनैतिक समूहों और क्रांतिकारियों ने संयुक्त तौर पर इस कमीशन के लाहौर आगमन पर रेलवे स्टेशन पर इसका विरोध करने का निश्चय किया। 30 अक्तूबर 1928 को सुखदेव के नेतृत्व में नौजवान भारत सभा के कार्यकर्ता तथा दूसरे लोग भी लाला लाजपत राय के साथ आए सैकड़ों लोगों में शामिल हो गए। इन कार्यकर्ताओं ने लाला जी को एक सुरक्षात्मक घेरा उपलब्ध करवाया था। प्रदर्शन शुरु होते ही लाहौर के पुलिस अधीक्षक जेम्ज़ ए. स्काट ने लाठीचार्ज करने का आदेश दिया। स्काट द्वारा लाला जी को देखते ही पुलिस द्वारा उन्हें बड़ी बेरहमी से पीटना आरम्भ किया जिससे उनकी छाती पर गम्भीर चोटें आईं और परिणामत: खून बहना आरम्भ हुआ। इसके बाद लाहौर के मोरी गेट पर एक सभा हुई जिसमें अपनी चोटों की परवाह न करते हुए लाला जी ने भाषण देते हुए कहा कि... “मैं घोषणा करता हूं कि मेरी छाती पर लगी एक एक चोट भारत में अंग्रेज़ी शासन के कफ़न में कील साबित होगी।“ इस पर वहां उपस्थित पुलिस उपाधीक्षक नील ने ठहाका लगाया, जिससे सुखदेव को बड़ी पीड़ा हुई क्योंकि वह भी उस स्थान पर उपस्थित था। पुलिस की लाठियों की मार सहन न करते हुए कुछ दिनों के बाद स्वर्ग सिधार गए। इस पर एच.एस. आर.ए. ने इस अपमान और लालाजी की मृत्यु का बदला लेने के लिए, इस लाठी चार्ज के लिए उत्तरदायी पुलिस अधिकारी जेम्ज़ ए. स्काट से बदला लेने का निश्चय किया गया।
इसके बाद सुखदेव और दूसरे क्रांतिकारियों ने कुछ दिनों तक लाहौर में जेम्ज़ ए. स्काट की उसके कार्यालय की गतिविधियों पर नज़र रखनी आरम्भ की। अंत में सुखदेव द्वारा बनाई गई योजना के अनुसार उसके विश्वसनीय कामरेड साथियों, भगत सिंघ, राजगुरू, चंद्रशेखर और जयगोपाल को बदला लेने का यह कार्य सौंपा गया। योजना के अनुसार दिनांक 17 दिसम्बर 1928 को जेम्ज़ ए. स्काट को कत्ल करने की योजना बनाई गई। क्रांतिकारी निश्चित किए गए स्थान पर समय पर पहुंच गए। लेकिन भुलावे में उन्होंने एक अन्य पुलिस अधिकारी, ए.एस.पी. जे.पी.सांडर्स का, जो स्काट से 21 वर्ष छोटा था, जब वो सायंकाल पर अपने कार्यालय से बाहर आ रहा था तो गलतफहमी में उसका वध कर दिया। वास्तव में जे.पी. स्काट उस दिन कसूर प्रांत में था। इस गोलीकांड में क्रांतिकारियों ने सांडर्स के साथ ड्यूटी कर रहे एक हैड कांस्टेबल चन्नण सिंघ को भी गोली मार दी गई। इन युवा क्रांतिकारियों ने रात के समय लाहौर शहर की दीवारों पर हस्तलिखित पोस्टर भी चिपकाए गए जिन पर लिखा था... , “लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला ले लिया गया।“ दूसरे दिन सायंकाल को यह सभी क्रांतिकारी अपनी अपनी पहचान बदल कर रात्रि गाड़ी से कलकत्ता जाने वाली रेलगाड़ी से निकल गए। कलकत्ता में सुखदेव ने बम बनाने की तकनीक सीखी। कुछ समय बाद ये क्रांतिकारी फिर से आगरा, सहारनपुर और दिल्ली में इकट्ठा होना शुरू हुए।
वर्ष 1929 में भारत में ब्रिटिश सरकार ने दो बिलों –द ट्रेड डिस्पियूटस बिल और पब्लिक सेफटी बिल, पारित करवाने के लिए दिल्ली असेम्बली में प्रस्तुत किए। इन बिलों को प्रस्तुत करने का एकमात्र उद्देश्य क्रांतिकारियों की गतिविधियों पर अंकुश लगाना तथा जो लोग सरकार के विरुद्ध आंदोलन की तैयारी में थे, उनको रोकना था। सभी राष्ट्रवादियों ने इन बिलों का भरपूर विरोध किया। एच. एस. आर.ए. में युवा सदस्यों ने 08 अप्रैल,1929 को असेंबली के चेम्बर में 2 बम फोड़कर और अपनी आवाज़ में ऊंचे नारे लगाकर इन बिलों का अपना सांकेतिक विरोध प्रकट करने का निर्णय लिया। यह कार्य भगत सिंघ और बटुकेश्वर दत्त को सौंपा गया। यहां यह बताया जाना भी समीचीन है कि एच. एस.आर. ए. के अन्य सदस्यों ने भगत सिंघ को यह कार्य सौंपने का यह कह्ते हुए विरोध किया कि सभी जनते हैं कि भगत सिंघ पहले से ही लाहौर में सांडर्स हत्याकाण्ड में संलिप्त हैं इसलिए उनकी पहचान खुल जाएगी। इस पर सुखदेव ने गुस्सा खाते हुए इस काम के लिए भगत सिंघ को ही भेजने का अपना निर्णय दे दिया क्योंकि वह जानते थे और उन्हें विश्वास भी था कि भगत सिंघ असेम्बली में बम फेंकने के इस काम को भली-भांति कर सकेंगे। बम और पेम्फ्लेट फेंकने के बाद उन्हें “इंक्लाब ज़िंदाबाद” के ऊंचे नारे लगाने थे। इस पर वो दोनों गिरफ्तार कर लिए गए क्योंकि बम फेंकने के बाद उन्होंने भाग कर बचने की कोशिश नहीं की। इस पर सुखदेव कुछ दिन तक भगत सिंघ की रक्षा में सोचते रहने के कारण अपसेट रहे क्योंकि एकमात्र भगत सिंघ ही तो वह व्यक्ति थे जिनसे वह जितना वाद-विवाद करते थे और प्यार भी उतना ही करते थे। बाद में सुखदेव थापर को भी पण्डित किशोरी लाल तथा जय गोपाल के साथ उनके छिपने के स्थान से गिरफ्तार कर लिया गया।
अब पुलिस को यह विश्वास हो गया था कि लाहौर से चलने वाली इन सभी क्रांतिकारी योजनाओं व गतिविधियों के पीछे दिमाग मूलत: सुखदेव थापर का ही था। अत: इस मामले में अप्रैल 1929 में हैमिलटन हार्डिंग़, एस.एस.पी. द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफ.आई.आर) स्पैशल जज आर.एस. पण्डित की अदालत में दर्ज करवाई गई जिसमें यह बताया गया कि इस सम्पूर्ण घटनाक्रम की पृष्ठभूमि में मुख्यत: सुखदेव का ही दिमाग काम कर रहा था, इसलिए एफ.आई.आर. में उन्हें ही एक नम्बर पर आरोपित किया गया। इस मामले को लाहौर षडयंत्र केस, 1929 के तौर पर जाना गया तथा आधिकारिक तौर पर इसे “ब्रिटिश ताज बनाम् सुखदेव तथा अन्य” का नाम दिया गया। इस केस में उनका उपनाम स्वामी,पेंडू पुत्र राम लाल, थापर खत्री जाति बताया गया। सभी गिरफ़्तार क्रांतिकारियों, भगत सिंघ और बटुकेश्वर दत्त को लाहौर केंद्रीय कारावास में लाया गया क्योंकि पुलिस को पक्का विश्वास था कि उनकी गतिविधियों का यह षडयंत्र मूलत: लाहौर में ही रचा गया। इसी जेल में क्रांतिकारियों ने कुछ दिनों तक भूख हड़ताल भी की थी और उन्हें जबरदस्ती ढंग से खाना खिलाया गया। जेल में उनकी पिटायी तक भी की गई थी। लेकिन वे लोग ज़ोर देकर कहते रहे कि उनके साथ भी युद्धबंदियों जैसा व्य्वहार किया जाए क्योंकि वे भी अपने देश को ब्रिटिश साम्राज्यवाद से स्वतंत्र करवाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने अपने इस रोष को, गुस्से को अदालतों में जजों के सामने निकाला, प्रकट किया और आगे से उन अदालतों के सामने पेश होने से इंकार कर दिया।
भले ही इस मामले में विशेष जज की अदालत में मुकद्दमा 11 जुलाई 1929 को ही शुरू हो चुका था, इस पर भी सुनवाई की बहुत सी तारीखें निकल जाने के बाद भी अदालती कार्यवाहियां पूरी न हो सकीं। तब वायसराय इरविन ने भारत सरकार अधिनियम 1915 की धारा 72 के अंतर्गत प्रदत्त अपनी विशेष शक्तियों का प्रयोग करते हुए 01 मई 1930 को लाहौर षडयंत्र केस अध्यादेश 91 बहुत तत्परता से जारी कर दिया ताकि इसकी सुनवाई 03 जजों के विशेष ट्रिब्यूनल के सामने आरम्भ हो सके। इस प्रकार न्यायाधीशों द्वारा दिए गए निर्णय को किसी अन्य अदालत में चुनौती न दी जा सके और केवल और केवल लण्डन में ही स्थित प्रिवी कौंसिल में ही इसके बारे में किसी अपील को सुना जा सके। उन्होंने इस अध्यादेश को जारी करने में एक तर्क यह दिया गया कि आरोपित लोग इस केस में सहयोग नहीं कर रहे हैं, भूख हड़ताल कर रहे हैं तथा अदालतों में व्यवस्था को भी भंग कर रहे हैं जिससे केस बार बार स्थगित होता है, परिणामत: निर्णय में देरी हो रही है।
इस अध्यादेश को न तो केंद्रीय विधान सभा द्वारा और न ही उस समय की राज्य सभा (कौंसिल आफ़ स्टेटस) द्वारा अनुमोदित किया गया। ट्रिब्यूनल 06 मास के भीतर अपना निर्णय देने को बाध्य था और इसी के अनुरूप उसने प्रतिवादी क्रांतिकारियों को स्वयं अपना पक्ष रखने, बचाव करने अथवा अपने परिवारों के माध्यम से, वकीलों, अपने समर्थकों के माध्यम से भारत में अथवा लण्डन में बचाव का समुचित, कोई अवसर ही प्रदान किया। स्पष्ट है कि अध्यादेश का मूल मंतव इन क्रांतिकारियों को तत्परता से मृत्युदण्ड की सज़ा सुनाना था और अंतत: दुर्भाग्यवश यह कार्य भी 07 अकतूबर 1930 को ही पूरा हो गया। इस प्रकार, ब्रिटिश सरकार इस प्रकार के न्यायिक कत्ल का अंत तत्परता से करने में सफ़ल हो गई..... ऐसा बहुत से न्यायविदों ने कहा है। इस केस में पहले की कार्यवाहियों के अनुसार इस ट्रिब्यूनल ने भी सुखदेव को ही भगत सिंघ के साथ षडयंत्र रचने, कुशल योजनाकार होकर, उसे अपना मुख्य दायां हाथ बनाकर, षडयंत्र में राजगुरू को मुख्य निशानेबाज़ बनाकर अपनी योजनाओं का अंजाम देने वाला बताया जिससे सांडर्स का कत्ल हुआ।
पहले शहीदों को 24 मार्च 1931 को फांसी देने की योजना बनाई गई थी, लेकिन जेल के बाहर किसी प्रकार के उपद्रव की आशंका को ध्यान में रखते हुए अधिकारियों द्वारा इसे नियत तिथि से पूर्व ही 23 मार्च 1931 की सायंकाल को ही फांसी की सज़ा दे दी गई। भगत सिंघ, राजगुरु और सुखदेव के निकट सम्बंधी अंतिम समय में मिलने के लिए फांसी देने से पहले वहां पहुंच चुके थे। सुखदेव से मिलने के लिए केवल उसकी माता जी, श्रीमती रलीदेई थापर और मथुरादास थापर को ही अनुमति दी गई, जबकि इस मिलन के लिए मुख्य सचिव, पंजाब का पत्र होने के बावजूद ताया श्री अचिंतराम थापर जी को सुखदेव से मिलने, देखने नहीं दिया गया। सुखदेव को फांसी के फंदे तक ले जाए जाने से पहले जेलर द्वारा उसकी अंतिम इच्छा पूछी गई। इस पर सुखदेव ने मात्र यही कहा, “ उसका कैरम बोर्ड उसके परिवार को लौटा दिया जाए।“
फांसी के तखते पर जाने से पूर्व सुखदेव, भगत सिंघ और राजगुरू एक-दूसरे से गले मिले तथा जेल परिसर में अन्य कैदियों के “इंक्लाब –ज़िंदाबाद” के नारों के बीच फांसी का फंदा चूमते हुए फांसी पर झूल गए। इस पर जेल के बाहर लोग बहुत सतर्क हो चुके थे। लोगों की बड़ी भीड़ उमड़ चुकी थी। रिश्तेदारों, निकट सम्बंधियों के निवेदनों के बावजूद जेल प्राधिकारियों द्वारा शहीदों के पार्थिव शरीर उन्हें नहीं सौंपे गए.... अपितु रात में ही उन्हें अंतिम संस्कार के लिए गुप्त तौर पर पुलिस वाहनों में लाहौर से फिरोज़पुर में सतलुज नदी के किनारे पर लाया गया और जला दिया गयाI
ब्रिज भूषण गोयल एक सामाजिक कार्यकर्ता ऐवम एक वरिष्ठ नागरिक I
मोबाईल: नंबर: 9417600666
3182, बी-34, न्यू टैगोर नगर लुधियाना (पंजाब)
कृपया ध्यान दें: यह लेख शहीद सुखदेव के योगदान को याद करने के लिए लिखा गया है। यह दृढ़ता से महसूस किया जाता है कि स्वतंत्रता संग्राम और लाहौर षडयंत्र में उनकी भूमिका को स्पष्ट करने के लिए सरकारों द्वारा उचित न्याय नहीं दिया गया है। और उनके जन्मस्थान को अभी भी उचित मान्यता का अभाव है। सरकार और समाज को उस पर अधिक ध्यान देना चाहिए। गौरतलब है कि ऐसा कई अन्य शहीदों के साथ भी हुआ होगा. हम ये विवरण पाठकों तक पहुंचाते रहेंगे. नए विचारों का इंतजार रहेगा--रेक्टर कथूरिया-संपादक
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