08-मई-2013 16:26 IST
तंजौर और मैसूर की कलाकृतियां -विशेष लेख//आलोक देशवाल*
दक्षिण भारत के तलिनाडु राज्य में तंजौर (तंजावूर) के मंदिर में उकेरी गई चित्रकला को तंजौर कलाकृतियों का नाम दिया गया। शैलीगत ढंग से यह माना जाता है कि यह 16वीं शताब्दी में नायक शासकों के शासन के दौरान उभर कर आई। 17वीं सदी में मराठा शासन में इस कला को नया प्रोत्साहन और संरक्षण प्राप्त हुआ।मराठा शासकों के समय तंजौर कला, वास्तुकला, शिक्षण, संगीत और प्रदर्शन कला के एक महान केंद्र के रूप में उभर कर आया।
स्थानीय तौर पर पालागई (लकड़ी का तख्त) और पदम (चित्र) का तात्पर्य लकड़ी के तख्तों पर चित्र बनाने की पद्धति से है जो इस क्षेत्र की विशेष शैली है। ऐसा माना जाता है कि पहले इस कला को दीवारों पर बनाया जाता था और फिर उसे ऐची चीज़ों पर बनाया जाने लगा जिसे आसानी से ले जाया जा सकता हो। इन चित्रों में दृश्य हिंदू धर्म की वैष्णव और शैव परंपरा से उत्पन्न हुए हैं। हालांकि इसमें अन्य धर्मों और धर्मनिरपेक्ष विषयों पर भी कई चित्र मिलते हैं। इन चित्रों में दरबार के दृश्य और संतों तथा शासकों के चित्र शामिल हैं।
तंजौर कलाकृतियों में असली सोने और चांदी का वर्क, बहुमूल्य मोती, शीशे और रत्नों विशेष रूप से सोने का बखूबी इस्तेमाल होता है। देवी-देवताओं की कलाकृतियों में लाल, हरे, नीले, काले और सफेद रंगों के इस्तेमाल के अलावा श्री कृष्ण के बाल रूप की कलाकृति में संगमरमर के साथ अक्सर गुलाबी जबकि भगवान विष्णु और उनके अवतारों के चित्रों में अक्सर हरे रंग की झलक दिखती है।
मैसूर कलाकृति शैली महाराजा कृष्णराजा वदियार (1799-1868) के शासन मे दक्षिण कनार्टक में शुरू हुई। इनके शासन में संगीत, नृत्य, साहित्य और कलाकृतियों जैसे पुरानी कलात्मक परंपराओं को फिर से उभारा गया। अधिकतर पारंपरिक कलाकृतियों को जीवित रखने में इस शासन को श्रेय दिया जा सकता है। दीवारों से लेकर मैसूर की शैलीगत ढंग से कपड़े, कागज़ और लकड़ी पर कलाकृतियां बनाने तक व्यापक कृतियों मिलती हैं।
हालांकि देखने वालों को यह कलाकृतियां अक्सर एक जैसी लगती हैं लेकिन दोनों की शैलियां में में अंतर है और यह अंतर इन कलाकृतियों को बनाने में इस्तेमाल हुई तकनीक और जिस तरह से यह प्रस्तुत की गईं उसमें है। तंजौर के मुकाबले मैसूर कलाकारों द्वारा अपनाई गई तकनीक में मामूली फर्क है। तंजौर में सफेदा (मक्खीसफेदा) का इस्तेमल होता है वहीं मैसूर कलाकार स्वदेशी पेड़ (रेवाना चिन्नीहालू) के रस से निकला गंबोज (पीला) का इस्तेमाल करते हैं जिसे इन कलाकृतियों में एक सुनहरे रंग की झलक दिखती है। तंजौर के ‘गैसो’ कार्य के हाई रिलीफ के मुकाबले मैसूर में लो रिलीफ को वरीयता दी जाती है और तंजौर कलाकारों द्वारा अपनाए जाने वाले चांदी की परत वाली सोने की पत्ती के मुकाबले मैसूर में खरे सोने की पत्ती का इस्तेमाल होता है। तंजौर शैली में उपयोग हुए शीशे और रत्न भी मैसूर कलाकृतियां में दिखाई नहीं देते। मैसूर में तंजौर के बजाए प्राकृतिक दृश्य अधिक विस्तारपूर्वक नज़र आते हैं हालांकि दोनो शैलियों में अक्सर पारंपरिक मंदिरों के पवैलियन और टावर दिखाई देते हैं।
तंजौर और मैसूर कलाकृतियां में हिंदू पुराणों, महाकाव्यों और पुराणों के दृश्य दर्शाती हैं। इन कलाकृतियां को जो अलग करता है वो है कि इसमें उत्तर भारत, डेक्कन और मैसूर के दक्षिण भागों की अलग-अलग संस्कृतियों की झलक । यह कलाकृतियां दीवारों/सूक्ष्म चित्रों, तथा लो रीलिफ की मूतिर्यों की दो भारतीय पंरपराओं के बीच की हैं। दोनों कलाकृतियों में जैसी कि रैखिकता दिखती है वो रोशनी और शेड के जरिए तीन परिमाणिक का रूप देती है। लो रिलीफ माडलिंग- गोंद की मोटी परत, रंगों , तरीके से कटे हुए पत्थरों के जरिए हासिल की जाती है। कलाकृतियों को सजाने के लिए अनिवार्य रूप से सजावटी तत्वों का काफी इस्तेमाल किया जाता था जिसे ‘कोर्ट स्टाइल’ कहते हैं।
पारंपरिक रूप से व्यक्तिगत पूजा और सम्राटों को सम्मान देने में इस्तेमाल की जानी वाली मैसूर और तंजौर कलाकृतियों ने संग्रहालय की उत्कृष्ट दुनिया में काफी देर से कदम रखा है। नई दिल्ली में राष्ट्रीय संग्रहालय की तंजौर और मैसूर कलाकृतियों की नवीनीकृत दीर्घा में इन दोनों कलाकृतियों के कुछ बेहतरीन ऐतिहासक उदाहरण मिलते हैं जो परंपरा, आध्यात्म और उदार उपभेदों का भरपूर मिश्रण दर्शाते हैं।
दीर्घा में 88 कलाकृतियों शामिल हैं। हालांकि हर कलाकृति विशिष्ट है लेकिन कुछ श्रेष्ठ कृतियों की कोई तुलना नहीं है।
इन कलाकृतियों में उत्कृष्ट कार्य को देखकर यह आसानी से समझा जा सकता है कि दुनियाभर में इनका प्रसार कैसे हुआ।
*उप निदेशक, पसूका नई दिल्लीमीणा/इ अहमद/प्रियंका -92
पूरी सूची -08.05.2013
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