भाजपा और कांग्रेस का समर्थन पूरी तरह जन विरोधी
स्वास्थय, मजदूर और पर्यावरण विरोधी कदम के खिलाफ लोगों में रोष
नई दिल्ली//गोपाल कृष्ण//Fri, Apr 6, 2012 at 8:04 PM
कचरा से बिजली बनाने वाली जानलेवा व प्रदूषणकारी कारखाने से ऐसे रसायन का उत्पादन होता है जिसे अमेरिका ने विअतनाम के खिलाफ इस्तेमाल रासायनिक हथियार के रूप में किया था. दिल्ली नगर निगम के चुनाव के दौरान जारी घोषणा पत्र में भारतीय जनता पार्टी ने कचरा से बिजली बनाने का वायदा किया है जो स्वास्थय, मजदूर और पर्यावरण विरोधी है जिसे भारतीय कांग्रेस पार्टी का समर्थन प्राप्त है. कचरा जलाने की तकनीकि की बदौलत यह बिजली का कूड़ा घर डाईआक्सीन का उत्सर्जन करेगी. डाईआक्सीन कैंसर के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक घोषित गंधक है. खतरनाक रसायनों को यह तकनीकि ने ठोस रूप प्रदान कर कई-कई रूपों में वायु प्रदुषण का हिस्सा बन जाता है. अब यह जहर केवल धरती या पानी में ही नहीं बल्कि हवा में भी तैरने लगता है. शहर के कूड़े में प्लास्टिक के अलावा पारा जैसे गंधक भी बहुतायत में निकलते हैं. वैज्ञानिक और व्यावसायिक बुद्धि को किनारे रख दें तो भी क्या हमें यह समझने में दिक्कत है कि प्लास्टिक और पारा के जलने से जो धुंआ निकलता है वह हमारे लिए लाभदायक है या हानिकारक?1997 में पर्यावरण मंत्रालय के अपने श्वेत पत्र में यह बात स्वीकार की गयी थी कि जिस तरीके से शहरी कूड़े को ट्रीट किया जा रहा था वह तकनीकि सही नहीं थी. अब वह सही कैसे हो गया.
भारतीय जनता पार्टी के दिल्ली विधान सभा के विपक्ष के नेता विजय कुमार मल्होत्रा ने लेफ्टिनेंट गवर्नर को एक पत्र में इस कारखाने को प्रदूषणकारी बताया था अब उन्ही की पार्टी इसी कारखाने को लाने का वायदा कर रही है.
दिल्ली के ओखला में २०५० मेट्रिक टन कूड़े से बिजली का कारखाना के अलावा नरेला-बवाना में ४००० मेट्रिक टन का और गाजीपुर में १३०० मेट्रिक टन के कारखाने का निर्माण जारी है. सरकार दिल्ली में ३ कचरा से बिजली बनाने के परियोजना को लागु कर रही है जिससे पर्यावरण को भारी मात्रा में नुकसान होता है.
ऐसे बिजलीघर न तो कूड़ा निपटाने के लिए बनते हैं और न ही बिजली पैदा करने के लिए. कारण कुछ और हैं. इन कारणों में एक कारण यह भी है कि प्रति मेगावाट की दर से सरकार दो स्तरों पर अनुदान देती है. यह एक करोड़ से डेढ़ करोड़ तक होता है. जिस काम को सरकार के अधिकारी ज्यादा रूचि लेकर प्रमोट करते हैं उसके कारण सबको समझ में आ जाते हैं. इस तकनीकि के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. लेकिन जनता को इससे क्या मिलेगा? लोगों को बिजली तो मिलने से रही लेकिन जहां भी ऐसे प्लांट लगेंगे उनके आस पास के लोगों को कैंसर सौगात में मिलेगा.
आज दिली के लगभग 80% एरिया के काम को प्राइवेट कम्पनी के हाथों बेच दिया गया है लेकिन उसके बावजूद भी समस्या का हल नहीं हो पा रहा है दिल्ली में कचरे क़ि छंटाई के काम में असंगठित क्षेत्र के लगभग 3.5 लाख मजदूर शामिल है. कचरे का लगभग 20 से 25 प्रतिशत क़ि छंटाई हो जाती है. इनके द्वारा 30% कचरे क़ि छंटाई हो जाएगी जो कच्चे माल के रूप में दुबारा इस्तेमाल होगा और साथ ही 50% वैसा कचरा है जिसको जैविक कूड़ा कहते है उससे खाद बनाया जा सकता है. 80% भाग को समुदाय स्तर पर ही निपटारा हो सकता है.
सभी विकसित देशों ने ऐसी परियोजना को बंद कर चुकि है इसके मूल कारण रहे है क़ि इससे जहरीली गैस निकलती है जो जीवन व पर्यावरण के लिए काफी खतरनाक है और कचरे में वैसी जलने क़ि क्षमता नहीं है जिससे बिजली का उत्पादन किया जा सकता है भारत में पहली बार दिल्ली के तिमारपुर में कचरा से बिजली बनाने क़ि परियोजना 1990 में लगाया गया जो असफल रहा. ऐसे में भाजपा और कांग्रेस दोनों को बहिष्कार करना ही एक मात्र रास्ता दिख रहा है.
स्वास्थय, मजदूर और पर्यावरण विरोधी कदम के खिलाफ लोगों में रोष
नई दिल्ली//गोपाल कृष्ण//Fri, Apr 6, 2012 at 8:04 PM
कचरा से बिजली बनाने वाली जानलेवा व प्रदूषणकारी कारखाने से ऐसे रसायन का उत्पादन होता है जिसे अमेरिका ने विअतनाम के खिलाफ इस्तेमाल रासायनिक हथियार के रूप में किया था. दिल्ली नगर निगम के चुनाव के दौरान जारी घोषणा पत्र में भारतीय जनता पार्टी ने कचरा से बिजली बनाने का वायदा किया है जो स्वास्थय, मजदूर और पर्यावरण विरोधी है जिसे भारतीय कांग्रेस पार्टी का समर्थन प्राप्त है. कचरा जलाने की तकनीकि की बदौलत यह बिजली का कूड़ा घर डाईआक्सीन का उत्सर्जन करेगी. डाईआक्सीन कैंसर के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक घोषित गंधक है. खतरनाक रसायनों को यह तकनीकि ने ठोस रूप प्रदान कर कई-कई रूपों में वायु प्रदुषण का हिस्सा बन जाता है. अब यह जहर केवल धरती या पानी में ही नहीं बल्कि हवा में भी तैरने लगता है. शहर के कूड़े में प्लास्टिक के अलावा पारा जैसे गंधक भी बहुतायत में निकलते हैं. वैज्ञानिक और व्यावसायिक बुद्धि को किनारे रख दें तो भी क्या हमें यह समझने में दिक्कत है कि प्लास्टिक और पारा के जलने से जो धुंआ निकलता है वह हमारे लिए लाभदायक है या हानिकारक?1997 में पर्यावरण मंत्रालय के अपने श्वेत पत्र में यह बात स्वीकार की गयी थी कि जिस तरीके से शहरी कूड़े को ट्रीट किया जा रहा था वह तकनीकि सही नहीं थी. अब वह सही कैसे हो गया.
भारतीय जनता पार्टी के दिल्ली विधान सभा के विपक्ष के नेता विजय कुमार मल्होत्रा ने लेफ्टिनेंट गवर्नर को एक पत्र में इस कारखाने को प्रदूषणकारी बताया था अब उन्ही की पार्टी इसी कारखाने को लाने का वायदा कर रही है.
दिल्ली के ओखला में २०५० मेट्रिक टन कूड़े से बिजली का कारखाना के अलावा नरेला-बवाना में ४००० मेट्रिक टन का और गाजीपुर में १३०० मेट्रिक टन के कारखाने का निर्माण जारी है. सरकार दिल्ली में ३ कचरा से बिजली बनाने के परियोजना को लागु कर रही है जिससे पर्यावरण को भारी मात्रा में नुकसान होता है.
ऐसे बिजलीघर न तो कूड़ा निपटाने के लिए बनते हैं और न ही बिजली पैदा करने के लिए. कारण कुछ और हैं. इन कारणों में एक कारण यह भी है कि प्रति मेगावाट की दर से सरकार दो स्तरों पर अनुदान देती है. यह एक करोड़ से डेढ़ करोड़ तक होता है. जिस काम को सरकार के अधिकारी ज्यादा रूचि लेकर प्रमोट करते हैं उसके कारण सबको समझ में आ जाते हैं. इस तकनीकि के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. लेकिन जनता को इससे क्या मिलेगा? लोगों को बिजली तो मिलने से रही लेकिन जहां भी ऐसे प्लांट लगेंगे उनके आस पास के लोगों को कैंसर सौगात में मिलेगा.
आज दिली के लगभग 80% एरिया के काम को प्राइवेट कम्पनी के हाथों बेच दिया गया है लेकिन उसके बावजूद भी समस्या का हल नहीं हो पा रहा है दिल्ली में कचरे क़ि छंटाई के काम में असंगठित क्षेत्र के लगभग 3.5 लाख मजदूर शामिल है. कचरे का लगभग 20 से 25 प्रतिशत क़ि छंटाई हो जाती है. इनके द्वारा 30% कचरे क़ि छंटाई हो जाएगी जो कच्चे माल के रूप में दुबारा इस्तेमाल होगा और साथ ही 50% वैसा कचरा है जिसको जैविक कूड़ा कहते है उससे खाद बनाया जा सकता है. 80% भाग को समुदाय स्तर पर ही निपटारा हो सकता है.
सभी विकसित देशों ने ऐसी परियोजना को बंद कर चुकि है इसके मूल कारण रहे है क़ि इससे जहरीली गैस निकलती है जो जीवन व पर्यावरण के लिए काफी खतरनाक है और कचरे में वैसी जलने क़ि क्षमता नहीं है जिससे बिजली का उत्पादन किया जा सकता है भारत में पहली बार दिल्ली के तिमारपुर में कचरा से बिजली बनाने क़ि परियोजना 1990 में लगाया गया जो असफल रहा. ऐसे में भाजपा और कांग्रेस दोनों को बहिष्कार करना ही एक मात्र रास्ता दिख रहा है.
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