"वेलेंटाइन-डे" के नजदीक आते-आते "कंडोम और व्याग्रा" की विक्री क्यूं बढ़ जाती है?
जयप्रकाश नारायण ने अपनी एक पुस्तक "समाजवाद से सर्वोदय की ओर" में लिखा है कि "विज्ञानं ने अखिल विश्व को सिकोड़कर एक पड़ोस बना दिया है !" इस बात की सत्यता एवं प्रामाणिकता वर्तमान परिदृश्य की भौतिकता के आधुनिक दौर में हुए तकनीकी विकास को देखकर लगाया जा सकता है ! मसलन देश - विदेश में. घट रही घटनाओ को टी.वी. रिमोट की एक बटन दबाकर देखा जा सकता है तो वही सैकड़ो मील की दूरी मात्र कुछ घंटो में तय की जा सकती है ! पहले संवाद का जरिया "पत्र" होते थे परन्तु जल्दी ही इसका स्थान "सचल दूरभाष" अर्थात "मोबाईल फोन" ने ले लिया ! मोबाईल कम्पनियाँ लोगों को लुभाने के लिए तरह - तरह के " न्यू माडल" बाजार में उतार दिए है ! मसलन थ्री जी, फोर जी के माध्यम से न केवल सिर्फ "बातें" की जा सकती है अपितु अब तो एक-दूसरे से "फेस - टू - फेस" देखकर बात की जा सकती है ! आजकल के इन दूरभाषों को यदि "छोटा संगणक" अर्थात "मिनी कंप्यूटर" की संज्ञा दी जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी ! जिसकी मदद से गेम खेलने के साथ-साथ गाने सुनने से लेकर घंटो की फ़िल्में तक देखा जा सकता है ! इसका प्रत्यक्ष उदहारण है - राजस्थान सरकार के पूर्व मंत्री की करतूतें एवं कर्नाटक की विधानसभा ! चित्र साभार: जयपुर.को |
बाजार और सेक्स के समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है उसने सारे नैतिक मूल्यों को पीछे छोड़ दिया है ! फिल्म, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चैनल मुद्रित माध्यमों अर्थात "एडवरटाइजमेंट" पर ही निर्भर है ! प्रिंट मीडिया जो पहले अपने दैहिक विमर्शों के लिए ‘प्लेबाय’ या ‘डेबोनियर’ तक सीमित था, अब दैनिक अखबारों से लेकर हर पत्र-पत्रिका में अपनी जगह बना चुका है ! यह कहना गलत ना होगा कि आज मनुष्य बाजारू संस्कृति का खिलौना मात्र बनकर रह गया है ! जो कि शरीर कम ढंकने, उघाड़ने या ओढ़ने पर जोर देता है ! और तो और आजकल "कलंक" की भी मार्केटिंग होती है क्योंकि यह समय कह रहा है कि दाग अच्छे हैं ! सदियों से चला आ रहा "देह बाजार" भी नए तरीके से अपने रास्ते बना रहा है ! अब यह देह की बाधाएं हटा रहा है, जो सदैव से गोपन रहा उसको अब ओपन कर रहा है !
आज मानव बाजारवाद का इतना ग़ुलाम हो गया है कि उसकी रोज-मर्रा की सारी आवश्यकताएं "बाजार निश्चित" करता है ! मसलन उसे क्या पहनना है , कैसी गाडी चाहिए आदि - आदि ! त्योहारों का ऐसा बाजारीकरण किया जाता है कि मनुष्य उसके चक्रव्यह में फंसकर खरीदारी कर ही लेता है ! यहाँ तक कि मानवीय - भावनाओं का भी मूल्यांकन बाजार ही करता है यह कहना कदापि अनुचित न होगा ! इसी बाजारीकरण के चलते मानव ने अपना नैतिक आधार खो दिया है ! परिणामतः समाज में "सहनशीलता" की कमी हो गयी है ! मसलन "प्रेमिका के मना कर देने पर उसके प्रेमी ने उसे बदनाम करने के लिए उसकी आपत्तिजनक तस्वीर अथवा तकनीकी का उपयोग कर शारीरिक सम्बन्ध का एम्.एम्.एस. बनाकर उसे इन्टरनेट पर डाल दिया " ऐसे समाचारों से समाचार पत्र आये दिन भरे होते है ! एक अखबार ने एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए यहाँ तक लिखा कि "वेलेंटाइन - डे" के नजदीक आते - आते "कंडोम और वायग्रा" की विक्री बढ़ जाती है ! जो कि "सामाजिक विकृति" की पराकाष्ठा को प्रदर्शित करता है ! आज इन्टरनेट पर आसानी से उपलब्ध "बेड-रूम के अन्तरंग पलों" की सामग्री किसी से भी छुपी हुई नहीं है जिसे लेकर अभी हाल में ही कोर्ट ने भी कड़ा एतराज जताते हुए ऐसी आपत्तिजनक सामग्री को हटाने का नोटिस दिया था !
राजीव गुप्ता (लेखक) |
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