याद अभी भी आती है उस लकड़ी वाले पुल की
लुधियाना: कोई जमाना था जब जब शहरी क्षेत्रों और सिविल लाईन्स इलाकों में रहने वाले लोग लकड़ी के एक पुल को पार करके आया जाया करते थे. रेलवे लाईनों के ऊपर से गुजरता वह पुल लुधियाना की एक पहचान बन चूका था. वह पुल टूट तो बस जैसे एक सिलसिला सा ही शुरू हो गया. एक के बाद एक पुरानी पहचान के चिन्ह मिटने लगे. न तो सुभानी बिल्डिंग रही और न ही नौलखा सिनेमा. उन सब के साथ याद आता रहेगा लकड़ी का वह पुल. पैदल और साईकल इस्तेमाल करने वालों के लिए यह पुल किसी वरदान से काम नहीं था.बस एक पुल पार करना और एक इलाके से दुसरे इलाके में पहुंच जाना. ऑटो वाहनों का इस्तेमाल करने वाले लोग उस समय भी अक्सर दमोरिया पुल ही पार करते थे. दमोरिया पुल का रास्ता लकड़ी के पुल वाले रास्ते की बजाये काफी लम्बा था. उन दिनों कचहरी भी इसी तरफ थी इस लिए लोग बहुत बड़ी संख्या में इधर से उधर आते जाते थे. जो लोग अपना साईकल कंधों पर नहीं उठा पाते थे वे किसी मजदूर की सहयता लेते. साईकल पार कराने वाले मजदूर झट से साईकल उठा कर पार करा देते. साईकल पार कराने की कीमत २५ पैसे से शुरू हुई और फिर एक रूपये तक पहुंची. इस तरह लकड़ी का यह पुल बहुत से गरीबों को रोज़गार भी देता था. पुल के नीचे अख़बार और चाये, परांठे का काम भी खूब चलता था. जब लकड़ी का यह पुल टूटा तो बहुत से लोगों का दिल भी टूट गया. कईं का रोज़गार छिन गया.
लुधियाना: कोई जमाना था जब जब शहरी क्षेत्रों और सिविल लाईन्स इलाकों में रहने वाले लोग लकड़ी के एक पुल को पार करके आया जाया करते थे. रेलवे लाईनों के ऊपर से गुजरता वह पुल लुधियाना की एक पहचान बन चूका था. वह पुल टूट तो बस जैसे एक सिलसिला सा ही शुरू हो गया. एक के बाद एक पुरानी पहचान के चिन्ह मिटने लगे. न तो सुभानी बिल्डिंग रही और न ही नौलखा सिनेमा. उन सब के साथ याद आता रहेगा लकड़ी का वह पुल. पैदल और साईकल इस्तेमाल करने वालों के लिए यह पुल किसी वरदान से काम नहीं था.बस एक पुल पार करना और एक इलाके से दुसरे इलाके में पहुंच जाना. ऑटो वाहनों का इस्तेमाल करने वाले लोग उस समय भी अक्सर दमोरिया पुल ही पार करते थे. दमोरिया पुल का रास्ता लकड़ी के पुल वाले रास्ते की बजाये काफी लम्बा था. उन दिनों कचहरी भी इसी तरफ थी इस लिए लोग बहुत बड़ी संख्या में इधर से उधर आते जाते थे. जो लोग अपना साईकल कंधों पर नहीं उठा पाते थे वे किसी मजदूर की सहयता लेते. साईकल पार कराने वाले मजदूर झट से साईकल उठा कर पार करा देते. साईकल पार कराने की कीमत २५ पैसे से शुरू हुई और फिर एक रूपये तक पहुंची. इस तरह लकड़ी का यह पुल बहुत से गरीबों को रोज़गार भी देता था. पुल के नीचे अख़बार और चाये, परांठे का काम भी खूब चलता था. जब लकड़ी का यह पुल टूटा तो बहुत से लोगों का दिल भी टूट गया. कईं का रोज़गार छिन गया.
पर जैसा कि अक्सर होता है. हर विकास की नींव किसी पुराने जर्जर ढांचे के विनाश पर ही टिकी होती है. लकड़ी का पुल टूटा तो वह नया पुल बनना शुरू हुआ. सीमेंट बजरी का विशाल पुल. पुरानी कचहरी वाले सिविल लाईन्स इलाके और शहरी इलाके के साथ ही जग्रयों पुल को जोड़ने वाला नया पुल. शहर में तेज़ी से बढ़ रहे ट्रैफिक को देखते हुए इस पुल कि सख्त जरूरत भी थी. लेकिन जैसा कि सरकारी कामों में होता है इस पुल का काम भी बीच में ही लटक गया. इतना लटका कि लोगों ने इसके पूरा होने की उम्मीद ही छोड़ दी. पर अब स कि किस्मत भी जाग उठी है. नगर निगम लुधियाना के कार्यकारी मेयर परवीन बांसल ने कहा है अब सभी रुकावटें दूर हो गईं हैं. रेलवे से भी बात कर लो गयी है. कार्यकारी मेयर प्रवीन बांसल ने कहा है कि सिवल लाईन्स और शहरी इलाके को जोड़ें के लिए नया बन रहा पुल एक जनवरी से शुरू हो जायेगा. उन्होंने ममीडिया को बताया कि इस सम्बन्ध में अब सारी औपचारिकताएं पूरी कर ली गयीं हैं. इसलिए अब हमारा पूरा प्रयास यही होगा कि नए वर्ष २०१२ के पहले दिन अर्थात पहली जनवरी को इस पुल पर से यातायात शुरू कर दिया जाये. उम्मीद की जानी चाहिए कि अब इस मामले में यह वायदा हर हाल में पूरा होगा. आप भी दुया कीजिये. सुना है दिल से जो बात निकलती है असर रखती है.--रेक्टर कथूरिया
नोट: अगर आपके पास भी उन पुराने दिनों की, उन स्मारकों की, स्थानों की यादें संजोयी हों तो उन्हें शब्द दीजिये और भेज दीजिये. हम उन्हें आपके नाम के साथ प्रकाशित करेंगे. पता आपको मालूम ही है: punjabscreen@gmail.com
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