मुझे याद है आपातकाल का वह दौर जब हर तरफ एक अन्जाना सा सहम था. पत्र पत्रिकाएँ सेसर होती थी.न तो सरकार के खिलाफ कुछ प्रकाशित हो सकता था और न ही पत्र में कोई स्थान खाली छोड़ा जा सकता था. हर जगह सेंसर अधिकारीयों की ड्यूटियां लगाई गयीं थी. सोच रहा था आज ऐसा क्या लिखा जाये जो मन की बात भी करे और सेंसर की पकड़ में भी न आये. दोपहर गुज़र रही थी की अचानक ही पिता जी बहार से आये तो उन्के३ न्हात में एक हिंदी पत्रिका थी. शायद सारिका. दुष्यंत की गज़लों को समर्पित एक विशेषांक था वह. करीब दो घंटे के बाद दुष्यंत की कुछ गज़लों को गुरुमुखी लिपि में तब्दील किया गया. उनमें एक अश्यार था...
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कंवल के फूल मुरझाने लगे हैं.
उन दिनों जो लोग सेंस्र्शुदा सामग्री पढ़ कर बोर महसूस करने लगे थे वे बहुत प्रसन्न हुए. उन्हें लगा कहीं से ताज़ी ठंडी हवा का कोई झोंका आया है. इन ग्ज्ल्लों को पंजाबी में देख कर विदेशों से भी बहुत पत्र आये. इस गर्मजोशी को देख कर हम सब खुद भी हैरान थे. इसलिए इसके बाद भी दुष्यंत जी की रचनायों का प्रकाशन उस पंजाबी पत्रिका में होता रहा. इस सबके साथ इन गज़लों के अश्यार कब दिल और दिमाग में उतर गए कुछ पता ही नहीं चला. कई बार ऐसी नौबत आती की की खास मुद्दे पर बात खनी होती या आम बातचीत में अपना पक्ष कुछ ज़ोरदार बनाना होता तो दुष्यंत जी के अश्यार खुद-ब-खुद जुबां पर आ जाते. ऐसा केवल मेरे साथ ही नहीं हुआ बहुत से लोग आज भी दुष्यंत जी की शेयरों के ज़रिये अपनी बात अधिक प्रभावी ढंग से ख पाते हैं.
दुष्यंत कुमार त्यागी एक ऐसे हिंदी कवि और ग़ज़लकार थे जिन्होंने गजल को आम इंसान के बोलचाल तक में शामिल कर दिया. इन्होंने 'एक कंठ विषपायी', 'सूर्य का स्वागत', 'आवाज़ों के घेरे', 'जलते हुए वन का बसंत', 'छोटे-छोटे सवाल' और दूसरी बहुत सी किताबों का सृजन किया. दुष्यंत कुमार उत्तर प्रदेश के बिजनौर के रहने वाले थे. जिस समय दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील (तरक्कीपसंद) शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर राज था. हिन्दी में भी उस समय अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन कविताओं का बोलबाला था.। उस समय आम आदमी के लिए नागार्जुन तथा धूमिल जैसे कुछ कवि ही बच गए थे. सिर्फ़ 42 वर्ष के छोटे से जीवन में दुष्यंत कुमार ने न केवल अपार ख्याति अर्जित की बलिक ऐसी रचना की जो आज भी कहती है दुष्यंत यहीं हैं हमारे आसपास...आज उसने यह कहा आज उसने वह कहा...देखो तो सही कितनी गहरी बातें हैं बहुत ही सादगी से कही गयीं.. निदा फ़ाज़ली उनके बारे में लिखते हैं."दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है. यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है." जिंदगी बेहद सस्ते जमानों में भी बहुत महंगी रही है. रोज़ की छोटी छोटी ज़रूरतें पूरी जिंदगी निगल जाती हैं. इन बैटन को दुष्यंत कितनी सादगी से कह लेते थे इसका एक नया अंदाज़, एक नया रंग वातायन ने बहुत ही खूबसूरती से प्रस्तुत किया. ये दो गजलें बभीैं और दो पत्र भी.
दुष्यंत कुमार टू धर्मयुग संपादक
पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर|
संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर|१|
अब ज़िन्दगी के साथ ज़माना बदल गया|
पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर|२|
कल मैक़दे में चेक दिखाया था आपका|
वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर|३|
शायर को सौ रुपए तो मिलें जब गज़ल छपे|
हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर|४|
लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप|
शी! होंठ सिल के बैठ गये ,लीजिए हुजूर|५|
धर्मयुग सम्पादक टू दुष्यंत कुमार
[धर्मवीर भारती का उत्तर बकलम दुष्यंत कुमार्]
जब आपका गज़ल में हमें ख़त मिला हुज़ूर|
पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर|
संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर|१|
अब ज़िन्दगी के साथ ज़माना बदल गया|
पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर|२|
कल मैक़दे में चेक दिखाया था आपका|
वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर|३|
शायर को सौ रुपए तो मिलें जब गज़ल छपे|
हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर|४|
लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप|
शी! होंठ सिल के बैठ गये ,लीजिए हुजूर|५|
धर्मयुग सम्पादक टू दुष्यंत कुमार
[धर्मवीर भारती का उत्तर बकलम दुष्यंत कुमार्]
जब आपका गज़ल में हमें ख़त मिला हुज़ूर|
पढ़ते ही यक-ब-यक ये कलेजा हिला हुज़ूर|१|
ये "धर्मयुग" हमारा नहीं सबका पत्र है|
हम घर के आदमी हैं हमीं से गिला हुज़ूर|२|
भोपाल इतना महँगा शहर तो नहीं कोई|
महँगी का बाँधते हैं हवा में किला हुज़ूर|३|
पारिश्रमिक का क्या है बढा देंगे एक दिन|
पर तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुज़ूर|४|
शायर को भूख ने ही किया है यहाँ अज़ीम|
हम तो जमा रहे थे यही सिलसिला हुज़ूर|५|
[पहली बार ये दोनों ही गज़लें धर्मयुग के होली अंक 1975 में प्रकाशित हुयी थीं।]
भाई वीरेन्द्र जैन जी के ब्लॉग से साभार यहाँ आपके सामने भी रखीं गयीं हैं. अब साथ ही साथ देखिये जरा वायस आफ हार्ट का सुन्दर प्रस्तुतिकरण. इसी तरह एक प्रयास किया नव निर्माण ने भी.एक और यादगारी अंदाज़ है बागे वफा हिंदी की तरफ से.
ये "धर्मयुग" हमारा नहीं सबका पत्र है|
हम घर के आदमी हैं हमीं से गिला हुज़ूर|२|
भोपाल इतना महँगा शहर तो नहीं कोई|
महँगी का बाँधते हैं हवा में किला हुज़ूर|३|
पारिश्रमिक का क्या है बढा देंगे एक दिन|
पर तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुज़ूर|४|
शायर को भूख ने ही किया है यहाँ अज़ीम|
हम तो जमा रहे थे यही सिलसिला हुज़ूर|५|
[पहली बार ये दोनों ही गज़लें धर्मयुग के होली अंक 1975 में प्रकाशित हुयी थीं।]
भाई वीरेन्द्र जैन जी के ब्लॉग से साभार यहाँ आपके सामने भी रखीं गयीं हैं. अब साथ ही साथ देखिये जरा वायस आफ हार्ट का सुन्दर प्रस्तुतिकरण. इसी तरह एक प्रयास किया नव निर्माण ने भी.एक और यादगारी अंदाज़ है बागे वफा हिंदी की तरफ से.
2 comments:
दुष्यंत जी को पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता है।
दुष्यंत जी के लिए समर्पित मेरा एक शेर:-
फिज़ा में आज भी महके है खुश्बू-ए-दुष्यंत|
चलो कि अब तो कहें बा-क़माल नूर था वो||
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