चित्र साभार:साहित्य शिल्पी |
चित्र साभार:शहीद सुखदेव मेमोरियल ट्रस्ट |
भारत माता को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त करवाने के लिए अपनी जान पर खेलने वाले इस सपूत के एक वंशज का परिवार आजकल लुधियाना के दुगरी इलाके में पड़ते प्रीत नगर में रहता है. उदासी के आलम में मायूस हुए इस परिवार के मुखिया विशाल कुमार नयीयर बताते हैं कि रिश्ते में शहीद सुखदेव थापर उनके नाना लगते हैं. विशाल बताते हैं कि उनके माता जी शहीद सुखदेव को ताया जी (ताऊ जी) कहा करते थे. विशाल ने बताया कि एक दिन अचानक ही उनके सामने एक हिंदी अखबार आई जिसमें एक सर्वेक्षण छपा हुआ था.शहीदों पर. बच्चों से शहीदों के बारे में कुछ सवाल पूछे गए थे जो बहुत ही आसान से थे पर जवाब में किसी ने कहा भगत सिंह भारत का पहला प्रधान मन्त्री था और किसी ने कुछ और कहा. इस सर्वेक्षण के मुताबिक़ 81 प्रतिशत से भी अधिक बच्चो ने गलत जवाब दिए. इसे पढ़ कर पूरा परिवार भी उदास हो गया. सोचा एक नया अभियान चलाना होगा.क्रिकेट के खिलाड़ियों और फ़िल्मी दुनिया के सितारों की जानकारी बहुत ही बारीकी से रखने वाले इन बच्चों के दिल और दिमाग में देश के असली नायकों का चेहरा भी बसाना ही होगा.
इस मकसद को लेकर जब विचार विमर्श हुआ तो कुछ मित्रों ने सुझाव दिया कि कोई पुस्तक प्रकाशित की जाये..कोई विचार गोष्ठी करवाई जाये या कोई डाकुमेंटरी फिल्म बनाई जाये. यह सब विचार अभी चहल ही रहा था कि विशाल कुमार ने अपने एक मित्र के पास एक पुस्तक देखी जो पंजाबी में थी और उस पुस्तक के कवर पर शहीद सुखदेव थापर की तस्वीर भी छपी हुई थी. उस किताब को ध्यान से देखा गया तो पाता चला कि यह पुस्तक तो मई 2007 में छपी थी और वह भी पूरे दस हज़ार. हालांकि दस हजार की संख्या भी कोई इतनी ज्यादा नहीं है जितनी इस तरह के मामलों में होनी चाहिए पर अगर दस हजार पुस्तकें भी वितरित हो जायें तो इसका पता हर क्षेत्र में लग जाता है कि हां इस विषय पर कोई पुस्तक प्रकाशित हुई है. जब इस तरह की किताब सरकार रलीज़ करती है तो उसकी बात ही कुछ और हो जाती है. उसके विज्ञापन छपते हैं, कार्यक्रम होते हैं, पचासों बार चर्चा होती है, अखबारें और टीवी चैनल उसकी खबर घर घर तक पहुंचा देते हैं पर यहां तो बात ही कुछ और थी. न तो इस पुस्तक का अता पता किसी स्कूल कालेज में था और न ही किसी समाजिक संगठन को. मीडिया से जुड़े लोगों ने भी शहीद के परिवार से यही कहा कि उन्होंने इस तरह की कोई किताब कहीं नहीं देखी. सोच विचार के बाद विशाल ने पंजाब सरकार से सम्पर्क किया और सारी बात पूछी. इस पर सूचना और जन सम्पर्क विभाग ने इस बात को स्वीकार किया कि यह किताब प्रकाशित की गई थी और अभी भी मिल सकती है. इस पर विशाल ने पांच हज़ार पुस्तकों की मांग की. वह इस किताब को स्कूलों कालेजों और समाजिक संगठनों में वितरित करना चाहते हैं पर उन्हें कई चक्कर लगाने के बाद मिली केवल 250 किताबें. अब सवाल यह खड़ा होता है अगर यही किताबें बची हैं तो बाकी की 9750 किताबें कहां गयीं ? अगर इनका वितरण हुआ तो कहां पर ? ये किताबें समाज तक पहुंची क्यूं नहीं..? अगर ये किताबें 2007 में छपने के बावजूद अभी तक 2010 में भी गुमनामी के अँधेरे में खोयी हैं तो उन्हें प्रकाशित करने का कोई फायदा..? क्या इससे शहीदों और उनके वंशजों का अपमान नहीं हो रहा...? इस तरह के कई सवाल हैं जिनका जवाब देना बनता है. अब देखना होगा कि इस सब के लिए सरकार ज़िम्मेदार है या फिर कुछ सबंधित अधिकारी.....? रेक्टर कथूरिया
2 comments:
अब इन प्रश्नो के उत्तर तो उनसे मांगे जायें जिनके हाथ पाक साफ़ हों यहां तो पूरा तलाब ही गन्दा है।
अत्यंत निंदनीय कृत्य. जो देश अपने नायकों को सम्मान नहीं दे सकता वह तरक्की नहीं कर सकता है|
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