तस्वीर साभार: बर्मा डाईजेस्ट |
नोबल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की के संघर्षमय जीवन की कहानी जन्म के साथ ही बहुत तेज़ गति से आगे बढ़ती है. आंग सान सू की कहानी एक ऐसी कहानी है जिसमें कभी भी न तो उनकी लगन में कोई कमी होती है, न ही जनून में और सिद्धांतों के साथ उनके अटूट प्रेम में. उनकी दास्तान में बहुत से मोड़ आते हैं, उन पर बहुत से दबाव बनते हैं, बार बार ऐसा लगता है कि जैसे अब सब कुछ खत्म हो गया या होने वाला है पर वह हर अग्नी परीक्षा में से सफल हो कर निकलती हैं और शुरू कर देती है फिर एक नया सफ़र.
बर्मा की स्वतन्त्रता सेनानी आंग सान सू ने अपने और अपने परिवार के सभी सुक्ख त्याग दिए, सभी सुविधायों का बलिदान दे दिया पर असूलों पर कभी समझौता नहीं किया. उसने बर्मा की जनता का साथ कभी नहीं छोड़ा. उस वक्त भी नहीं जब उसका प्यारा पति माईकेल एरीस लंडन में कैंसर की भयानक बिमारी से जूझ रहा था. माईकेल ने बार बार आवेदन और निवेदन किये कि वह आखिरी सांसों पर है इसलिए कम से कम एक बार उसे अपनी पत्नी सू से मिलने दिया जाये.
घर में नजरबंदी से पूर्व अपने अमर्ठकों के सामने...: (तस्वीर साभार: Daithaic) |
गौरतलब है कि माईकेल ने आंग सू से प्रेम विवाह किया था. कैंसर की वजह से उसे अपना अंत निकट होने का आभास हो गया था वह इसी लिए बार पील कर रहा था एक बार उए बर्मा पहुंच कर अपनी पत्नी से मिलने दिया जाये. अमेरिका, संयुक्त राष्ट्र संघ और पॉप जॉन पाल द्वितीय ने भी इस मकसद के लिए अपीलें की पर बर्मा सरकार ने माईकेल को प्रवेश वीज़ा नहीं दिया. सरकार ने इ सारी स्थिति का फायदा उठाते हुए यह कहा की अगर सू देश छोड़ने को राज़ी हो तो वह यहां से चली जाये. उसे जाने की आज्ञा मिल सकती है. सू जानती थी की एक बार देश के बाहर जाते ही उसे दोबारा कभी भी स्वदेश लौटने की आज्ञा नहीं मिलेगी. जन आंदोलन को जीवंत रखने की चाह में उसने बहुत ही भरे मन से इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया. जब माईकेल का 53 वां जन्म दिन था उस समय 27 मार्च 1999 माईकेल का देहांत हो गया. जन आंदोलन की रक्षा करते करते सू ने अपना पति खो दिया.
उसके बीस वर्षों के राजनीतक कार्यकाल में कम से कम 14 वर्ष की अवधि ऐसी रही जब उसे बार बार किसी न किसी बहाने हाऊस अरेस्ट रखा गया. ज्यूं ही उसकी रिहाई का वक्त नज़दीक आता...उस पर कोई नया आरोप लगा दिया जाता और नजरबंदी की अवधि फिर बढ़ा दी जाती. मकसद साफ़ है कि मौजूदा सत्ता उसे चुनाव में भाग लेने से रोकना चाहती है. एक वक्त तो ऐसा भी जब चक्रवात आया तो बर्मा में सू का घर ठस नहस हो गया. उन दिनों सू ने मोमबत्ती जला का गुज़ारा किया. लोगों के साथ सू के अभिन्न लगाव ने उसे दुःख और पीड़ा के उन क्षणों में भी टूटने नहीं दिया. आज भी उसके दुःख कम नहीं हुए. पति खो कर भी उसने देश प्रेम का रास्ता नहीं बदला. जनता के साथ उसका स्नेह सम्बन्ध कम नहीं हुआ. आज उसके दोनों बटे आज भी उस से बहुत दूर लंदन में रह रहे हैं. उसकी रिहाई के लिए दुनिया भर में से आवाज़ उठ रही है. अमनेस्टी इंटरनेशनल ने घोषणा की है की पांच नवम्बर 2010 को यह आवाज़ फिर बुलंद की जाएगी. सू के हक में इस बार इसका आयोजन होगा सान-फ़्रांसिस्को अमनेस्टी इंटरनेशनल और बर्मा मानवाधिकार संगठन के सेंकडों कार्यकर्ता सू की रिहाई के लिए एक मार्च करेंगे. मार्च शुरू होगा शाम को साढ़े पांच बजे जो एक बार फिर दुनिया का ध्यान इस तरफ खींचेगा. इसके तुरंत बाद होगी सिटी हाल में रैली. अगर आप भी इस मुद्दे पर कुछ कहना चाहते हैं तो तुरंत अपनी भावनायों और विचारों को शब्द दीजिये. आपके विचारों की हमें भी इंतज़ार है. --रेक्टर कथूरिया
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