परेशानी, तनाव, क्रोध और उतेजना के वे पल जिनमें कुछ कर गुजरने का जोश भी पैदा होता है, हालात को बदलने के लिए जान की बाज़ी लगाने की हिम्मत भी जन्म लेती है, इन्सान आर या पार की जंग लड़ने का मन बनाता है वे अनमोल पल कभी कभी उस समय मिट्टी में मिल जाते हैं जब इन्सान को कोई बहका लेता है केवल यह कह कर कि यह सब तो किस्मत का खेल है, कर्मों का फल, भगवान की इच्छा, तुम क्या कर सकते हो, तुम्हारा क्या बस चलेगा उस सर्वशक्तिमान के सामने बस बैठो और उसका नाम जपो...! शायद इसी लिए धर्म को अफीम कहा गया. यही विचार बहुत से अमीरों पर भी उस वक्त असर करता है जब वे अपने ही हाथों हो रहे दूसरों के शोषण को देख कर आत्म ग्लानी से भर उठते हैं, इसे बंद करना चाहते हैं..लेकिन यह विचार उन्हें शक्ति देता है इस पाप कि भावना को भूलाने की और लूट-खसूट और शोषण के इस सिलसिले को जारी रखने की. पूर्व जन्मों के कर्मों की सज़ा और इनाम के चक्कर में उलझा कर यह अमीरों को भी कभी सही पथ पर नहीं आने देता. कभी भगवान कृष्ण ने भी अगर ऐसा ही सोचा या कहा होता तो आज केवल दुर्योधन का ही नाम होता और अर्जुन तो महाभारत से भी पहले ही कहीं खो गया होता. तब का गीता उपदेश आज भी बहुत अर्थपूर्ण है. लेकिन उसके अर्थों में भी आज नए नए संशय डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही. मैं यह सब सोच ही रहा था कि शहीद भगत सिंह जी के अत्यंत निकट पारिवारिक सदस्य प्रोफैसर जगमोहन सिंह जी की तरफ से एक मेल मिली. इस मेल में एक विशेष रचना थी जिसे थोडा और खोजने पर पता चला कि इसे कबाडखाना में भी प्रकाशित किया जा चुका है. रचना बहुत ही महत्वपूर्ण है, इसलिए इसे आप पढ़िए अवश्य. यहाँ केवल इस ख़ास भाषण के कुछ अंश दिए जा रहे है.जो आपको ले चलेंगे उस हकीकत की ओर जिसे बदलने के लिए आप चल सकेंगे संघर्ष की राह पर :--रेक्टर कथूरिया
इसकी शुरुयात होती है कुछ इस तरह, 'हमारे समय के बड़े कवि-कहानीकार श्री कुमार अम्बुज ने मेल से यह ज़बरदस्त और ज़रूरी दस्तावेज़ भेजा है. बहुत सारे सवाल खड़े करता जावेद अख़्तर का यह सम्भाषण इत्मीनान से पढ़े जाने की दरकार रखता है. इस के लिए श्री कुमार अम्बुज और डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल का बहुत बहुत आभार." (जावेद अख्तर के इण्डिया टुडे कॉनक्लेव में दिनांक 26 फरवरी, 2005 को ‘स्पिरिचुअलिटी, हलो ऑर होक्स’ सत्र में दिए गए व्याख्यान का डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद)
जावेद साहिब ने याद दिलाया," उसी क्षण मैंने महसूस किया कि एक और खासियत है जो मुझमें और आधुनिक युग के गुरुओं में समान रूप से मौज़ूद है. मैं फिल्मों के लिए काम करता हूं. हममें काफी कुछ एक जैसा है. हम दोनों ही सपने बेचते हैं, हम दोनों ही भ्रम-जाल रचते हैं, हम दोनों ही छवियां निर्मित करते हैं. लेकिन एक फर्क़ भी है. तीन घण्टों के बाद हम कहते हैं – “दी एण्ड, खेल खत्म! अपने यथार्थ में लौट जाइए.” वे ऐसा नहीं करते."
उन्होंने यह भी कहा,'कोई ताज़्ज़ुब नहीं कि पुणे में एक आश्रम है, मैं भी वहां जाया करता था. मुझे वक्तृत्व कला अच्छी लगती थी. सभा कक्ष के बाहर एक सूचना पट्टिका लगी हुई थी: “अपने जूते और दिमाग बाहर छोड़ कर आएं”.
"आप ज़रा दुनिया का नक्शा उठाइए और ऐसी जगहों को चिह्नित कीजिए जो अत्यधिक धार्मिक हैं -चाहे भारत में या भारत के बाहर- एशिया, लातिन अमरीका, यूरोप.... कहीं भी. आप पाएंगे कि जहां-जहां धर्म का आधिक्य है वहीं-वहीं मानव अधिकारों का अभाव है, दमन है. सब जगह. हमारे मार्क्सवादी मित्र कहा करते थे कि धर्म गरीबों की अफीम है, दमित की कराह है. मैं उस बहस में नहीं पड़ना चाहता. लेकिन आजकल आध्यात्मिकता अवश्य ही अमीरों की ट्रांक्विलाइज़र है."
"आप जानते हैं कि कामयाबी-नाकामयाबी भी सापेक्ष होती है. कोई रिक्शा वाला अगर फुटपाथ पर जुआ खेले और सौ रुपये जीत जाए तो अपने आप को कामयाब समझने लगेगा, और कोई बड़े व्यावसायिक घराने का व्यक्ति अगर तीन करोड भी कमा ले, लेकिन उसका भाई खरबपति हो, तो वो अपने आप को नाकामयाब समझेगा. तो, यह जो अमीर लेकिन नाकामयाब इंसान है, यह क्या करता है? उसे तलाश होती है एक ऐसे गुरु की जो उससे कहे कि “कौन कहता है कि तुम नाकामयाब हो?"
और भी लोग हैं. ऐसे जिन्हें यकायक कोई आघात लगता है. किसी का बच्चा चल बसता है, किसी की पत्नी गुज़र जाती है. किसी का पति नहीं रहता. या उनकी सम्पत्ति नष्ट हो जाती है, व्यवसाय खत्म हो जाता है. कुछ न कुछ ऐसा होता है कि उनके मुंह से निकल पड़ता है: “आखिर मेरे ही साथ ऐसा क्यों हुआ?” किससे पूछ सकते हैं ये लोग यह सवाल? ये जाते हैं गुरु के पास. और गुरु इन्हें कहता है कि “यही तो है कर्म. लेकिन एक और दुनिया है जहां मैं तुम्हें ले जा सकता हूं, अगर तुम मेरा अनुगमन करो. वहां कोई पीड़ा नहीं है. वहां मृत्यु नहीं है. वहां है अमरत्व. वहां केवल सुख ही सुख है”. तो इन सारी दुखी आत्माओं से यह गुरु कहता है कि “मेरे पीछे आओ, मैं तुम्हें स्वर्ग में ले चलता हूं जहां कोई कष्ट नहीं है”. आप मुझे क्षमा करें, यह बात निराशाजनक लग सकती है लेकिन सत्य है, कि ऐसा कोई स्वर्ग नहीं है. ज़िन्दगी में हमेशा थोड़ा दर्द रहेगा, कुछ आघात लगेंगे, हार की सम्भावनाएं रहेंगी. लेकिन उन्हें थोड़ा सुकून मिलता है.
और जिस बात पर मुझे ताज़्ज़ुब होता है, और जिससे मेरी आशंकाओं की पुष्टि भी होती है वह यह कि ये तमाम ज्ञानी लोग, जो कॉस्मिक सत्य, ब्रह्माण्डीय सत्य को जान चुके हैं, इनमें से कोई भी किसी सत्ता की मुखालिफत नहीं करता. इनमें से कोई सत्ता या सुविधा सम्पन्न वर्ग के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द नहीं करता. दान ठीक है, लेकिन वह भी तभी जब कि उसे प्रतिष्ठान और सत्ता की स्वीकृति हो. लेकिन आप मुझे बताइये कि कौन है ऐसा गुरु जो बेचारे दलितों को उन मंदिरों तक ले गया हो जिनके द्वार अब भी उनके लिए बन्द हैं? मैं ऐसे किसी गुरु का नाम जानना चाहता हूं जो आदिवासियों के अधिकारों के लिए ठेकेदारों से लड़ा हो. मुझे आप ऐसे गुरु का नाम बताएं जिसने गुजरात के पीड़ितों के बारे में बात की हो और उनके सहायता शिविरों में गया हो. ये सब भी तो आखिर इंसान हैं. जावेद जी ने बहुत कुछ और भी कहा है जिसे आप तभी जान पायेंगे अगर आप इसे पूरा पढेंगे. पूरा पढने के लिए यहां क्लिक करें.
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