आये दिन ‘गो-वध बन्द हो’ का नारा लगता है। धर्माचार्यों के अनशन और लाखों रूपये के चन्दे इसी के नाम पर होते हैं। इन सबका परिणाम केवल इतना निकला है कि यदि सन् 1942 में 17,000 गायें नित्य दिन कटती थीं तो आज उनकी संख्या 50,000 तक पहुंच चुकी है। विचारणीय है कि क्या गाय हमारा धर्म है ?क्या इसके समर्थन में हमारे पूर्वजों ने वेद, गीता और रामचरितमानस-जैसे आर्षग्रन्थों में कुछ कहा है ? यदि नहीं कहा तो यह एक धोखा है। इससे हम सबको सतर्क हो जाना चाहिए।
गाय को धर्म मानने का दुष्परिणाम समूचे भारत को भोगना पड़ा है। गाय की ओट से निशाना लेकर मुट्ठीभर तुर्कों ने वीर राजपूतों को उनके ही देश में हरा दिया। अंग्रेजों ने हिन्दू और मुसलामानों में फूट डालने के लिए इसी गाय को साधन बनाया। स्वतंत्र भारत के साम्प्रदायिक दंगों के पीछे गाय कहीं-न-कहीं अवश्य रहती है। इस पागलपन के पीछे अवधारणा यह है कि गाय हमारा धर्म है, किन्तु क्या आप इसके समर्थन में प्रमाण दे सकते हैं?इस सवाल को उठाने कि हिम्मत दिखाई है स्वामी अड़गड़ानन्द ने जिन्हें एक सिद्ध और क्रांतिकारी संत की ख्याति प्राप्त है.इन विचारों को विस्फोट डाट कॉम ने भी प्रमुखता से प्रकाशित किया है और भोपाल रिपोर्टर ने भी.आप इस ख़ास लेख को पूरा पढ़ने के लिए इन दोनों में से किसी भी एक लिंक पर चटखा लगा सकते हैं. हालांकि सवामी अड़गड़ानन्द भी अपने विचारों के लिए बहुत लोकप्रिय हैं. बड़े बड़े लोग उनके दर्शन करने आते हैं.लेकिन गौमाता की अवधारणा भी बहुत पुरानी है. गीता प्रैस की जानीमानी पत्रिका कल्याण ने 1946 में प्रकाशित एक विशेष लेख में स्पष्ट कहा गया था कि आज का भौतिक विज्ञान गौवंश कि उस सुक्ष्मातिसुक्ष्म धर्मोत्कृष्ट उपयोगिता का पता ही नहीं लगा सकता. गौ रक्षा यहां हमेशां ही एक भावुक मुद्दा रहा है.गौरतलब है कि 1760 में राबर्ट क्लीव ने कोलकाता में पहला कसाईखाना खोला था..स्वतन्त्रता के समय 300 से कुछ अधिक थीं लेकिन अब यह गिनती हजारों में है. आप इस मुद्दे पर क्या सोचते हैं...? अपने विचार हमें अवश्य भेजें....! --रेक्टर कथूरिया
1 comment:
bhavanaa ke sath likh gaya lekh. dhanyvaad. maine gaay ki durdasha par ek upanyaas likha hai-''kamdhenu ki vyathaa'' aapke lekh se kuchh nai jankari mili .
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