Shikha VARSHNEY अपने बारे में बहुत ही सादगी से कहती जो भी कहती है वह तथ्यों पर आधारित है और उसके संघर्ष और मेहनत कि सारी कहानी भी बताता है: लीजिये आप भी देखिये.अपने बारे में कुछ कहना कुछ लोगों के लिए बहुत आसान होता है, तो कुछ के लिए बहुत ही मुश्किल और मेरे जैसों के लिए तो नामुमकिन फिर भी अब यहाँ कुछ न कुछ तो लिखना ही पड़ेगा न, तो सुनिए. by qualification एक Journalist हूँ Moscow state university से गोल्ड मैडल के साथ TV Journalism में मास्टर्स करने के बाद कुछ समय एक टीवी चैनल में न्यूज़ प्रोड्यूसर के तौर पर काम किया ,हिंदी भाषा के साथ ही अंग्रेज़ी,और रूसी भाषा पर भी समान अधिकार है परन्तु खास लगाव अपनी मातृभाषा से ही है.खैर कुछ समय पत्रकारिता की और उसके बाद गृहस्थ जीवन में ऐसे रमे की सारी डिग्री और पत्रकारिता उसमें डुबा डालीं ,वो कहते हैं न की जो करो शिद्दत से करो पर लेखन के कीड़े इतनी जल्दी शांत थोड़े ही न होते हैं तो गाहे बगाहे काटते रहे और हम उन्हें एक डायरी में बंद करते रहे.फिर पहचान हुई इन्टरनेट से तो यहाँ कुछ गुणी जनों ने उकसाया तो हमारे सुप्त पड़े कीड़े फिर कुलबुलाने लगे और भगवान की दया से सराहे भी जाने लगे,कई "Poet of the month पुरस्कार भी मिल गए,और जी फिर हमने शुरू कर दी स्वतंत्र पत्रकारिता..तो अब कुछ फुर्सत की घड़ियों में लिखा हुआ कुछ ,यदा कदा हिंदी पत्र- पत्रिकाओं में छप जाता है और इस ब्लॉग के जरिये आप सब के आशीर्वचन मिल जाते हैं.और इस तरह हमारे अंदर की पत्रकार आत्मा तृप्त हो जाती है.तो जी बस यही है अपना परिचय. अब ज़रा देखिये दिवाकर झा का एक रंग. नयी दिल्ली में रह रहे दिवाकर कविता भी लिखते हैं और दूसरे क्षेत्रों में भी.
भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए,
भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए,
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक.
वो रुलाकर हंस न पाया देर तक,
वो रुलाकर हंस न पाया देर तक,
जब में रोकर मुस्कराया देर तक.
भूलना चाहा अगर उसको कभी,
और भी वो याद आया देर तक.
भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए,
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक.
गुण गुनाता जा रहा था इक फकीर,
धुप रहती है ना साया देर तक.
इसी तरह ही दिवाकर झा का एक और रंग है इसे भी देखिये न :
कभी कभी ज़िन्दगी में ज़िन्दगी से मुलाकात होती है,
कभी कभी दिल रोता है तो बरसात होती है
अकेले भीड़ में न छोड़ के जाओ मुझे दोस्तों
गुज़ारे हुए लम्हों से फिर कहाँ मूलकात होती है.
लोग चले जाते हैं, अल्फाज़ चले जाते हैं,
कुछ लम्हों के साये ज़िन्दगी भर तड़पाते हैं
मौका कहाँ होता है किसी को अपने पास लेन का,
बीती बातों में दुनिया गवाने को,
वक़्त की सुई से हम भी घूम जाते हैं,
कभी-कभी मौसम की तरह दोस्त भी बदल जाते हैं.
आपको यह विवरण कैसा लगा.....इसे बताना भूलें...! ...--रेक्टर कथूरिया
4 comments:
यहाँ मॉडरेशन है, इसलिये लँबी चौड़ी टिप्पणी नहीं, पर शिखा विषय को बहुत ही सुलझे ढँग से उठाती है ।
किसी मित्र के बताने पर यहाँ आई ..आपकी ये पोस्ट देख कर बहुत आश्चर्य हुआ ..माफ कीजियेगा पर मुझे यहाँ अपने परिचय का औचित्य नहीं समझ में आया ..
अरे मित्रों नवाज देवबंदी साहब की गजल में उनका जिक्र तो कर देते प्यारे..
महेन्द्र श्रीवास्तव जी,
आपके विचार "भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए, माँ ने फिर पानी पकाय...": पर प्रकाशित कर दिए गए हैं. आप ने लिखा है
अरे मित्रों नवाज देवबंदी साहब की गजल में उनका जिक्र तो कर देते प्यारे....!
महेंद्र जी यहाँ कभी भी रचनाकार का नाम जानबूझ कर नहीं छुपाया जाता. यदि किसी झ से भी आपको ऐसा लगा तो क्षमा चाहता हूँ.
कृपया देवबंदी साहिब की पूरी गजल और भी भेजें.
आपका अपना ही,
रेक्टर कथूरिया
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