Sunday, October 31, 2021

इंदिरा गांधी के बाद किस ने बदल डालीं आर्थिक नीतियां?

निजीकरण लाने से क्या संबंध था इंदिरा गांधी की हत्या का?


लुधियाना
: 30 अक्टूबर 2021: (पंजाब स्क्रीन डेस्क)::

जब सुश्री इंदिरा गांधी की हत्या की गई उन पलों पर बहुत कुछ लिखा गया। बहुत बार लिखा गया। बहुत बार दोहराया भी गया। लेकिन फिर भी किसी ने इस बात की चर्चा बड़े पैमाने पर नहीं की कि उस हत्या के बाद देश की नीतियों में बदलाव शुरू हो गया था। इस हत्या को सिख आतंक पर फोकस किया गया और सीमित भी रखा गया। जब हत्या हुई उस वक़्त उन पर इतनी गोलियां बरसाई गई कि बचने की कोई गुंजायश न रहे।  गोलियां चलते ही राष्ट्रीय मीडिया सहित विदेश मीडिया ने भी ज़ोरशोर से इसका प्रचार किया कि श्रीमती गाँधी के सिख सुरक्षाकर्मियों ने यह हरकत की। साथ ही बहुत सी भीड़ अस्पताल में भी एकत्र होनी शुरू हो गई। शाम को हत्या की औपचारिक और अधिकृत घोषणा भी कर दी गई। 

दिल्ली और बहुत से अन्य इलाकों में सिक्खों को गद्दार बताने वाले नारे लगाती भीड़ के ग्रुप सड़कों पर निकल ऐ। सिख्ख परिवारों को ढूंढ ढूंढ कर निशाना बनाया गया। हज़ारों सिक्खों को गले में टायर डाल डाल कर जला दिया गया।उनकी सम्पतियां जला कर रख कर दी गईं। बहु बेटियों की इज़्ज़तें लूटीं गईं। हज़ारों पुरुषों को वहिशयाना ढंग से कत्ल कर दिया गया। देश का कानून सोया रहा। देश के सुरक्षाबल मूक दर्शक बने रहे। नवनियुक्त प्रधानमंत्री राजीवगांधी बोले जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है। 

वास्तव में सुश्री गांधी की हत्या के बाद  हुआ बहुत कुछ ऐसा ड्रामा भी लगने लगा था जिससे अंतराष्ट्रीय समुदाय के दिल और दिमाग में यह बात इंजेक्ट कर दी गयी कि चूंकि सिक्खों ने ब्ल्यूस्टार ऑपरेशन का बदला लेने के लिए सिक्खों ने सुश्री इंदिरा गांधी की हत्या की थी उसीकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप भड़के हुए लोगों ने सिक्ख समुदाय से जुड़े लोगों की हत्या करदी। किसी ने नहीं बताया की  प्रशासन और सुरक्षा बल मूक दर्शक क्यूं  बने रहे?  को अवसर बनाने वाले लोग उन दिनों भी सक्रिय थे। उन्होंने उस राष्ट्रिय आपदा को बहुत ही सूक्ष्म ढंग से अवसर बनाने  हासिल कर ली थी। अफ़सोस कि कांग्रेस के लीडर उन पलों के इस पहलू पर कुछ नहीं बोलते। 

दुनिया भर के लोग इस सारे घटनाक्रम को सांस रोक कर देख/सुन रहे थे। मीडिया पर बंदिशें लगा दिन गईं थीं। अख़बारों की छपी हुई प्रतियों को ज़ब्त कर लिया गया था। दिल्ली से पंजाब पहुंचने वाली अख़बारों को हर शहर में बिक्री शुरू होने से पहले ही पुलिस की मदद से उठवा लिया गया था। इस सारे घटनाक्रम ने एक ही बात को प्रमुखता से उठाया और फैलाया कि सुरक्षा कर्मियों के वेश में सक्रिय सिक्ख आतंकियों ने प्रधानमंत्री की हत्या कर दी। सुरक्षा के मामले में विश्वासघात किया। किसी ने उस हत्या की ज़िम्मेदारी नहीं ली थी। 

हां खालिस्तानी संगठनों ने हत्यारों का गुणगान करके उन्हें बार बार महिममण्डित अवश्य किया। रागी सिंघों के जत्थों ने गर्म सुर वाले गुरुबाणी शब्दों का गायन शुरू कर दिया। श्री हरिमंदिर साहिब सहित बहुत से गुरुद्वारों में  शब्द पढ़े जाने लगे। ढाढी जत्थों ने इन हत्यारों को  नायक बना कर संगत के सामने रखा। आज भी उनकी याद मनाई जाती है। 

दुनिया भर ने यही समझा और माना कि सिक्ख कौम खतरनाक आतंकी कौम है जिसने प्रधानमंत्री तक को भी नहीं छोड़ा। उनदिनों इंटरनेट आम नहीं था। अगर था भी तो शायद केवल सेना ही इसका उपयोग कर पाती थी। लोग सरकारी मीडिया और और पारम्परिक प्रचार प्रसार साधनों पर ही निर्भर थे। एक बहुत बड़ा ड्रामा अंतराष्ट्रीय मंच पर खेला जा रहा था। तब भी आपदा को अवसर बनाया जा रहा था। इसके साथ ही असली बातें और असली मुद्दे छुपाए जा रहे थे। अंतराष्ट्रीय खिलाडियों को जो सही लगता था वही सामने लाया जा रहा था। साज़िशें आतंकवाद के प्रचार में ही छुप कर रह जातीं। 

जून-84 और नवंबर-84 के बाद पंजाब में खून खराबा ज़ोरों पर रहा। हर गली, हर गांव में दहशत। दूर दूर तक इसके छींटे पहुंचे। ट्रांज़िस्टर बम धमाके बहुत बड़ी घटना थी। पूर्व सेना प्रमुख जनरल अरुण श्रीधर वैद्य की हत्या हुई 10 अगस्त 1986 को। यह भी बहुत बड़ी घटना थी। इसी तरह 31 अगस्त 1995 को  पंजाब के सिवल सचिवालय चंडीगढ़ में तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या बहुत बड़ी घटना थी। कांग्रेस पार्टी के सक्रिय नेता और सांसद ललित माकन और उनकी पत्नी की हत्या 31 जुलाई 1985 को पश्चिमी दिल्ली के इलाके कीर्ति नगर में  स्थित उनकी रिहाइशगाह में जा कर कर दी गई। एक दशक से अधिक समय तक चले खूनखराबे पर नियंत्रण होना शुरू हुआ सन 1992 में। हालाँकि मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या 1995 में हुई लेकिन  माना जाता है  कि आतंकी संगठनों पर सुरक्षाबलों का हाथ सन 1992 में ही ऊपर होना शुरू हो गया था। इस सारे घटनाक्रम के साथ ही चल रहा था आपदा को अवसर बनाने खेल। चेहरे और थे लेकिन काम यही हो रहा था। कांग्रेस कभी इस बात पर चर्चा नहीं लकरटीओ कि  के बाद आर्थिक नीतियां क्यूँ बड़े पैमाने पर बदलने लगीं। 

डाक्टर मनमोहन सिंह की तरफ से तैयार सन 1991 का बजट कम महत्वपूर्ण नहीं था इस दिशा में।  पी वी नर सिम्हा राव को "भारतीय आर्थिक सुधारों का पितामह" और इस "धरती का महान सपूत" कहा जाने लगा था। बरस 1991 में शुरू हुआ यह सिलसिला सन 1992 तक उजागर भी होने लगा था। जनमानस भी बहुत हद तक इससे अवगत हो चूका था। तकरीबन काफी चर्चा होती थी इसकी हर रोज़। 

गैट समझौते में आर्थर डंकल की तजवीज़ों पर अटल बिहारी वाजपेयी साहिब ने भी एतराज़ किया था और जनता दल के रबी रेय ने कहा था ह ड्राफ्ट वास्तव में साम्राजयवाद और आर्थिक गुलामी का प्रतीक है। उन्होंने कहा कि यूं लगता है कि  भारत सरकार अमेरिका के दबाव में है।  इस ड्राफ्ट को स्वीकार करने का मतलब होगा कृषि और छोटी इंडस्ट्री की तबाही। 

वामदलों ने भी इस पर बहुत ज़ोरदार आवाज़ बुलंद की। फारवर्ड ब्लॉक के चित्तबसु ने इस पर काफी सख्त रुख था। सरकार ने विपक्षी दलों की वह मांग भी रद्द कर दी जिसमें कहा गया था कि  इस डंकल ड्राफ्ट का अध्यन करने के लिए संयुक्त संसदीय समिति बनाई जाए।  कामर्स मंत्री पी जे कुरियन ने विधायकों को यह आश्वासन अवश्य दिया कि अंतिम रूप दिया जाएगा तब इन सभी सुझावों को सरकार मन में रखेगी और कोशिश करेगी कि इस समझौते के वक़्त अधिक से अधिक फायदा उठाया जा सके। 

आर्थिक सुधारों के लिए चलीं इन खुलीं हवाओं ने पहले सोवियत संघ में भी अपना रंग दिखाया था। मिखाइल गोर्बाचोव के कार्यकाल ने जो रचा वह सभी को नहीं तो बहुतों को याद होगा। प्रेस्टरॉयका और ग्लास्तनोस्त ने भी अपने रंग बिखेरे। सोवियत यूनियन टुकड़े टुकड़े हो गया। एक महांशक्ति थी जिसने संतुलन बनाया हुआ था वह भी रस्ते से हट गई। भारत की बारी भी आनी ही थी। 

इंदिरा गांधी की शख्सियत का एक दबदबा था शायद उनके होते इन आर्थिक सुधारों को लागू करना नामुमकिन होता। अपने सिद्धांतों को छोड़े बिना अमेरिका जैसों से आंख मिलकर बात कर लेना उनके बाद शायद कभी सम्भव न हुआ। इंदिरा गाँधी के बाद देश समाजवाद को छोड़ कर पूंजीवाद की रह पर चल पड़ा। राष्ट्रीयकरण की नीति को पलटने का सिलसिला तेज़ हो गया। आखिर कांग्रेस और वाम इस पर खुल कर बोलते क्यूं नहीं? काश आज इंदिरा गांधी होती तो महंगाई को आसमान पर पहुंचने वाले लोगों पर अंकुश लगा रहता। कार्पोरेट कभी इतनी छूट प्राप्त न कर पाते। कौन करेगा इंदिरा जी के बाद की बात?

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