बिना किसी भाषा के दिखा रहा था ज़िन्दगी की तस्वीर को
लुधियाना: 14 अप्रैल 2019: (रेक्टर कथूरिया//पंजाब स्क्रीन)::
कभी बहुत पहले वर्ष 1955 में एक फिल्म आई थी--बारादरी। उसमें खुमार बारबंकवी साहिब का लिखा एक गीत बहुत मक़बूल हुआ था--
तसवीर बनाता हूँ, तसवीर नहीं बनती, तसवीर नहीं बनती
एक ख्वाब सा देखा है, ताबीर नहीं बनती, तसवीर नहीं बनती।
लोकप्रिय होने के बावजूद समझा जाता है कि यह गीत शायद सिर्फ उसी फिल्म तक सीमित था और 1955 को गुज़रे तो अब बहुत देर हो गई। कहा जाता है कि यह गीत भी बहुत पुराना हो गया लेकिन वास्तव में इस गीत का सच आज भी बिलकुल नया है। हम सब की ज़िन्दगी का सच। हमसे आज भी तस्वीर नहीं बनती। ख्वाब तो हम भी बहुत देखते हैं लेकिन ताबीर नहीं बनती। सारी सारी ज़िंदगी गुज़र जाती है सपनों को बुनते हुए लेकिन सब सपने टूट जाते हैं। सारी सारी उम्र हम मेहनत मुशक़्क़त जरते हैं लेकिन दाल रोटी का जुगाड़ नहीं बनता। ज़िन्दगी में प्रेम आता है लेकिन हम उसे भी गंवा बैठते हैं। न तो कोई बात बन पाती है, न ही ज़िंदगी और पूरी उम्र इसी तरह नाकामियों का दंश झेलते हुए गुज़र जाती है। और हम गीत गा गा कर खुद को तसल्लियाँ दे लेते हैं--
बर्बादियों का सोग मनाना फ़िज़ूल था-
बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया!
हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया!
यह न समझना कि यह हालत केवल उनकी है जिनके पास पैसे की कमी है। जिनके पास बहुत पैसा है उनका जीवन भी बेहद खोखला है। वे कभी उसे शराब में डुबाते हैं और कभी शबाब में लेकिन कड़वा सत्य फिर भी वही रहता है--तस्वीर बनाता हूँ---तस्वीर नहीं बनती।
इस सच को कभी राजकपूर साहिब ने दिखाया था-मेरा नाम जोकर में। उन्हें बहुत सदमा भी लगा क्यूंकि उनकी एक शानदार फिल्म नाकाम हो गई थी। लगा था कि शायद उस युग के दर्शक समझदार नहीं थे। लेकिन हालत आज भी यही है।
पंजाबी भवन के बलराज साहनी ओपन एयर थिएटर में पंजाब स्क्रीन टीम को बेहद हैरानी हुई कि यहाँ इतने ज़्यादा दर्शक कैसे मौजूद हैं। हैरानी थी कि इतने दर्शक तो सपना चौधरी की इवेंट में भी मौजूद नहीं थे। उस संख्या को देख कर उम्मीद जगी की शायद हम समझदार हो रहे हैं।
उस रात को एक नाटक का मंचन था। नाम था--सी फॉर क्लाऊन। इसे खेला गया था बिहाईव थिएटर एसोसिएशन (रजि.) की तरफ से। नाटक में एक भी डायलॉग नहीं था। शायद ऐसी कोई भाषा भी नहीं जिसे हम नाम दे सकें। जैसे हम पूर्व में रहें या पश्चिम में। उत्तर में रहें या दक्षिण में। हमारे दुःख सुख एक जैसे होते हैं। हमारी भाषा एक नहीं होती लेकिन फिर भी हम सब समझ जाते हैं। हम दुसरे का दुःख देख कर नज़र अंदाज़ भी करते हैं--मज़ाक भी उड़ाते हैं और कभी कभी दुःख को बांटते भी हैं। बिना किसी भाषा को जाने। कभी कभी तो हम वो सब भी सुन लेते हैं जिसे किसी ने कहा ही नहीं होता। इसी तरह वह सब भी कहते रहते हैं जिसे कभी सुना ही नहीं जाता। शायद यही होती है संवेदना के जाग जाने की चरम स्थिति जो हमें मानवता से परिचित करवाती है। इसके बावजूद ज़िन्दगी एक शोरगुल रह जाती है। एक ऐसा शोर जो शायद दुनिया के हर कोने में मौजूद होगा। हर भाषा में मौजूद होगा। वही शोर पंजाबी भवन में खेले गए नाटक की भाषा थी। हो हो-हा हा। अदाकारों के एक्शन इस शोर का अर्थ समझाते हैं। ज़िंदगी की तरह आखिर में बात इस नाटक में भी रोटी पर आ जाती है। रोटी एक और भूख से बिलबिलाते कलाकार अनेक। नाटक का निदेशक सिकंदर यहाँ कमाल के अंदाज़ में एंट्री करता है। आँखों ही आँखों में उस एक रोटी को अच्छी तरह से नापने तोलने के बाद वह एक एक टुकड़ा हर कलाकार के मुँह में डालता जाता है। एक मां की तरह।
इसका अहसास तब होता है जब इप्टा के पुराने सदस्य प्रदीप शर्मा नाटक के अंत में कलाकारों को हौंसला देते हैं और कहते हैं कि थिएटर ही कलाकारों की मां होती है और कोई भी संतान अपनी मां को छोड़ कर कभी नहीं जा सकती। कहीं नहीं जा सकती। उन्होंने समाज को भी आह्वान किया कि वह कलाकारों की सहायता के लिए आगे आये। यही अपील कुछ अन्य कलाकारों ने भी की।
1 comment:
Very good don't forget it the life is soundless really story. Dr. Bharat First Investigation Bureau
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