पंजाब कला परिषद ने आयोजित की आर्य कालेज में यह प्रदर्शनी
लुधियाना: 23 जनवरी 2019 (रेक्टर कथूरिया//पंजाब स्क्रीन)::
बरसों पहले सन 1955 में एक फिल्म आई थी--बारांदरी। इस फिल्म का एक गीत था:
तस्वीर बनाता हूं; तस्वीर नहीं बनती!
इक ख्वाब सा देखा है; ताबीर नहीं बनती!
दशकों तक यह गीत लोगों के दिलों हुए दिमागों पर छाया रहा। बरसों तक उन लोगों की मनोस्थिति को व्यक्त करता रहा जिनसे न तो अपने ख्यालों की तस्वीर बन पा रही थी और न ही देखे हुए ख्वाबों को ताबीर समझ आ रही थी। इसी बीच बहुत सी अच्छी तस्वीरें भी सामने आईं और पेंटिंग्स भी जिन्हें देख कर लगा था कि शायद तस्वीर बन सकती है। शायद अपने किसी ख़्वाब की ताबीर भी समझ में आ सकती है। कैमरे और चित्रकारी के बहुत से फनकार भी सामने आते रहे। फिर शुरू हुआ शोर-शराबे और भागदौड़ का व्यवसायिक युग। पैसे का वह युग जिसमें एक पुरानी कहावत ज़ोरशोर से सत्य होने लगी कि बाप बड़ा न भईया-सबसे बड़ा रुपईया!
इस युग में जज़्बात भी लुप्त होने लगे और संवेदना भी। न किसी ख़्वाब का कोई मूल्य रहा न ही किसी ताबीर की ज़रूरत। तस्वीर तो बस ड्राईंग रूम में लटकाने की ही ज़रूरत रह गयी। महज़ एक डेकोरेशन पीस। इसके बावजूद कुछ संवेदनशील लोग हमारे दरम्यान मौजूद रहे। बहुत से कलाकार भी मुनाफे की अंधी चाहत से बचे रहे। यही वे कलाकार थे जो लोगों के ख्यालों की तस्वीर बनाते रहे वह भी बिना किसी मुनाफे की अपेक्षा के। यही वे लोग थे जो लोगों को उनके देखे ख्वाबों की ताबीर भी समझाते रहे।
इसका अहसास हुआ आर्य कालेज में लगी तस्वीरों की एक यादगारी प्रदर्शनी को देख कर। इस आयोजन में लोगों को लगा कि यह तो हमारी ही तस्वीर है। हमारे घर की तस्वीर। हमारे गाँव की तस्वीर। हमारे बचपन की तस्वीर। हमारे सपनों की तस्वीर। हमारे ख्वाबों की ताबीर।
आम, साधारण, गरीब और गुमनाम से लोगों को इन यादगारी तस्वीरों में उतारा हमारे आज के युग के सक्रिय फोटोग्राफर रविन्द्र रवि ने। वही रवि जिसे आप पंजाबी भवन में पंक्षियों के पीछे भाग भाग कर तस्वीरें उतारते देख सकते हैं। फूलों की खूबसूरती को कैमरे में कैद करते हुए देख सकते हैं। फूलों के साथ तितलियों और भंवरों की वार्तालाप को कैमरे के ज़रिये सुनने का प्रयास करते हुए देख सकते हैं।
उस समय रवि के चेहरे पर जो रंग होता है वह रंग किसी साधना में बैठे साधक के रंग की याद दिलाता है। किसी अलौकिक शक्ति से जुड़े समाधि में लीन किसी असली संत के चेहरे पर नज़र आते नूर की याद दिलाता है। काम में डूबना क्या होता है इसे रवि का काम देख समझा जा सकता है। सभी अपनी बातों में या खाने पीने में मग्न होते हैं उस समय रवि अपने कैमरे से या तो प्राकृति से बात कर रहा होते है या फिर किसी ख्वाबों की ताबीर को किसी कैमरे में उतार रहा होता है।
इस प्रदर्शनी में रवि की फोटोग्राफी के सभी रंग थे। इन रंगों में जो रंग सब से अधिक उभर कर सामने आया वह रंग था बन्जारों की ज़िंदगी का रंग। गांव की ज़िंदगी का रंग। ममता का रंग। जागती आंखों से देखे जाने वाले रंग। उन सपनों के टूटने से पैदा होते दर्द का रंग। कुल मिला कर यह ज़िंदगी का इंद्र धनुष था। जिसमें दर्द का रंग भी नज़र ा रहा था और ख़ुशी का रंग भी। किस किस को किस किस तस्वीर का रंग अच्छ लगा इसकी चर्चा हम अलग पोस्ट में कर रहे हैं।
2 comments:
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