अब लुधियाना में भी होगा बकरे के खून से थैलासीमिक बच्चों का ईलाज
लुधियाना: 29 अगस्त 2018: (पंजाब स्क्रीन टीम)::
पूंजीवाद के दौर में मुनाफा सबसे पहले आता है। बाप बड़ा न भैया-सबसे बड़ा रूपया। वो रुपया किसी का खूबसूरत चेहरा दिखा कर आए या फिर उसके आंसू दिखा कर--उसे बहुत गर्वपूर्ण कमाई समझा जाता है। शिक्षा, वकालत, गीत-संगीत, अभिनय, लेखन, मीडिया और अन्य क्षेत्रों के साथ साथ मेडिकल क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं बचा। पहले पहल होम्योपैथी और आयुर्वेद को सस्ता इलाज समझा जाता था लेकिन अब बहुत से लोग इन क्षेत्रों में भी कमाई को पहल देने लगे हैं। इसके बावजूद आयुर्वेद में अभी भी आशाएं बाकी हैं।
इसका अहसास हुआ जब करीब तीन वर्ष पूर्ण अहमदाबाद (गुजरात) के डाक्टर अतुल भवसार से बात करवाई लुधियाना के लवली जैन ने। उन्होंने बताया कि थैलेसीमिया के बच्चों को बकरे का खून भी चढ़या जा सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि गुजरात में सफलता के बाद अब पंजाब में भी इस तजर्बे की तैयारी है। सुन कर यकीन नहीं हुआ। इस योजना का विरोध भी बड़े पैमाने पर हुआ। यह तो लवली जैन की हिम्मत कहो कि यह अभियान जारी रहा।
उन दिनों गुजरात से लुधियाना आए डॉ.अतुल भावसर ने बताया था कि थेलेसीमिया के मरीजों के लिए इंसान की वजाए बकरे का खून ज्यदा फयेदेमंद है। गुजरात के शहर अहमदाबाद स्थित अखंडानंद आयुर्वेद अस्पताल के पंचकर्मा डिपार्टमेंट के हेड डॉ. भावसर ने कहा के थेलेसीमिया से पीड़ित बच्चों को हर 15-20 दिन बाद ब्लड चढ़ाना पड़ता है क्योंकि इस बीमारी की वजह से ब्लड के आरबीसी (रेड ब्लड सेल) तेजी से टूटते है। जिस कारण मरीज में हिमोग्लोबिन की कमी हो जाती है। थेलेसीमिया के मरीजों के लिए उन्होंने एक नई खोज की है। जिसके तहत बकरे का खून चढ़ाने पर मरीज को 15 -20 दिन की बजाय दो महीने बाद ही ब्लड चढ़ाने की जरुरत पड़ती है। कई मरीजों को 5 महीने बाद ही खून चढ़ाने की जरुरत पडती है। इसका कारण यह है कि बकरे के खून के आरबीसी जल्दी नहीं टूटते। जिससे मरीज में ज्यादा समय तक हीमोग्लोबिन की मात्रा सही बनी रहती है। डॉ. भावसर ने दावा किया कि इस भयंकर बीमारी से निपटने की कैपेसिटी एलोपैथी के मुकाबले आयुर्वेद में ज्यादा है। थेलेसीमिया में बकरे के खून के इस्तेमाल की पद्धति को गुजरात सरकार ने मान्यता दे दी है। इस पद्धति में मरीज को खून वेन की बजाय एनिमिया के जरिए बड़ी आंत तक पहुंचाया जाता है। यह आंत जरुरत के मुताबिक खून को लेने के बाद बाकी बाहर निकाल देती है। सोसायटी के प्रधान लवली जैन जुटे रहे। थैलेसीमिया के लिए काम करने वाले उनके बहुत से मित्र भी उन्हें छोड़ गए लेकिन लवली जैन का मनोबल नहीं टूटा।
कभी किसी वीआईपी से--कभी किसी मंत्री से--कभी किसी मीडिया से--जब भी मिलते बस यही गुहार लगाते-इन बच्चों का कुछ करो। गौरतलब है कि लवली जैन खुद शरीरक तौर पर बहुत मुश्किल से उठ बैठ सकते हैं। इस अक्षमता के बावजूद वह हर पल डटे रहे। हर वक यही सोचते-इन बच्चों को बचाना है। सबके पास अंग्रेजी इलाज पर खर्चा आनेवाला पैसा नहीं है। इसलिए इन पर डाक्टर भवसार का सफल प्रयोग लागू करना होगा। जो फायदा गुजरात के लोगों को मिला वही फायदा पंजाब-हरियाणा-हिमाचल-जम्मू कश्मीर और आसपास के लोगों को भी मिलना चाहिए।
आखिर लवली जैन का जनून रंग लाया। लुधियाना में थैलसीमिक बच्चों को बकरी या बकरे के खून से ईलाज उपलब्ध करने वाला अस्पताल बन कर तैयार हो चुका है। बहुत ही मेहनती स्टाफ। इन बच्चों के लिए डेडिकेटिड स्टाफ। लगता है है अब उन परिवारों की भी सुनी गयी है जो हर दो सप्ताह बाद खून चढ़ाने का खर्चा वहन नहीं कर सकते।
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