गांव गांव में ज़रूरत है ऐसे आयोजनों की तांकि भाषा का सौहार्द बना रहे
चंडीगढ़//लुधियाना: 9 नवंबर 2017: (कार्तिका//पंजाब स्क्रीन)::
खुद से सवाल करती कि क्या सचमुच सिख धर्म के संस्थापक गुरु साहिबान संस्कृत और फारसी का भी सम्मान करते थे? अगर यह सच है तो उन्हें मानने वाले हिंदी पर कालख क्यों पोतना कहते हैं? बहुत गुस्सा आता उन लोगों पर भी जिनको हिंदी नहीं आती थी लेकिन पंजाबी सूबा के समय समय जिन्होंने पंजाबी में बोल बोल कर कि लिखो हमारी मातृ भाषा हिंदी है। हिंदी पंजाबी और अन्य भाषाओं के दरम्यान जिस पुल की बात मैं सोच रही थी वह मुझे अपनी कल्पना ही लगता। महसूस होता यह कभी साकार नहीं होगी। मुझे लगता कि बस शायद यहां सियासत ही जीत सकती है और न कोई सिद्धांत-न कोई धर्म और और न कोई विचार।
इसी निराशा में एक दिन पता चला कि चंडीगढ़ में अखिल भारतीय महिला कवि सम्मेलन हो रहा है। जाने की इच्छा भी थी लेकिन कालेज के टेस्ट और कुछ अन्य समस्याएं आड़े आ रही हैं। जब विस्तार से जानकारी ली तो पता चला कि हर पंजाबी शायरा को अपनी पंजाबी रचना के साथ साथ हिंदी अनुवाद भी बोलना है। यह जान कर न जा पाने का दुःख भी हुआ। पता चला कि इस आयोजन में भाग लेने के लिए तकरीबन 300 महिला शायर भाग लेंगीं। यह जानकारी चंडीगढ़ में आल इंडिया पोइटिस कांफ्रेस के संस्थापक डा. लारी आज़ाद ने एक पत्रकार सम्मेलन में दी। डा. लारी आज़ाद ने वास्तव में दुनिया देखी है। सियासत की भी और साहित्य की भी। मोहमद अकरम लारी ने सत्तर के दशक में भरतीय धर्मों और सियासत पर बहुत सी पुस्तकें भी लिखीं हैं। वह बहुत सी वशिष्ठ पत्रिकाओं का सम्पादन भी करते हैं। इसलिए भारत में धर्म-सियासत और भाषा की वास्तविक स्थिति को भी बहुत अच्छी तरह से समझते हैं। इस संगठन के पास आठ हज़ार प्रमुख महिलाएं पंजीकृत है जिनमें से कोई शायरा है, कोई लेखिका, कोई कलाकार, कोई टीवी पर, कोई रेडियो पर और कोई किसी अन्य में। इनमें कई प्रमुख लोगों से भेंट होती, उनसे मिलने का अवसर मिलता। अब भी कोशिश रहेगी।
कुल मिला कर प्रसन्नता की बात है कि यह एक ऐसा मंच है जिसे आधार बना कर पंजाबी के पुल हिंदी और अन्य भारतीय भाषायों से जोड़े जा सकते हैं। सलाम है ऐसे आयोजन को। सलाम है इसके आयोजकों को। इस तरह के आयोजन होते रहें और विभिन्न भाषाओं के लेखक और कलाकार अलग अलग प्रदेशों और संस्कृतियों को आपस में जोड़ने के सफल प्रयास करते रहें। समाज जुड़ा रहे इसकी उम्मीद अब कलमकारों से ही बची है। इस तरह के आयोजनों की आज सबसे अधिक ज़रूरत हैं। केवल राज्यों की राजधानियों में ही नहीं बल्कि गांव गांव में इनकी ज़रुरत है। आखिर में एक बार फिर सलाम। कवरेज के लिए एक बार अवश्य जाना होगा इस आयोजन में, बाकी की बातें फिर कभी सही। किसी अगली पोस्ट में। -कार्तिका (लुधियाना)
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