Monday, July 10, 2017

मीडिया में अब की स्थिति इमरजेंसी से ज़्यादा खतरनाक?

आपातकाल, मीडिया और मौजूदा स्थिति के विषय पर हुयी विचार चर्चा 
लुधियाना: 10 जुलाई 2017: (पंजाब स्क्रीन ब्यूरो):: More Pics on Facebook
आपातकाल का वो दौर बहुत से लोगों को आज भी याद है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरागांधी के विरोधी आज भी उस दौर को काले दिनों का दौर कह कर याद करते हैं। मीडिया पर लगाई गई सेंसरशिप को लेकर आज भी बहुत कुछ कहा सुना जाता है। लेकिन अब तो कोई इमरजेंसी नहीं हैं। अब कोई सेंसरशिप भी नहीं है। इस खुले माहौल के बावजूद भी लोग बहुत सी खबरें अपने अपने इलाकों में घटित होती तो देखते हैं लेकिन वे कभी मीडिया में नहीं पहुंचती। जब सोशल मीडिया इस फैलता है तो इसे अफवाह बताने के प्रयास किये जाते हैं। कारपोरेट मीडिया के युग में यह कैसा श्राप है। क्या इमरजेंसी ज़्यादा खतरनाक थी या यह दौर? आखिर इस दौर को क्या नाम दिया जाये? 
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कारपोरेट युग के इस दौर में पैदा हुए हालात के दौरान जो स्थिति बनी है वह वास्तव में इमरजेंसी के दौर से भी ज़्यादा खतरनाक है। यह विचार "जन मीडिया मंच" (पीपुल्ज़ मीडिया लिंक) की तरह से आयोजित एक विचारगोष्ठी में खुल कर सामने आया। यह आयोजन मीडिया और आम लोगों के हालात से सबंधित शुरू किये गए सिलसिले के अंतर्गत कियागया था। इस अवसर पर शहीद भगत सिंह के भान्जे प्रोफेसर जगमोहन सिंह, प्रसिद्ध स्तम्भकार और ई एन टी स्पेशलिस्ट डाक्टर अरुण मित्रा, वाम नेता कमरेड रमेश रतन बेलन ब्रिगेड सुप्रीमो अनीता शर्मा प्रधानगी मंडल में सुसज्जित थे। 
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पत्रकार गुरप्रीत महदूदां (जी जी न्यूज़), अरुण कौशल (पब्लिक व्यूज़), एडवोकेट श्रीपाल शर्मा, सतीश सचदेवा व  गुरमल मैंडले (नवां ज़माना), इंद्रजीत सिंह (सत समुन्द्रों पार), कैनेडा से आये जानेमाने तर्कशील कार्यकर्ता-गुरमेल सिंह गिल और पंजाब में सक्रिय जसवंत जीरख, ओंकार सिंह पुरी (दिल्ली टाईम्ज़ न्यूज़), डाक्टर भारत (ऐफ आई बी मीडिया), रेक्टर कथूरिया (पंजाब स्क्रीन) ने अपने अपने अनुभवों के आधार पर बताया कि  आज की स्थिति कितनी भयानक है। मीडिया के लिए ईमानदारी से काम करने वाले बहुत से पत्रकार आज भी ज़िंदगी की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनकी मेहनत से तैयार की गयीं खबरों को कारपोरेट मीडिया में जगह नहीं मिलती। बहुत सी सच्ची खबरें न तो अब अख़बारों में आती हैं और न ही टीवी चैनलों में। आखिर उनको कौन सी अदृश्य शक्ति रोक देती है। इस विषय पर विस्तृत बहस की भी आवश्यकता है और इस रोहजान को रोकने के लिए समांनांतर जन मीडिया को मजबुत बनाना भी आवश्यक है। इस अवसर पर कई जन समर्थक मीडिया संगठनों की प्रशंसा भी की गयी।
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डाक्टर अरुण मित्रा ने कहा कि  मौजूदा स्थिति बहुत ही खतनाक है और इसके खिलाफ आवाज़ उठाना हमारा सभी का कर्तव्य है। उन्होंने कहा कि  आज हाँ संख्या में कम हैं लेकिन इस तरह के कम लोगों से ज़्यादा बड़े काफिले बनते हैं। आपातकाल की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि अगर इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगाई तो उसने इसका ख़मयाज़ा भी भुगता और वह बुरी तरह से हार भी गयी लेकिन जो अघोषित आपातकाल आज चल रहा है वह ज़ुडा भयानक है। इसे भी लोग ज़्यादा देर तक चलने नहीं देंगें। इसके संचालकों भी इसका खामियाज़ा भुगतना ही पड़ेगा।  हां यह बात अलग है इस मकसद के लिए मीडिया साथ सिवल सोसायटी और सियासतदानों  मेहनत करनी पड़ेगी। मीडिया  अपनी कारगुज़ारी और बेहतर बनाने पर ज़ोर देते हुए उन्होंने कहा कि जैसे नहं डाक्टरों को हर पांच वर्ष बाद अपनी डिग्री रिन्यू करानी पड़ती है इसके लिए बाकायदा सी एम ई अटेंड करनी पड़ती हैं। इसी तरह पत्रकारों को भी अपनी कला और कलम की धार तेज़ रखने के लिए खुद फील्ड में जाने के प्रयास करते रहना चाहियें। इससे उनमें और  निखार आएगा। 
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प्रोफेसर जगमोहन सिंह ने इस अवसर पर मीडिया से बात करते हुए कहा कि लोगों की तकलीफों की बात प्रशासन तक नहीं पहुंच रही इस लिए पीपुल्ज़ मीडिया लिंक बनाया गया है तांकि जन समर्थक लेखकों का एक सक्रिय ग्रुप बनाया जा सके। श्रोताओं को सम्बोधित हुए उन्होंने कहा कि इमरजेंसी में लोगों की ज़ुबानबन्दी के साथ साथ सोच भी बंद कर दी गयी थी लेकिन अब की स्थिति ज़्यादा भयानक है। उन्होंने शहीद भगत सिंह के समय की पत्रकारिता कर कुर्बानियों की भी याद दिलाई।
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मैडम अनीता शर्मा ने जन समर्थक पत्रकारों की वित्तीय स्थिति और आत्महत्यायों का ज़िक्र करते हुए कि हमें ऐसे कीमती पत्रकारों को बचने के लिए को भलाई संगठन बनाना चाहिए जो इस तरफ निरतंर उचित ध्यान दे सके दे।    More Pics on Facebook 
कामरेड रमेश रतन ने कहा कि स्थापित संस्थागत मीडिया से टक्क्र लेना कोई व्यक्तिगत तौर पर न तो सम्भव है और न ही आसान। उन्होंने इस विषय पर और भी बहुत कुछ विस्तार से कहा। 
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मंच संचालन करते हुए प्रदीप शर्मा इप्टा ने ऐसी बहुत सी घटनाएं बतायीं जो आज के बेबस हालात पर रौशनी डालती थीं। अंत में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि हमें जन समर्थक मीडिया को मज़बूत बनाने के साथ साथ सोशल मीडिया के ज़रिये भी प्रामाणिक सच बाहर लाते रहना है तांकि वास्तविक और मत्वपूर्ण खबरें छुपाने या बिगाड़ने वाले पूंजीवादी मीडिया की साज़िशों का मुकाबिला किया जा सके। 
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