याद और सम्मान समय और सियासत के मोहरे नही होते
--दमोह से नूतन पटेरिया
आज का दिन भारत के लोकतन्त्र के इतिहास में दुख बेदना और शर्मिंदगी का दिन है ।इस दिन हमारे देश की प्रधानमन्त्री ही नही हमारे गौरव विश्वास और धर्मनिपेक्षता की भी हत्या हुई थी। राष्ट्र् हमेशा त्याग और बलिदान की नीव पर अवलम्बित होता है इस नीव में दफन है तीन गांधियो का बलिदान। इसी बलिदान परम्परा की कड़ी है इंदिरा जी। एक ही मेहनत, कड़ी मेहनत, दूर दृष्टि पक्का इरादा, अनुशासन को जीवन का मूल मन्त्र बनाने वाली इंदिरा जी की पारिवारिक पृष्ठभूमि से सब परिचित है। इस साहसी और दबंग व्यक्तित्व में भी भारी उतार चढ़ाव और दुःख की वेदना देखी पर राष्ट्र हित के आगे इंदिरा जी इन बाधाओ को भी नकार कर सदैव दृढ़ता का परिचय दिया। दुनिया के ग्लोब पर नए राष्ट्र की रचना करने वाली इंदिरा जी राष्ट की अखण्डता की रक्षा करते हुये बलिदान हो गई। अपनी म्रत्यु का पूर्वाभास करने वाली इस महान नारी ने अपने अंतिम भाषण में मौत को भी स्वागत भाषण बना दिया।
आज राष्ट्र् सियासती दाव पेचो में उलझा है उस महान नारी के बलिदान को यथोचित सम्मान हासिल नही है अन्यथा आज सोशल मीडिया पर इंदिरा गांधी के सिवाय अन्य विषय न होता। लेकिन याद और सम्मान समय और सियासत के मोहरे नही होते इंदिरा भारत के दिलो में रहती है वो आज भी याद आती है जब निर्णय का दोराहा होता है। हम नत मस्तक है उस महान विभूति को जिसमे नारी जीवन की हर पीड़ा सही थी। असमय माँ की बीमारी और मौत, पति से विछोह, असमय बेटे की मौत और अंत में मौत भी उन हाथो से जिन्होंने सुरक्षा का बीड़ा उठाया जिन्हें अंग रक्षक कहा वही जीवन छीनने वाले बने पर उन्हें कभी अबला के रूप में याद नही किया जायेगा। हमारे पूर्व प्रधानमन्त्री ने तो उन्हें दुर्गा तक की उपाधि दे दी थी।
ऊपर की तस्वीरों में एक तस्वीर है जिसमें इंदिरा गाँधी 1962 में भारत-चीन जंग के दौरान अपने सभी ज़ेवर राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में दान करती हुईं दिखाई दे रही हैं। उसके साथ की एक तस्वीर 1974 में इंदिरा गाँधी और शेख मुजीब-उर-रहमान के दरम्यान हुए उस ऐतिहासिक समझौते की है जो आज भी महत्वपूर्ण है। राष्ट्र राष्ट्र का शोर मचाना एक अलग बात है लेकिन उसके लिए सच में कुछ कर के दिखाना एक अलग बात है। इंदिरा जी की धारण थी कि राष्ट्र को स्वयं हर तरह से मज़बूत होना चाहिए। किसी पर निर्भर हो कर काम नहीं चलता। यह केवल किताबी बात नहीं थी बल्कि उन्होंने अपने पिता के साथ रह कर हालात में जो उतार चढाव देखे उन्होंने इंदिरा गाँधी को यही सिखाया था।
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