अरविन्द
स्मृति न्यास के ह्यूमन लैण्डस्कैप प्रोडक्शन द्वारा
औद्योगिक दूर्घटनाओं पर
एक वृत्तचित्र
मौत
और मायूसी के कारख़ाने
Factories
of
Death and Despair
दूर बैठकर यह
अन्दाज़ा लगाना भी कठिन
है कि राजधानी के चमचमाते इलाक़ों के अगल-बगल ऐसे
औद्योगिक क्षेत्र मौजूद हैं जहाँ मज़दूर आज भी सौ साल पहले जैसे
हालात में काम कर रहे हैं। लाखों-लाख मज़दूर बस दो वक़्त की रोटी
के लिए रोज़ मौत के साये में काम करते हैं।...
कागज़ों पर मज़दूरों के
लिए 250 से ज्यादा क़ानून बने हुए हैं लेकिन काम के
घण्टे, न्यूनतम
मज़दूरी, पीएफ़, ईएसआई कार्ड,
सुरक्षा
इन्तज़ाम जैसी चीज़ें यहाँ किसी भद्दे मज़ाक
से
कम नहीं... आये दिन होने वाली दुर्घटनाओं और मज़दूरों की मौतों की
ख़बर या तो मज़दूर की मौत के साथ ही मर जाती है
या फ़िर इन कारख़ाना
इलाक़ों की अदृश्य
दीवारों में क़ैद होकर रह जाती
है। दुर्घटनाएँ होती रहती हैं, लोग मरते
रहते हैं, मगर ख़ामोशी के एक सर्द पर्दे के पीछे
सबकुछ यूँ ही चलता रहता है, बदस्तूर...
फ़ैज़ के लफ़्ज़ों में:
कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं लहू का सुराग़
न दस्त-ओ-नाख़ून-ए-क़ातिल न आस्तीं पे निशाँ
न सुर्ख़ी-ए-लब-ए-ख़ंज़र, न रंग-ए-नोक-ए-सनाँ
न ख़ाक पे कोई धब्बा न बाम पे कोई दाग़
कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं लहू का सुराग़ ...
यह
डॉक्युमेण्ट्री फ़िल्म तरक़्क़ी की चकाचौंध के पीछे की अँधेरी
दुनिया में दाखिल होकर स्वर्गलोक के तलघर के
बाशिन्दों की ज़िन्दगी से रूबरू
कराती है, तीखे सवाल उठाती
है और उनके जवाब तलाशती है।
निर्देशकः चारुचन्द्र पाठक
ह्यूमन लैण्डस्कैप
प्रोडक्शंस (अरविन्द स्मृति
न्यास)
फोन
न. - 9910462009
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