An Article by the Asian Human Rights Commission Thu, Aug 1, 2013 at 11:40 AM
सन्दर्भ – योजना आयोग द्वारा जुलाई 2013 को जारी गरीबी का नया आंकलन)
Contributors: सचिन कुमार जैन
भारत में 2011 से 2012 के बीच में 8.49 करोड़ लोग गरीब नहीं रहे. वे उस रेखा के ऊपर आ गए हैं जिसमे लोग उलझे रहते हैं पर वह सरकारों को दिखाई नहीं देती. अब तक यह कहा जाता रहा है कि देश की बड़ी आबादी निरक्षर है, परन्तु भारत का योजना आयोग मानता है कि देश की आबादी गंवार और बेवक़ूफ़ है. इसे गुलामी की आदत है, इसलिए इस पर शासन किया जाना चाहिए. वह मानता है कि गरीबी को वास्तविक रूप में कम करने की जरूरत नहीं है, कुछ अर्थशास्त्रियों ने आंकड़ों को बाज़ार की भट्टी में गला कर एक नया हथियार बनाया है, जिसे वे गरीबी का आंकलन (ESTIMATION OF POVERTY) कहते हैं. उन्होंने यह तय किया है कि सच में तो लोग गरीबी से बाहर नहीं निकलना चाहिए परन्तु दिखना चाहिए कि गरीबी कम हो रही है. तो वे बस एक व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले खर्चे को इतना तंग करते चले जा रहे हैं कि भारतीय नागरिक का गला दबता जाए.
क्या हम नीतियों के जरिये से किये जा रहे धीमे जनसंहार के दौर में हैं? एक ऐसा दौर जहाँ हथियार का वार होने पर खून शरीर के बाहर नहीं, शरीर के भीतर के हर एक अंग में रिसता रहता है. जिस दौर में एक किलो दाल 60 रूपए किलो, दूध 40 रूपए लीटर, टमाटर 50 रूपए किलो, लौकी 40 रूपए किलो हो. एक बार की सामान्य बीमारी का खर्च 350 रूपए और एक दिन अपने काम के लिए की जाने वाली यात्रा पर 20 रूपए का न्यूनतम खर्च जरूरी हो. वहीं योजना आयोग ने एक बार फिर 22 जुलाई 2013 को अपना आंकड़ों से बना हथियार चला दिया. उनका आंकलन कहता है कि मंहगाई की दर (जो वास्तविक कम और काल्पनिक ज्यादा होती है), लोगों की बढ़ती क्रय क्षमता और व्यय के आधार पर 2004-05 से 2011-12 के बीच 2 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से बाहर आ गए हैं. हालांकि इस अवधि में जरूरी सामान और सेवाओं की कीमतों में 40 से 160 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है, पर वे इसे माने को तैयार नहीं है क्योंकि उनके आंकड़े यह नहीं बता रहे हैं.
योजना आयोग के नए आंकलन के मुताबिक 2004-05 में देश में 37.2 प्रतिशत लोग गरीब थे, 2009-10 में ये घट कर 29.8 प्रतिशत और 2011-12 में और कम हो कर 21.9 प्रतिशत हो गए. वास्तव में जिस तरह से योजना आयोग गरीबी कम कर रहा है, उसी के मान से गरीबों की मृत्यु दर (पूअर्स डेथ रेट) में हो रही बढ़ोतरी को मापे जाने की जरूरत है. आयोग ने माना है कि शहरों में एक व्यक्ति पर रोज 33.33 रूपए से ज्यादा और गांवों में 27.2 रूपए से ज्यादा करने वाले परिवार को गरीब नहीं माना जाएगा. उनके लिए सामाजिक भेदभाव, बहिष्कार, व्यापक वंचितपन, विकलांगता, विस्थापन और बदहाली का पलायन गरीबी का कोई सूचक नहीं है. इसके पहले 2009 में योजना आयोग ने इसी व्यय के आधार पर गांव में 22.42 रूपए और शहरों में 28.65 रूपए को गरीबी की रेखा माना था. बड़ा ही रोचक मामला यह है कि शौचालय बनवाने से लेकर पंचायत व्यवस्था को बेहतर बनाए के लिए विश्व बैंक की चरण वंदना करने वाला योजना आयोग उसके द्वारा दी गयी 1.25 डालर (यानी 80 रूपए) की मानक परिभाषा को नकार देता है. सच तो यह है कि इसे भी आंकड़ों के जाल में फंसा दिया जाता है. योजना आयोग द्वारा जारी वक्तव्य के मुताबिक़ 1993-94 से 2004-05 के बीच जब उदारीकरण की पूंजीवादी नीतियां अच्छे से काम कर रही थीं तब गरीबी में 0.74 प्रतिशत सालाना की दर से कमी हो रही थी. 2004-05 से 2011-12 के बीच जब पूरी दुनिया में तथाकथित विकास टप्प पड़ गया था, देशों की अर्थव्यवस्थाएं दिवालिया हो रही थीं तब भारत में 2.18 प्रतिशत सालाना की दर से गरीबी कम हो रही थी. कभी सरकार कहती है कि दुनिया में हालात बुरे हैं इसलिए हमारे हालात भी बुरे हैं, गरीबी के आंकलन में तो ठीक उल्टा हुआ. जिस दौर में देश में पेट्रोल-डीज़ल, दाल, सब्जियों की कीमतें सबसे ज्यादा बढ़ीं, बेरोज़गारी बढ़ी, थी उसी दौर में योजना आयोग में गरीबी कम कम करने का चमत्कार कर दिखाया.
राज्य और देश में गरीबी – ताज़ा आंकलन के मुताबिक वर्ष 2012 और 2013 के बीच बिहार में गरीबों की संख्या 53.5 प्रतिशत से घटकर 33.74 प्रतिशत हो गयी है. बिहार में एक साल में 185.35 लाख लोग गरीबी से बाहर आ गए हैं. आंध्रप्रदेश में गरीबी 21.1 प्रतिशत से कम होकर 9.20 प्रतिशत पर आ गयी है. वहाँ 97.8 लाख लोग अब गरीब नहीं रहे. गुजरात में 33.97 लाख लोग गरीबी के रेखा से बाहर आ गए हैं. राजस्थान में 64.08 लाख, उत्तरप्रदेश में 139.71 लाख लोग गरीब नहीं रहे. सब सोते रहे और देश में क्रान्ति हो गयी. उत्तराखंड में गरीबी 18 प्रतिशत से कम हो कर 11.26 प्रतिशत रह गयी है. आकंडे और भी बहुत से हैं, पर यहाँ उनका उल्लेख करने की जरूरत नहीं है.
गरीबी की रेखा व्यक्ति के सिर के ऊपर से नहीं गर्दन के सामानांतर होकर गुज़रती है. योजना आयोग के निष्कर्षों के मुताबिक गांव में 27.20 और शहर में 33.33 रूपए प्रतिव्यक्ति व्यय गरीबी की रेखा है. यह रेखा सभी प्रदेश में एक जैसी नहीं है. कुछ राज्यों में यह गर्दन से नीचे से गुज़रती है. ओडिसा में 23.16 रूपए (गांव) और 28.70 रूपए (शहर) से कम खर्च करने वाले ही गरीब माने गए हैं. ग्रामीण क्षेत्रों की बात करें तो मध्यप्रदेश में 25.70 रूपए, बिहार में 25.93 रूपए, झारखंड में 24.93 रूपए और छत्तीसगढ़ में 24.60 रूपए पर गरीबी की रेखा है. शहरी क्षेत्रों के सन्दर्भ में मध्यप्रदेश में 29.90 रूपए, बिहार में 30.76 रूपए, ओडिसा में 28.70 रूपए और छत्तीसगढ़ में 28.30 रूपए प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन के व्यय को गरीबी की रेखा माना गया है.
गरीबी में खाना – भारत में प्रति व्यक्ति औसत उपभोग खर्च 1053.64 (ग्रामीण) है, इसमे से 600.36 रूपए (56.98%) का खर्चा केवल भोजन पर होता है. शहरी भारत में 1984.46 रूपए के मासिक उपभोक्ता व्यय में से 880.83 रूपए (44.39%) भोजन की व्यावस्था में जाते हैं. बिहार में 780.15 रूपए के मासिक उपभोग (MONTHLY PERCAPITA CONSUMER EXPENDITURE) में से 504.81 रूपए (64.71%) रोटी की जुगाड में जाते हैं. दिक्कत यह है कि भारत में यह आधारभूत सिद्धांत बनाया ही नहीं गया है कि पहले हम जीवन की बुनियादी जरूरतों और वंचितपन के पैमाने तय कर लेन और फिर देखें कि उन पैमानों के मान से कौन और कितने गरीब हैं!
इन आंकड़ों के साथ जुड़े संकट – आप जानते हैं कि भारत में वर्ष 1973-74 में पहली बार ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के लिए गरीबी की रेखा तय की गयी थी. तब व्यय को आधार माना गया था यानी एक व्यक्ति कितना कमाता है और उसमे उसकी जरूरत पूरी होती है या नहीं, उसे कोई महत्त्व नहीं दिया गया. कई बार तो प्राकृतिक संसाधनों से मुफ्त मिलने वाली सामग्री को भी खर्चे में जोड़ कर गरीबी कम की गयी. अब भी यही हो रहा है. ठीक 40 साल पहले जो जो लोग गांव में एक माह में 48.90 रूपए या 1.63 रूपए प्रतिदिन और शहरों में 57 रूपए या 1.90 रूपए प्रतिदिन से कम खर्च करते थे, विशेषज्ञों ने उन्हें उन्हें ही गरीब माना था. व्यय का यह आधार तब की वास्तविक मूल्य पर तय किया गया था, परन्तु उसके बाद से अब तक कभी भी गरीबी की रेखा का आंकलन करते समय वास्तविक मूल्य (CURRENT PRICE) का आधार नहीं लिया गया. इसमे खपत और वास्तविक जरूरत का भी कोई मानक शामिल नहीं है. 40 साल पहले तय की गयी व्यय की राशि में मंहगाई की दर (INFALTION RATE) (जो अपने आप में एक धोखा है) के आधार पर कुछ-कुछ बढ़ोतरी की जाती रही. ये रेखा वस्तुओं या सेवाओं के वास्तविक मूल्यों पर आधारित न होकर कुछ निहित नीतिगत स्वार्थों पर आधारित होती है, जिसमे व्यवस्था गरीबों के ठीक खिलाफ खड़ी होती है. योजना आयोग और ग्रामीण विकास मंत्रालय के पूर्व सचिव डाक्टर एनसी सक्सेना कहते हैं कि यह आंकड़ों का खेल है. जैसे ही आप 27 रूपए के व्यय को 40 रूपए कर देंगे, वैसे ही 26 प्रतिशत गरीबी का आंकड़ा बढ़ कर 50 प्रतिशत हो जाएगा. 27 रूपए से जीवन की बुनियादी जरूरतें बिलकुल पूरी नहीं हो सकती हैं. इतने कम व्यय के मानकों के बाद भी 27 करोड़ लोग गरीब माने गए हैं. हमें इसका विरोध करने के बजाये यह मांग करना चाहिए कि यह राशि बनी रहने दें पर इसे भुखमरी की रेखा (STARVATION LINE) के रूप में स्वीकार किया जाए.
अब यह भी उठेगा कि कि जब यही सरकार कह रही है कि जब 21.9 प्रतिशत लोग ही गरीबी की रेखा के नीचे हैं तो वह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून में 67 प्रतिशत जनसँख्या को सस्ता अनाज देने की बात क्यों कर रही है? सच तो यह है कि यह स्वीकार करना सरकार की बाध्यता है कि गरीबी की रेखा से ऊपर होने का मतलब यह नहीं है कि लोगों को गुणवत्ता पूर्ण सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं या शिक्षा के अधिकार की जरूरत नहीं है. नॅशनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन के जिस अध्ययन के आधार पर गरीबी की रेखा तय की है वही अध्ययन यह भी बताता है कि हमारे ही देश में स्वास्थ्य पर एक महीने का व्यय 51.91 रूपए (गांव में) और 99.06 रूपए (शहर में) है. स्वास्थ्य पर योजना आयोग की अपनी एक समिति ने बताया था कि स्वास्थ्य पर होने वाले पूरे व्यय में से 80 प्रतिशत व्यय लोगों को अपनी जेब से करना पड़ता है. उन्हे कुछ मुफ्त नहीं मिलता है. जब यह वास्तविक व्यय इतना कम है तो क्या इन अर्थशास्त्रियों को यह जोड़ समझ नहीं आता कि लोगों को अच्छी सरकारी सेवाएं तो मिलती नहीं हैं, पहिर भी वे 51 और 99 रूपए जितनी कम राशि खर्च क्यों कर रहे हैं? केंद्र सरकार द्वारा चलाई जा रही लगभग 150 योजनायों में से एक समय पर हमारे देश की 30 योजनाएं गरीबी की रेखा के मापदंड पर संचालित होती थी. अब केवल वृद्धावस्था पेंशन योजना में यह मापदंड है. भारत सरकार को पिछले 10 सालों में इस मापदंड को हटाना पड़ा क्योंकि योजना आयोग का यह आंकलन किसी ने कभी भी स्वीकार नहीं किया. हमारी शासन व्यवस्था पर भी सवाल उठाना चाहिए क्योंकि वहाँ संसद के विशेषाधिकार (DISCREATIONARY POWERS) को बचाने के लिए सभी राजनीतिक दल खड़े हो जाते हैं, पर गरीबी की परिभाषा और आंकलन पर संसद में कभी चर्चा नहीं हुई. मतलब साफ़ है कि योजना आयोग को इस मामले में संसद से ज्यादा विशेषधिकार दिए गए हैं. स्वास्थ्य की तरह ही शिक्षा का भी हाल है. गांव में शिक्षा पर 99.06 और शहरों में 160.5 रूपए खर्च होते हैं.
देश की विकास दर की चमक से हमारी आँखें इतनी चौंधिया चुकी हैं कि हमें नॅशनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन का यह तथ्य भी दिखाई नहीं दिया कि वास्तव में देश के व्यय के हिसाब से सबसे ऊपर वाले 10 फीसदी लोग भी 155 रूपए प्रतिदिन के आसपास खर्च करते हैं, मतलब यह कि सरकार और संसद बदहाली को ढंकने की कोशिश कर रही है.
हमें यह भी पता है कि योजना आयोग के इन आंकलनों से लोगों के हकों पर ज्यादा फरक नहीं पड़ेगा, परन्तु सवाल केवल उस बात का नहीं है. इस अमानवीय और अन्यायोचित गरीबी की रेखा का रणनीतिगत उपयोग यह साबित करने के लिए किया जाएगा कि निजीकरण के कार्यक्रम, ढांचागत समायोजन, राज्य की जनकल्याणकारी भूमिका का दायरा सीमित करने और संसाधनों की लूट को प्रोत्साहित करने वाली नीतियों के कारण भारत में गरीबी कम हो गयी. यह सवाल अपना दिमाग साफ़ करने का है कि गरीबी कम नहीं हो रही है गरीब कम किया जा रहे हैं. इसलिए योजना आयोग की भूमिका और मंशा को समझना जरूरी है.
राज्य | गरीबी की रेखा (रूपएप्रतिमाह/व्यक्ति व्यय) | प्रतिशत जनसँख्या (गरीबी) | प्रति व्यक्ति कुल मासिक उपभोग (औसत) | भोजन पर व्यय (प्रति व्यक्तिमासिक) | कुल व्यय में से भोजन पर व्यय(प्रतिशत) | |
उत्तरप्रदेश | ग्रामीण | 768 | 30.4 | 899.1 | 520.82 | 57.93 |
शहरी | 941 | 26.06 | 1573.91 | 728.46 | 46.28 | |
राज्य में गरीब>>>>>>>>>> | 29.43% | |||||
मध्यप्रदेश | ग्रामीण | 771 | 35.74 | 902.82 | 503.58 | 55.78 |
शहरी | 897 | 21 | 1665.77 | 693.89 | 41.66 | |
राज्य में गरीब>>>>>>>>>> | 31.65% | |||||
बिहार | ग्रामीण | 778 | 34.06 | 780.15 | 504.81 | 64.71 |
शहरी | 923 | 21 | 1237.54 | 654.97 | 52.93 | |
राज्य में गरीब>>>>>>>>>> | 33.74% | |||||
झारखंड | ग्रामीण | 748 | 40.84 | 825.15 | 502.81 | 60.94 |
शहरी | 974 | 24.83 | 1583.75 | 816.04 | 51.53 | |
राज्य में गरीब>>>>>>>>>> | 36.96% | |||||
हिमाचलप्रदेश | ग्रामीण | 913 | 8.84 | 1535.75 | 792.58 | 51.61 |
शहरी | 1064 | 4.33 | 2653.88 | 1100.31 | 41.46 | |
राज्य में गरीब>>>>>>>>>> | 8.06% | |||||
दिल्ली | ग्रामीण | 1145 | 12.92 | 2068.49 | 1115.71 | 53.94 |
शहरी | 1134 | 9.84 | 2654.46 | 1117.15 | 42.09 | |
राज्य में गरीब>>>>>>>>>> | 9.91% | |||||
उत्तराखंड | ग्रामीण | 880 | 11.62 | 1747.41 | 788.44 | 45.12 |
शहरी | 1082 | 10.48 | 1744.92 | 847.1 | 48.55 | |
राज्य में गरीब>>>>>>>>>> | 11.26% | |||||
राजस्थान | ग्रामीण | 905 | 16.05 | 1179.4 | 646.55 | 54.82 |
शहरी | 1002 | 11.69 | 1663.08 | 798.09 | 46.22 | |
राज्य में गरीब>>>>>>>>>> | 14.71% | |||||
ओड़िसा | ग्रामीण | 695 | 35.65 | 818.47 | 506.75 | 61.91 |
शहरी | 861 | 17.29 | 1548.36 | 749.13 | 48.38 | |
राज्य में गरीब>>>>>>>>>> | 32.59% | |||||
गुजरात | ग्रामीण | 932 | 21.54 | 1109.76 | 640.1 | 57.68 |
शहरी | 1152 | 10.14 | 1909.06 | 882.3 | 46.22 | |
राज्य में गरीब>>>>>>>>>> | 16.63% | |||||
केरल | ग्रामीण | 1018 | 9.14 | 1835.22 | 843 | 45.93 |
शहरी | 987 | 4.97 | 2412.58 | 969.76 | 40.20 | |
राज्य में गरीब>>>>>>>>>> | 7.5% | |||||
छतीसगढ़ | ग्रामीण | 738 | 44.61 | 783.57 | 456.04 | 58.20 |
शहरी | 849 | 24.75 | 1647.32 | 719.97 | 43.71 | |
राज्य में गरीब>>>>>>>>>> | 39.93% | |||||
हरियाणा | ग्रामीण | 1015 | 11.64 | 1509.91 | 815.2 | 53.99 |
शहरी | 1169 | 10.28 | 2321.49 | 1001.26 | 43.13 | |
राज्य में गरीब>>>>>>>>>> | 11.16% | |||||
जम्मू-कश्मीर | ग्रामीण | 891 | 11.54 | 1343.88 | 776.82 | 57.80 |
शहरी | 988 | 7.2 | 1759.45 | 901.8 | 51.25 | |
राज्य में गरीब>>>>>>>>>> | 10.35% | |||||
भारत | ग्रामीण | 816 | 25.7 | 1053.64 | 600.36 | 56.98 |
शहरी | 1000 | 13.7 | 1984.46 | 880.83 | 44.39 | |
देश में गरीब>>>>>>>>>> | 21.93% | |||||
स्रोत – |
About the Author: Mr. Sachin Kumar Jain is a development journalist, researcher associated with the Right to Food Campaign in India and works with Vikas Samvad, AHRC's partner organisation in Bophal, Madhya Pradesh. The author could be contacted at sachin.vikassamvad@gmail.comTelephone: 00 91 9977704847 # # # About AHRC: The Asian Human Rights Commission is a regional non-governmental organisation that monitors human rights in Asia, documents violations and advocates for justice and institutional reform to ensure the protection and promotion of these rights. The Hong Kong-based group was founded in 1984. |
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