जहाँ बच जाना मौत से भी बदतर सजा है
An Article by the Asian Human Rights Commission --अविनाश पाण्डेय
प्राकृतिक आपदाएं बता कर नहीं आतीं, न ही अक्सर उनका सटीक पूर्वानुमान कर पाना संभव होता है. इसीलिए उनसे जानमाल का नुकसान होना लाजमी है, पर यह नुकसान कितना होगा यह आपदाओं से निपटने की प्रशासनिक क्षमता और तैयारी पर निर्भर करता है. इस नजरिये से देखें तो हजारों नागरिकों की बलि ले लेने वाली उत्तराखंड बाढ़ ने केंद्र और राज्य दोनों सरकारों के दावों की पोल खोल कर रख दी है. सुनामी से हुए भारी नुकसान के बाद एक ऐसी ही आपदाओं से निपटने के लिए सीधे केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अधीन बनाई गए भारतीय राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के बाद भी इस स्तर पर जानमाल का नुक्सान केवल अक्षम्य ही नहीं बल्कि आपराधिक भी है.
पर फिर, यह आपदा सरकार भारत के आम नागरिकों की ऐसे ही बड़े स्तर पर जान लेने वाली अक्षम्य और आपराधिक लापरवाहियों के लिए बड़ी ढाल भी बन गयी है. आखिर कितने लोग जान पाए होंगे कि उत्तराखंड में आई बाढ़ के पहले ही उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल में ऐसी ही एक आपदा 118 बच्चों की बलि ले चुकी थी और अंदेशा है कि मानसून के जाते जाते यह संख्या 1000 के पार होगी. यह भी कि दिमागी या जापानी बुखार (इन्सेफ़्लाइटिस) के नाम से जाने जानी वाली यह आपदा हर साल आती है. वह भी बिना बताये नहीं बल्कि ऐलानिया आये मेहमान की तरह मानसून के साथ आती है और हजारों बच्चों की जान ले जाती है. यह सब तब, जब इस बीमारी का इलाज भी है और टीका भी. और सबसे महत्वपूर्ण यह सब राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की जानकारी में होता है जो न सिर्फ लगातार इस आपदा पर नजर रखे हुए है बल्कि 2011 में इलाके का दौरा भी कर चुकी है.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ बीते साल इस बीमारी ने 1256 बच्चों की जान ली थी. गैरसरकारी आंकड़ों की मानें तो यह संख्या 1480 होती है. हकीकत में यह संख्या कहीं बड़ी हो सकती है क्योंकि यह आंकडे भले ही सिर्फ मरने के लिए अस्पताल पंहुचने में सफल रहे भाग्यशाली बच्चों पर आधारित होती है. भाग्यशाली इसलिए क्योंकि जीवन भले ही न बचे इन बच्चों का कष्ट जरुर थोड़ा कम हो जाता है. खैर, इन मौतों में 557 अकेले उत्तरप्रदेश में हुई थीं. उनमे भी 500 से ज्यादा सिर्फ एक अकेले नेहरु अस्पताल में जो बीआरडी मेडिकल कालेज से सम्बद्ध है.
वजह यह कि पूरे पूर्वांचल में दिमागी बुखार का इलाज कर पाने की सुविधा वाला यह इकलौता अस्पताल है. न, वस्तुतः यह दिमागी बुखार का इलाज कर पाने की सुविधा वाला इकलौता अस्पताल है जिसमे डॉक्टर भी हैं. पिछले साल राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग से तीखी डांट सुनने के बाद सरकार ने कुछ कदम उठाये थे. तब आयोग ने महामारी से हुई मौतों का संज्ञान लेते हुए सरकारी कदमों को 'दावे से ज्यादा कुछ नहीं' बताते हुए सरकार के 'लापरवाह नजरिये' को मौतों का इकलौता जिम्मेदार बताया था. सरकार की आपराधिक अभियोज्यता को इतने साफ़ शब्दों में इंगित करते आयोग के बयान के बाद सरकार ने कुशीनगर के जिला अस्पताल में चौबीस घंटे इलाज की सुविधाएं मुहैया कराने का वादा किया था. पर नवम्बर 2012 में मौके पर पंहुचे मीडिया को न तो वहां चिकत्सक मिले न आईसीयू. अब ऐसे में सरकारी उपायों की अगम्भीरता को लेकर कोई संशय बचता है? अब जिला अस्पताल के इस हाल में होने पर प्राथमिक और सामुदायिक चिकित्सा केन्द्रों से कोई उम्मीद कैसे पाली जा सकती है. और यह सब तब था जबकि पिछले वर्ष नंबर माह के पहले ही केन्द्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री ने प्रदेश में 501 बच्चों की मृत्यु की बात संसद में स्वीकार की थी.
यहाँ से देखें तो मानसून की शुरुआत से पहले ही जा चुकी 118 जानें स्थिति के और भयावह होने की ही तरफ इशारा कर रही हैं क्योंकि मस्तिष्क ज्वर से होने वाली मौतें मानसून के चरम के साथ उफान लेती हैं. ऐसा नहीं है कि प्राकृतिक आपदाओं की तरह सरकार को इस आपदा का पूर्वानुमान नहीं था. इसके ठीक विपरीत, 54 सेंटिनल और 12 अपेक्स रिफरल प्रयोगशालाओं के साथ सरकार के पास इस बीमारी की निगरानी और रोकथाम दोनों के पूरे उपाय हैं. अब हर साल होने वाली हजार से ज्यादा मौतों के साथ आप खुद ही समझ सकते हैं कि यह केंद्र करते क्या हैं.
विडम्बना यह है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2006 में ही स्वतः संज्ञान लेते हुए राज्य और केंद्र दोनों सरकारों को इसे 'राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातस्थिति' घोषित करने और इससे निपटने के लिए ठोस कार्य योजना बनाने का आदेश दिया था. कहने की जरुरत नहीं है कि निर्देशों का पालन करने की अनिवार्यता न होने के नुक्ते का फायदा उठाकर दोनों ने कुछ नहीं किया. खैर, साल दर साल तबाही मचाने वाली इस आपदा पर न्यायपालिका के निर्देश की उपेक्षा करना आसान है पर कम से कम चुनावों के समय कुछ करते हुए दिखने की मजबूरी में २०११ में तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आज़ाद को इस विभीषिका की तुलना महामारी से करनी पड़ी थी. उन्होंने यह भी माना था कि मच्छरों से फैलने वाली इस बीमारी से निपटने के लिए गन्दा पानी जमा होने वाली जगहों को भी देखना पड़ेगा और उसके लिए स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ ही ग्रामीण विकास और जल प्रबंधन मंत्रालयों को भी साथ लेते हुए ठोस कार्यवाही करनी होगी. पर फिर, कुछ नहीं हुआ.
वायदे तो खैर वर्तमान राज्य सरकार ने भी बहुत किये थे. पर वह जागी बस अप्रैल में जब मुख्य सचिव जावेद उस्मानी ने बैठक कर सम्बद्ध अधिकारियों को इन्सेफ्लाईटिस से निपटने के लिए बनाई गयी सभी योजनाओं को समय पर पूरा करने का निर्देश दिया. पर तब तक बहुत देर हो चुली थी. न तो बीआरडी मेडिकल कॉलेज में इस बीमारी के लिए बनाया जा रहा १०० बिस्तरों वाला विशेष वार्ड बनकर तैयार हुआ था न ही बीमारी का शिकार हो सकने वाले ३० लाख संभावित लोगों को टीका लगाने की योजना कहीं पंहुची थी. वैसे टीके लग भी जाते तो कुछ ख़ास हासिल होने वाला नहीं था क्योंकि इस टीके को साल भर बाद दोहराना पड़ता है और खुद इलाके के डॉक्टर मानते हैं कि यह कभी नहीं हुआ.
अफ़सोस यह कि इस बीमारी के बारे में सबसे खतरनाक बात इसका शिकार होकर मर जाना नहीं है. आंकड़े बताते हैं कि इससे बचकर जीवन भर के लिए शारीरिक और मानसिक अपंगता के साथ जीने को अभिशापित हो जाना उससे भी बुरा होता है. सिर्फ बीआरडी मेडिकल कालेज के आंकड़े देखें तो इस बीमारी ने ३५००० बच्चों की जान लेने के साथ करीब २०००० बच्चों को हमेशा के लिए विकलांग भी बना दिया है. पहले से ही गरीबी की मार झेल रहे परिवारों में इन विकलांग बच्चों की जिंदगी एक हादसा बन कर रह जाती है. आखिर खुद को जिन्दा रखने की बुनियादी जद्दोजहद में लगे यह परिवार इन बच्चों के लालन पालन और चिकित्सा का अतरिक्त 'बोझ' चाहें भी तो कैसे झेल सकते हैं?
इसीलिए गोरखपुर और आसपास के रेलवे स्टेशनों, बाजारों और भीड़भाड़ वाली अन्य जगहों में ऐसे बच्चों का लावारिस हाल में मिलना बहुत ही सामान्य घटना है. त्रासदी ही है कि अपने बच्चों को न छोड़ने वाले परिजनों के सगे सम्बन्धियों का उन्हें ऐसा करने की सलाह देना इससे भी सामान्य है.
कोई चाहे तो ऐसे 'निर्मम' परिजनों को कोस ही सकता है. पर सच यह है इसके लिए वे नहीं बल्कि पूरी तरह से वह व्यवस्था ही दोषी है जिसे बाल आयोग ने इन बच्चों की मौतों का 'इकलौता जिम्मेदार' बताया था. वित्तीय कमी की वजह से आज तक टीकाकरण न कर पाने का रोना रोने वाली यह सरकार ही है जो 1978 से आज तक मारे गए इन ५०००० से भी ज्यादा बच्चों की मौत जिम्मेदार है. सोचिये उस अक्षम्य प्रशासनिक लापरवाही के बारे में जो आजतक जिला स्तर तक पर इस बीमारी से निपटने में सक्षम अस्पताल तक नहीं बना सकी है. उस सरकार के बारे में जो मच्छरों की पैदाइश वाली जलभराव वाली जगहों को साफ़ तक नहीं कर पाती है. बस यह कि इसी सरकार के पास लैपटॉप बांटने और पार्क और मूर्तियाँ बनाने का पैसा जरुर होता है. इन मौतों के लिए १९७८ से आज तक केंद्र और राज्य में रही सभी सरकारें दोषी हैं क्योंकि उनमे से किसी के लिए सुदूर पूर्वांचल के यह बच्चे प्राथमिकता पर नहीं थे.
बावजूद इसके कि वह भारतीय संविधान के आदेशानुसार इन बच्चों को बचाने के लिए वचनवद्ध हैं. अपने बाकी बच्चों को बचाने के लिए एक को छोड़ने को मजबूर गरीब माँ का दर्द समझने की कोशिश करिए और आप समझ जायेंगे कि वंचितों को त्याज्य समझने वाली व्यवस्था दोषी है. दोषी तो खैर इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी है जो दिल्ली में जेसिका लाल के लिए तो लड़ लेती है पर जिसके लिए कैमरों की पंहुच से दूर गोरखपुर में मर रहे गरीबों के मुद्दे पर अभियान चलाना नहीं सूझता. दोषी वह सभ्य समाज (सिविल सोसायटी) भी है जिसे बच जाने को मरने से बदतर संभावना बना चुका यह इलाका नहीं दिखता. खैर, आइये, मानसून के खत्म होने तक लाशें गिनते हैं.
*An abridged version of this article published in the national edition of Dainik Jagran, a leading Hindi daily of India on 28th June, 2013.
About the Author: Mr. Pandey, alias Samar, is Programme Coordinator, Right to Food Programme, AHRC. He can be contacted atfoodjustice@ahrc.asia
About AHRC: The Asian Human Rights Commission is a regional non-governmental organisation that monitors human rights in Asia, documents violations and advocates for justice and institutional reform to ensure the protection and promotion of these rights. The Hong Kong-based group was founded in 1984.
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