Thursday, March 14, 2013

मार्क्सवाद कोई जड़ दर्शन नहीं है

क्रांति के बिना दलित मुक्ति नहीं हो सकती 
दलितों की व्यापक भागीदारी के बिना भारत में क्रांति संभव नहीं
चंडीगढ़, 14 मार्च। चर्चित लेखक व विचारक डा आनन्द तेलतुंबड़े ने आज यहां कहा कि दलित मुक्ति के लिए डा. अंबेडकर के सारे प्रयोग एक ‘‘महान विफलता’’ में समाप्त हुए और जाति प्रथा के विनाश के लिए आन्दोलन को उनसे आगे जाना होगा।
‘जाति प्रश्न और मार्क्सवाद’ विषय पर भकना भवन में चल रही अरविन्द स्मृति संगोष्ठी के तीसरे दिन अपना वक्तव्य रखते हुए डा.तेलतुंबड़े ने कहा कि आरक्षण की नीति से आज तक सिर्फ 10 प्रतिशत दलितों को ही फायदा हुआ है। इसका एक कारण यह भी है कि डा. अंबेडकर ने आरक्षण की नीति को सही ढंग से सूत्रबद्ध नहीं किया। उन्होंने कहा कि क्रांति के बिना दलित मुक्ति नहीं हो सकती और दलितों की व्यापक भागीदारी के बिना भारत में क्रांति सम्भव नहीं।
डा. तेलतुंबड़े ने कहा कि भारत के वामपन्थियों ने मार्क्सवाद को कठमुल्लावादी तरीके से लागू किया है जिससे वे जाति समस्या को न तो ठीक से समझ सके और न ही इससे लड़ने की सही रणनीति विकसित कर सके। संगोष्ठी में प्रस्तुत आधार पत्र की बहुत सी बातों से सहमति जताते हुए भी उन्होंने कहा कि अंबेडकर, फुले या पेरियार के योगदान को खारिज करके सामाजिक क्रांति को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता।
उन्होंने कहा कि अंबेडकर ने मार्क्सवाद का गहन अध्ययन नहीं किया था, लेकिन उनके मन में उसके प्रति गहरा आकर्षण था। हमें मार्क्स और अंबेडकर आंदोलनों को लगातार एक-दूसरे के करीब लाने के बारे में सोचना होगा। इसके लिए सबसे जरूरी है कि दलितों पर अत्याचार की हर घटना पर कम्युनिस्ट उनके साथ खड़े हो।
‘आह्वान’ पत्रिका के संपादक अभिनव ने डा. अंबेडकर के वैचारिक प्रेरणा स्रोत अमेरिकी दार्शनिक जॉन डेवी के विचारों की विस्तृत आलोचना प्रस्तुत करते हुए कहा कि वे उत्पीड़ित वर्गों की मुक्ति का कोई मुकम्मल रास्ता नहीं बताते। वे ‘एफर्मिटिव एक्शन’ के रूप में राज्य द्वारा कुछ रियायतों और कल्याणकारी कदमों से आगे नहीं जाते। यही बात हम अंबेडकर के विचारों में भी पाते हैं। आनन्द तेलतुंबड़े के वक्तव्य की अनेक बातों से असहमति व्यक्त करते हुए अभिनव ने कहा कि अंबेडकर के सभी प्रयोगों की विफलता का कारण हमें उनके दर्शन में तलाशना होगा। सामाजिक क्रांति के सिद्धांत की उपेक्षा करके अंबेडकर केवल व्यवहार के धरातल पर प्रयोग करते रहे और उनमें भी सुसंगति का अभाव था। 
अभिनव ने कहा कि दलित पहचान को कायम करने और उनके अन्दर चेतना और गरिमा का भाव जगाने में डा. अंबेडकर की भूमिका को स्वीकारने के साथ ही उनके राजनीतिक-आर्थिक-दार्शनिक विचारों की आलोचना हमें प्रस्तुत करनी होगी।
आईआईटी हैदराबाद के प्रोफेसर और प्रसिद्ध साहित्यकार लाल्टू ने कहा कि मार्क्सवाद कोई जड़ दर्शन नहीं है, बल्कि नये-नये विचारों से सहमत होता है। मार्क्सवादियों को भी ज्ञानप्राप्ति की अनेक पद्धतियों का प्रयोग करना चाहिए और एक ही पद्धति पर स्थिर नहीं रहना चाहिए। प्रोफेसर सेवा सिंह ने कहा कि अंबेडकर का मूल्याकंन सही इतिहास बोध के साथ किया जाना चाहिए। साथ ही इस्लाम पर अंबेडकर के विचारों की भी पड़ताल करने की जरूरत है। 
पंजाबी पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’ के संपादक सुखविंदर ने डा. तेलतुंबड़े द्वारा कम्युनिस्टों की आलोचना के कई बिन्दुओं पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि भारत के कम्युनिस्टों के पास 1951 तक क्रांति का कोई विस्तृत कार्यक्रम ही नहीं था, ऐसे में जाति के सवाल पर भी किसी सुव्यवस्थित दृष्टि की उम्मीद करना गलत होगा। लेकिन देश के हर हिस्से में कम्युनिस्टों ने सबसे आगे बढ़कर दलितों-पिछड़ों के सम्मान की लड़ाई लड़ी और अकूत कुर्बानियां दीं।
  आज संगोष्ठी में दो अन्य पेपर पढ़ें गये जिन पर चर्चा जारी है। ‘संहति’ की ओर से असित दास ने ‘जाति प्रश्न और मार्क्सवाद’ विषय पर आलेख प्रस्तुत किया, जबकि पीडीएफआई, दिल्ली के अर्जुन प्रसाद सिंह का पेपर ‘भारत में जाति का सवाल और समाधान के रास्ते’ उनकी अनुपस्थित में तपीश मेंदोला ने प्रस्तुत किया।
आधार पत्र तथा अन्य पेपरों पर जारी बहस में यूसीपीएम माओवादी के वरिष्ठ नेता नीनू चापागाई, सिरसा से आए कश्मीर सिंह, देहरादून से आए जितेन्द्र भारती, लखनऊ के रोहित राजोरा व सूर्य कुमार यादव, लुधियाना के डा.ॅ अमृत, दिशा छात्र संगठन के सन्नी, वाराणसी के राकेश कुमार आदि ने विचार व्यक्त किए।
सत्र की अध्यक्षता नेपाल राष्ट्रीय दलित मुक्ति मोर्चा के अध्ययक्ष तिलक परिहार, ज्ञान प्रसार समाज के संचालक डा.हरिश तथा डा.अमृत पाल ने किया। संचालन का दायित्व सत्यम ने निभाया।

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