‘जाति प्रश्न और माक्र्सवाद’ पर चर्चा जारी
जाति व्यवस्था आज सामंती ताकतों की नहीं, पूजीवाद की सेवा कर रही है
चंडीगढ़, 15 मार्च। आज सामन्ती शक्तियां नहीं बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था जातिप्रथा को जिन्दा रखने के लिए जिम्मेदार है और यह मेहनतकश जनता को बांटने का एक शक्तिशाली राजनीतिक उपकरण बन चुकी है। इसलिए यह सोचना गलत है कि पूंजीवाद और औद्योगिक विकास के साथ जाति व्यवस्था स्वयं समाप्त हो जाएगी।
‘जातिप्रश्न और माक्र्सवाद’ विषय पर भकना भवन में जारी अरविंद स्मृति संगोष्ठी के चैथे दिन आज यहां पेपर प्रस्तुत करते हुए ‘आह्वान’ पत्रिका के संपादक अभिनव सिन्हा ने यह बात कही। ‘जाति व्यवस्था संबंधी इतिहास लेखन’ पर केंद्रित अपने आलेख में उन्होंने जातिप्रथा के उद्भव और विकास के बारे में सभी प्रमुख इतिहासकारों के विचारों की विवेचना करते हुए बताया कि जाति कभी भी एक जड़ व्यवस्था नहीं रही है, बल्कि उत्पादन संबंधों में बदलाव के साथ इसके स्वरूप और विशेषताओं में भी बदलाव आता रहा है।
उन्होंने कहा कि प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था का उदय अभिन्न रूप से समाज में वर्गों, राज्य और पितृसत्ता के उदय से जुड़ा हुआ है। अपने उद्भव से लेकर आजतक जाति विचारधारा शासक वर्गों के हाथ में एक मजबूत औजार रही है। यह गरीब मेहनतकश आबादी को पराधीन रखती है और उन्हें अलग-अलग जातियों में बांट देती है। पूंजीवाद ने जातिगत श्रम विभाजन और खान-पान की वर्जनाओं को तोड़ दिया है लेकिन सजातीय विवाह की प्रथा को कायम रखा है, क्योंकि पूंजीवाद से इसका कोई बैर नहीं है।
इससे पहले, कल शाम के सत्र में दिल्ली विश्वविद्यालय की शिवानी ने ‘जाति, वर्ग और अस्मितावादी राजनीति’ विषय पर और सोशल साइंसेज स्टडीज़ सेंटर, कोलकाता के प्रस्कण्व सिन्हाराय ने ‘पश्चिम बंगाल में जाति और राजनीति: वाम मोर्चे का बदलता चेहरा’ विषय पर पेपर प्रस्तुत किए।
शिवानी ने अपने पेपर में कहा कि पहचान की राजनीति जनता के संघर्षों को खंड-खंड में बांटकर पूंजीवादी व्यवस्था की ही सेवा कर रही है। जातीय पहचान को बढ़ावा देने की राजनीति ने दलित जातियों और उपजातियों के बीच भी भ्रातृघाती झगड़ों को जन्म दिया है। जाति, जेंडर, राष्ट्रीयता आदि विभिन्न अस्मिताओं के शोषण-उत्पीड़न को खत्म करने की लड़ाई को साझा दुश्मन पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की ओर मोड़नी होगी, और यह काम वर्गीय एकजुटता से ही हो सकता है।
श्री सिन्हाराय ने बंगाल में नामशूद्रों से निकले मतुआ समुदाय की राजनीतिक भूमिका की चर्चा करते हुए कहा कि वाम मोर्चे ने 1947 के बाद मतुआ शरणार्थियों की मांगों को मजबूती से उठाया था, लेकिन बाद में वाम मोर्चे पर हावी उच्च जातीय भद्रलोक नेतृत्व ने न केवल उनकी उपेक्षा की, बल्कि मतुआ जाति का दमन भी किया। पिछले चुनावों में कई इलाकों में वाम मोर्चे की हार का यह भी कारण था।
पर्चों पर जारी बहस में हस्तक्षेप करते हुए सुखविन्दर ने कहा कि जाति व्यवस्था को सामंती व्यवस्था के साथ जोड़कर देखने से न तो दुश्मन की सही पहचान हो सकती है और न ही संघर्ष के सही नारे तय हो सकते हैं। वास्तविकता यह है कि आज भारत में दलितों के शोषण का आधार पूंजीवादी व्यवस्था है। जमीन जोतने वाले को देने का नारा आज अप्रासंगिक हो चुका है।
लेखक शब्दीश ने कहा कि ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी नफरत के कारण अंबेडकर उपनिवेशवाद की साजिश को समझ नहीं पाए। दलित उत्पीड़न को लेकर अंबेडकर की पीड़ा सच्ची थी, लेकिन केवल पीड़ा से कोई मुक्ति का दर्शन नहीं बन सकता।
संहति से जुड़े शोधकर्ता एवं एक्टिविस्ट असित दास ने अपने आलेख पर उठे सवालों का जवाब देते हुए कहा कि यह सोचना होगा कि दमन-उत्पीड़न के खिलाफ दबे हुए गुस्से को हम वर्गीय दृष्टिकोण किस तरह से दे सकते हैं।
नेपाल राष्ट्रीय दलित मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष तिलक परिहार ने कहा कि साम्राज्यवाद आज भी फूट डालो राज करो की नीति के तहत पूरी दुनिया में अस्मिताओं की राजनीति को बढ़ावा दे रहा है। नेपाल में दलितों के बीच हजारों एनजीओ सक्रिय है जिन्हें अरबों डालर की फंडिंग मिलती है। लेकिन वहां अधिकांश दलित कम्युनिस्टों के साथ खड़े हैं।
बातचीत में आईआईटी, हैदराबाद के प्रोफेसर एवं कवि लाल्टू, कोलकाता से आए अनन्त आचार्य, मुंबई से आए लेखक पत्रकार प्रभाकर, नेपाल से आई संतोषी विश्वकर्मा, डा.दर्शन खेड़ी, बेबी कुमारी, संदीप, लश्कर सिंह आदि ने भी बहस में हस्तक्षेप किया। बहस इतनी सरगर्म रही कि कल सत्र का समय खत्म हो जाने के बाद भी रात ग्यारह बजे तक चर्चा जारी रही।
आज के सत्र की अध्यक्षता नेपाल के प्रसिद्ध साहित्यकार निनु चपागाईं, वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता कश्मीर सिंह और ‘प्रतिबद्ध’ के संपादक सुखविंदर ने की। मंच संचालन नौजवान भारत सभा के तपीश मैंदोला ने किया।
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