Thursday, March 22, 2012

मन्‍नार के कांसे की चमक

300 परिवार अब भी बनाते हैं भटि़टयों में कांसे के उत्‍पाद

विशेष लेख                                                                               * पल्‍लवी चिन्‍या
                                                                                                                                                    Photo Courtesy: Munnar.org
केरल का छोटा सा कस्‍बा मन्‍नार ऊपर से देखने पर खामोशी की चादर में लिपटा नजर आता है । लेकिन जैसे ही आप इस कस्‍बे की प्राकृतिक छटा को गहराई से निहारते हुए कस्‍बे में जाते हैं तो खामोशी की सारी चादरें धीरे-धीरे उतरने लगती हैं। कांसे की झनझनाहट, वेल्डिंग और मशीनों की आवाजें आपके कानों तक पहुंचकर संभवत: आपकी दिलचस्‍पी को चरम पर पहुंचा देती हैं। जैसे-जैसे आप आवाज के स्रोत की ओर बढ़ेंगे तो आप वहां सदियों से मौजूद परंपरा के तहत अनेक तरह से ढलाई किए जा रहे कांसे के उत्‍पादों की चमक-दमक से आश्‍चर्यचकित रह जाएंगे। 


मन्‍नार अलप्‍पुझा जिले की ग्राम पंचायत है जिसकी विशेष पहचान उस परंपरा की रक्षा करना और बढ़ावा देना है जो कई सदियों से वहां विद़यमान है। इस कस्‍बे में लगभग 300 परिवार अपनी भटि़टयों में बनाए जा रहे कांसे के उत्‍पादों की परंपरा को जीवित रखे हुए हैं। कांसा टिन और कापर का मिश्रण है। इस धातु पर जब चोट की जाती है तो उसमें से गूंजने वाली विशेष ध्‍वनि निकलती है इसलिए यह धातु विभिन्‍न रूपों और आकार की धार्मिक शिल्‍पकृतियां खासतौर से शानदार दिए बनाने की शिल्‍पकला के लिए उत्‍कृष्‍ट माध्‍यम उपलब्‍ध कराने के साथ-साथ घरेलू बर्तन बनाने के लिए भी बेहतरीन है। मन्‍नार में पारंपरिक भटि़टयों की शोभा देखते ही बनती है। इसके साथ ही वहां कम आधुनिक कारखाने भी हैं जो हाल के वर्षों में ही अस्तित्‍व में आए हैं और कांसे की वस्‍तुएं बना रहे हैं। वर्षों से ये खूबसूरत शिल्‍पकार अरब सागर के पार तक इस छोटे से कस्‍बे के शिल्‍प की शौहरत फैला चुके हैं तथा दुनिया के विभिन्‍न भागों के बाजारों में जगह बना चुके हैं। 


कोच्चि में प्रमुख पर्यटन स्‍थलों में से एक दुनिया का सबसे बड़ा वारपू (पारपंरिक बर्तन जो आमतौर पर पयासम या खीर बनाने के काम आता है) है जो ज्‍यू टाउन में पुरानी चीजों की दुकान में रखा है। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि यह मन्‍नार में बनाया गया था। इसे बनाने में एक वर्ष से अधिक समय लगा था। 100 कारीगरों ने इसे अंतिम रूप दिया। 3250 किलोग्राम के इस वारपू का व्‍यास 12 फुट है तथा इसमें 10,000 लीटर पानी भरा जा सकता हैा इसे राजन अलक्‍कल ने बनवाया था। श्री राजन का परिवार पांच पीढि़यों से कांसे के बर्तन और उत्‍पाद बनाने के काम में लगा है। 17 कर्मचारियों की टीम के साथ काम करने वाला यह परिवार कांसे के पारंपरिक उत्‍पादों का कारोबार करता है जिसमें उरुली (चौड़े मुंह का बर्तन), निलाविलक्‍कु (दीपक), किंडी (फुहारे की तरह का घड़ा) और हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियां, पोप की मूर्तियां, मंदिरों के लिए नारायण गुरू की मूर्तियां, चर्चों एवं संग्रहालयों के लिए मूर्तियां शामिल हैं और देशभर में भेजी जाती हैं। नई दिल्‍ली में इन्दिरा गांधी संग्रहालय में प्रदर्शित अल विलक्‍कु (1001 दीपक) राजन की कार्यशाला में ही बना है। 


इस छोटे से कस्‍बे के शिल्‍पकारों ने वर्षों से न सिर्फ पारपंरिक उत्‍पाद बनाने के लिए नई प्रौद़योगिकी अपनाई बल्कि इसे श्री अनंत कृष्‍ण आचार्य जैसे नए क्षेत्रों में भी फैलाया जो अपने अला या भट़टी में लोहे के डब्‍बे बनाते हैं। सरकार की सहायता से कांसे के बर्तन और चीजें बनाने की पारंपरिक कला ने कुटीर उद़योग का स्‍थान ले लिया है। मन्‍नार ने वर्षों से जो अनुपम दर्जा हासिल किया है वह कुछ असाधारण शिल्‍पकारों की मेहनत का नतीजा है। उनमें चेटि़टकुलांगारा देवी मंदिर में दुनिया का सबसे बड़ा दीपक, शिमला में मोहन नगर मंदिर में दुनिया की सबसे बड़ी घंटी, नई दिल्‍ली में कैथेड़्रल चर्च में दुनिया की सबसे बड़ी चर्च की घंटी तथा अब चेन्‍नई में संग्रहालय में रखी जीवन एवं ज्ञान के प्रसिद्ध वृक्ष की प्रतिकृति शामिल हैं। (पीआईबी) 21-मार्च-2012 19:10 IST