Sunday, November 27, 2011

वालमार्ट और भारत का खुदरा बाज़ार

इन्हें तो अमरीकी हित की ज्यादा चिता है !--रवि वर्मा  
भारत की अर्थव्यवस्था का अध्ययन जब आप करेंगे तो पाएंगे कि हमारी अर्थव्यवस्था जो है उसका 80% unorganised sector में चलती है और 20% अर्थव्यवस्था ही organised है | हमारी जो बड़ी-बड़ी कंपनियां, प्राइवेट और पब्लिक सेक्टर में हैं वो इस 20% हिस्से में हैं और 80% हिस्सा unorganised सेक्टर में हैं, जैसे छोटे उद्योग, मंझोले उद्योग, कृषि क्षेत्र, फुटपाथ की दुकाने, किराना दुकाने, परचून की दुकाने (General Store)   | फूटपाथ पर हमारे यहाँ बाज़ार लगते हैं, दिल्ली में चले जाइये, दिल्ली की दुकानों में, मौलों में जितना समान बिकता है उससे ज्यादा दिल्ली के फुटपाथों पर बिकता है, मुंबई चले जाइये, कोलकाता चले जाइये, चेन्नई चले जाइये, बंगलौर चले जाइये, हैदराबाद चले जाइये, हर बड़े शहर में आपको ऐसे बाजार मिल जायेंगे और कितना सुन्दर बाजार है ये , कोई बिल्डिंग नहीं, कोई स्ट्रक्चर नहीं, कोई ए.सी. नहीं, establishment का खर्चा शुन्य | हजारों करोड़ का बाज़ार हैं ये और ये इतना व्यवस्थित और इतना सुन्दर बाज़ार क्यों लगता है, क्योंकि मौसम की मेहरबानी है हमारे देश के ऊपर | मौसम हमारे यहाँ इतना अनुकूल है कि हमको मालूम है कि बारिस के मौसम में ही बारिस आएगी, सर्दी के दिनों में ही सर्दी होगी, गर्मी के दिनों में ही गर्मी होगी, इसलिए ये बाजार लगता है और सजता है | और दूसरी बात कि भारत में जीवन को चलाने के लिए जितनी जरूरत की चीजे होती हैं वो हर समान हर जगह होती है | Indian Council for Agricultural Research (ICAR)  के दस्तावेज मेरे पास हैं और उनके अनुसार भारत में 14785 वस्तुएं होती हैं | ये भारत की सभी राज्यों में एक समान होती हैं और भारत के उन शहरों या गाँव को बाहर से केवल नमक मांगना पड़ता है, बाकी हर जरूरत की चीज उसी राज्य में हो जाती हैं | यूरोप और अमेरिका में चूकी मौसम की अनुकूलता नहीं है, साल में नौ महीने ठण्ड पड़ती है और उनके यहाँ कभी भी बारिस हो जाती है और बर्फ भी बहुत पड़ती है, धुप का दर्शन तो साल में 300 दिन होता ही नहीं है | इसके अलावा उनके कृषि क्षेत्र में कुछ होता नहीं है, कुल मिला के दो ही चीजें होती हैं, आलू और प्याज और थोडा बहुत गेंहू, हाँ अमेरिका, यूरोप से थोडा बेहतर है, थोडा सा | वहां कुछ चीजें यूरोप से ज्यादा हो जाती है बाकी उसका भी वही हाल है | तो अपनी इन कमियों को पूरा करने के लिए उन्हें बाहर से वस्तुओं का आयात करना पड़ता है | तो उनकी ये समस्या है, जीवन चलाने के लिए चाहिए तो सब कुछ लेकिन होता कुछ भी नहीं तो बाहर से जो समान आते हैं उनको centralised कर के उनको रखना पड़ता है ताकि लोग आ के उसे खरीद सके, इसलिए उनको बड़े बड़े शौपिंग माल्स की जरूरत पड़ती है और उनके शौपिंग माल्स भारत के माल्स की तरह नहीं हैं, उनके और हमारे शौपिंग माल्स में जमीन आसमान का अंतर है | उनके शौपिंग माल्स में मोटर कार से ले के सुई-धागे तक मिल जायेंगे आपको | और अगर ये एक जगह ना मिले तो उनकी जिंदगी चलनी मुश्किल है | तो उनका unorganised sector इतना बड़ा नहीं है, मौसम की अनुकूलता नहीं है, सब कुछ सब जगह नहीं होता, सब बाहर से मांगना पड़ता है तो उन्होंने बड़े-बड़े Departmental Store बनाये हैं, वालमार्ट आया, केयरफॉर आया, टेस्को आया | ये बाहर से समान मंगाते और उसे redistribute करते हैं | उनकी मजबूरी को हमारे यहाँ ख़ुशी-ख़ुशी लाया जा रहा है और हमारा राजा कह रहा है कि वालमार्ट को भारत में आना चाहिए , बड़े बड़े departmental store खुलने चाहिए, रिटेल मार्केटिंग में विदेशी निवेश होना चाहिए |  कैबिनेट की मंजूरी भी मिल गयी है और सरकार उसको वापस लेने को तैयार नहीं है | अदूरदर्शी राजा से उम्मीद भी क्या की जा सकती है |         

वालमार्ट के समर्थक लोग अलग-अलग न्यूज़ चैनलों पर सरकारी भोपू बन के तर्क दे रहे हैं,  तर्क क्या हैं कि जब ये कंपनियां आएँगी तो ये किसानों से सीधा अनाज खरीदेंगे, किसानों को लाभ होगा, बिचौलिए ख़त्म हो जायेंगे, उपभोक्ताओं को भी फायदा होगा, रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और अक्सर इस देश के पढ़े लिखे लोग हैं वो इस बात को मानते हैं कि ये ठीक रास्ता है, WTO पर जब हमारे सरकार ने हस्ताक्षर किया था तब भी यही कहा था, यही तर्क दिए गए थे | वालमार्ट इतनी बड़ी कंपनी है कि उसकी सालाना आय 48 देशों की GDP से ज्यादे है, वालमार्ट का total turnover है वो 400 बिलियन डॉलर का है जो कि भारत के अन्दर जितने व्यापार है उसके बराबर है, एक कंपनी का ये हाल है | वालमार्ट अमेरिका की कंपनी है और उनको अपने देश में एक disclosure statement देनी होती है, और अपने disclosure statement में वालमार्ट ने कहा है कि पिछले पाँच साल में उसने भारत के अन्दर 70 करोड़ रूपये खर्च किया है, खर्च क्यों किया है ? तो भारतीयों को educate करने के लिए, समझाने के लिए | मतलब आप समझे कि नहीं ? ये जो टेलीविजन पर और अख़बारों में भोंपू लोग बैठे हैं उन जैसे लोगों के लिए, और सरकार को educate नहीं करेगी तो उसका प्रोपोजल तो पास होगा ही नहीं तो |  बाकी कंपनियों का खर्च कितना है ये मालूम नहीं है क्योंकि उनका disclosure statement नहीं आया है | और देखिये सरकार का पेंडुलम घिसक के इनके पक्ष में आ गया है, इसीलिए देखिये, सरकार कैसे अकड़ के बोल रही है कि "ये वापस नहीं होगा" | 

कहा जा रहा है कि  इससे अपव्यय कम होगा। यह भी कहा गया है कि इससे रोजगार बढ़ेंगे और किसानों को उनकी फसल की बेहतर कीमत मिल सकेगी। हालांकि ये तर्क संदेहास्पद हैं और सूक्ष्म परीक्षण पर शायद ही खरे उतर पाएं। इस विवाद से परे यह पूछा जाना चाहिए कि ऐसे मल्टी-ब्रांड रिटेल क्या उत्पादक (चाहे किसान हों या निर्माता) से उपभोक्ता के बीच होने वाले वितरण-मूल्य को कम करेगा? मार्केटिंग की भाषा में इसे ‘चैनल कॉस्ट’ कहा जाता है। आम आदमी की भाषा में यह परिवहन/ संग्रह/ वित्तीय प्रबंधन/ विक्रय पर होने वाला वह खर्च है, जो उत्पादन बिंदु और उपभोक्ता को की गई अंतिम बिक्री के बीच किया जाता है। यह आर्थिक कार्यकुशलता का मुख्य मापदंड है, जिस पर हमें गौर करना चाहिए। यह सवाल ही तय करेगा कि मल्टी-ब्रांड रिटेल में एफडीआई न्यायोचित है या नहीं। भारत की थोक और खुदरा व्यापार व्यवस्था की तुलना में वालमार्ट और टेस्को जैसे मल्टी-ब्रांड रिटेलर्स उपभोक्ता को मिलने वाले मूल्य में तत्काल काफी बढ़ोतरी कर देंगे। इस बात को साबित करने के लिए हमारे पास कई प्रमाण हैं। उपलब्ध तथ्यों और तुलनात्मक अध्ययन से इसे आसानी से दिखाया जा सकता है। मूल्यों में होने वाली वृद्धि का यह प्रतिशत छोटा नहीं है। भारत के थोक और खुदरा व्यापार में होने वाले ‘मार्क-अप्स’ (क्रय-मूल्य और विक्रय-मूल्य के बीच का अंतर) की तुलना में, मल्टी-ब्रांड रिटेल में ‘मार्क-अप्स’ की गुंजाइश दो गुना से लेकर नौ गुना तक होती है। यह ‘मार्क-अप्स’ उनकी व्यापार-संरचना में निहित होता है, जिसका भुगतान पश्चिमी देशों में आम उपभोक्ता अपनी रोजमर्रा की खरीद में करते हैं। आइए जरा रोजमर्रा के काम में आने वाले पदार्थो के ऐसे चार वर्गों के ‘चैनल कॉस्ट’ या खर्च की तुलना करें, जो मल्टी-ब्रांड रिटेल के जरिये उपलब्ध होंगे। 
पहला वर्ग है उपभोक्ता वस्तुओं का- इस मामले में भारत में वितरक व थोक व्यापारी का मार्जिन चार से आठ प्रतिशत के बीच होता है, और खुदरा व्यापारी का मार्जिन होता है आठ प्रतिशत से 14 प्रतिशत तक। यह मार्जिन उत्पादन मूल्य पर जोड़ा जाता है। कंपनी की उत्पादन क्षमता, बाजार पर उसकी पकड़, माल की किस्म आदि पर मार्जिन का प्रतिशत निर्भर करता है। इसलिए भारत में वितरण श्रृंखला के ऊपर आने वाली कुल ‘चैनल कॉस्ट’ 12 से 22 प्रतिशत के मध्य होती है। अमेरिका और यूरोप में ‘सेफवेज’, ‘क्रोगेर्स’ और ‘टेस्को’ जैसी कंपनियां इस श्रेणी के पदार्थो के बुनियादी मूल्य पर माल की किस्म, मात्र, मांग और उपलब्धता को देखते हुए तकरीबन 40 प्रतिशत का ‘मार्क-अप्स’ लगाती हैं। यह चैनल ‘मार्क-अप्स’ भारतीय चैनल/ रिटेल कीमतों की तुलना में दो से तीन गुना ज्यादा है। इन कंपनियों द्वारा ग्राहकों को लुभाने के लिए समय-समय पर घोषित ‘सेल’ और ‘लॉस लीडर प्रोमोशन’ से हमें गुमराह नहीं होना चाहिए। दूसरा वर्ग है वस्त्र का- भारत के कपड़ा व्यवसाय में संयुक्त रूप से थोक व खुदरा का मार्जिन, मिल कीमत के ऊपर 35 से 40 प्रतिशत के बीच होता है। रेडीमेड कपड़ों के व्यवसाय में किसी ब्रांडेड रिटेल दुकान का मार्जिन शायद ही कभी लागत के 30 प्रतिशत से ज्यादा होता है। अब जरा इसकी तुलना ‘मेसीस’ या ‘मार्क्स ऐंड स्पेंसर’ स्टोर से करते हैं। ये रिटेलर अक्सर कपड़ों के खरीद मूल्य पर दो से 4.5 गुना ‘मार्क-अप‘ लगाते हैं। उसके बाद वे 15 से 30 प्रतिशत की छूट ‘सेल’ ऑफर पर देते हैं। ‘सेल’ पर मिलने वाली कीमत के बावजूद इन रिटेलर्स द्वारा लगाया ‘मार्क-अप’ कम-से-कम दो गुना अधिक होता है। इसीलिए नियमत: उनके ‘मार्क-अप्स’ भारतीय रिटेलर्स की तुलना में पांच से नौ गुना ज्यादा होते हैं। तीसरा, दवा और चिकित्सा सामग्री- भारत में दवा की दुकानें और औषधि-विक्रेता एक व्यापारिक संस्था के रूप में काफी व्यवस्थित हैं, पर सप्लाई साइड बिखरा पड़ा है, जिससे उन्हें रिटेल में बेहतर मार्जिन मिल जाता है। बावजूद इसके, भारत में एक रिटेल दवा विक्रेता का मार्जिन 20 प्रतिशत तक होता है। इसमें अगर हम वितरक, थोक व्यापारी का 10 प्रतिशत मार्जिन और सीएंडएफ एजेंट का चार प्रतिशत जोड़ दें, तो कुल ‘चैनल कॉस्ट’ लागत का 34 प्रतिशत बनती है। अब इसकी तुलना अमेरिका के ‘वालग्रीन‘ या ‘सीवीएस’ या फिर ब्रिटेन के ‘बूट्स’ से कीजिए। ये रिटेलर्स चिकित्सा-सामग्रियों और दवाइयों के दामों में दो या तीन गुना ‘मार्क-अप’ कर देते हैं और फिर कुछ  मद पर ‘सेल’ ऑफर चला देते हैं। जहां तक ‘चैनल कॉस्ट’ का सवाल है, भारतीय दवा-विक्रेताओं की तुलना में इन बड़े रिटेलर्स की कीमतों में कम-से-कम छह गुना का ‘मार्क-अप’ रहता है। चौथा है, किचनवेयर- भारतीय ‘चैनल कॉस्ट’ या खर्च इस श्रेणी में कम है। भारत में प्रेशर कुकर, कुकवेयर में वितरक, रिटेलर का संयुक्त मार्जिन 30 प्रतिशत से कम है, जिसमें से रिटेलर सिर्फ 10 से 15 प्रतिशत ही रखता है। इसी श्रेणी के उत्पादों के लिए ‘वालमार्ट’, ‘ब्लूमगडेल्स’ और ‘सीयर्स’ जैसे रिटेलर्स अमेरिका में लागत खर्च पर नियमत: 100 से 200 प्रतिशत का ‘मार्क-अप’ करते हैं। यहां तक कि ‘सेल’ पर भी कम-से-कम भारत के मुकाबले चैनल मूल्यों में पांच गुना का ‘मार्क-अप’ रहता है। ये सभी साक्ष्य दर्शाते हैं कि वर्षों में विकसित हुई भारतीय वितरण व्यवस्था, विश्व में सबसे सक्षम और किफायती है। माना कि हमारे बाजार यूरोप, अमेरिका व जापान के ‘मॉल्स’ की तरह लुभावने नहीं, परंतु आम घरेलू महिलाओं के लिए वे बेहद उपयोगी हैं, और कम कमाई व ज्यादा महंगाई के बुरे वक्त में उनका बखूबी साथ निभाते हैं। रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रस्ताव इस संतुलन को बिगाड़ देगा। आपूर्ति श्रृंखला में निवेश और ‘बैकएंड लॉजिस्टिक्स’ की बातें सिर्फ ‘चैनल कॉस्ट’ के मुख्य विषय से ध्यान हटाने के लिए हैं। उद्योगों और विदेशी सरकारों के दबाव में आए बगैर हमारी सरकारी कमेटी को अपना पूरा ध्यान इस बात पर केंद्रित करना चाहिए कि हमारे देश के नागरिकों, उपभोक्ताओं के हित में क्या है। हमारे बाजार बेहद सक्षम हैं और लाखों छोटे व्यापारियों और उद्यमियों के हित से जुड़कर चलते हैं। इसमें हस्तक्षेप कर हमें मल्टी-ब्रांड रिटेल के पश्चिमी मायाजाल में नहीं फंसना चाहिए। 

आपने पढ़ा कि किस तरह पश्चिमी देशों में बड़े मल्टी-ब्रांड  रिटेलर्स, जैसे वालमार्ट, टेस्को और कार्रेफौर अपने सभी उत्पादों के दाम में कम से कम दोगुना ‘मार्क-अप’ करते हैं और भारत के रिटेल/होलसेल ‘मार्क-अप्स’ की तुलना में यह नौगुना से भी अधिक तक चला जाता है। सारांश यह है कि चैनल की सक्षमता इस बात से तय होनी चाहिए कि ‘मार्क-अप्स’ (जो दुकान चलाने के खर्च और चैनल द्वारा कमाए गए मुनाफे का कुल योग है) के साथ आम उपभोक्ता को कितना मूल्य अदा करना पड़ेगा। इसी मापदंड के आधार पर मैंने यह निष्कर्ष निकाला था कि थोक विक्रेता, वितरक, स्टॉकिस्ट और खुदरा विक्रेता से बनी भारतीय वितरण श्रंखला दुनिया में सबसे सक्षम और किफायती है।
ऐसा कैसे संभव है? मैं जानता हूं कि आप में से ऐसे लोग भी होंगे, जो इस निष्कर्ष को मानने से इनकार करेंगे। उनसे मेरा अनुरोध है कि वे जरा पश्चिमी व भारतीय खुदरा बाजार के स्वरूप के गणितीय तर्क की गहराई से पड़ताल करें। जिस किसी ने भी व्यावसायिक कार्यप्रणाली एवं नियमों को देखा-समझा है, वे बाजार की इस हकीकत से जरूर वाकिफ होंगे कि बाजार जितना ही संघटित होता है, वह उपभोक्ता को चयन का कम अधिकार देता है, और रिटेलर द्वारा उतना ही अधिक ‘मार्क-अप’ करने व कीमतों में वृद्धि करने की गुंजाइश रहती है। इसके उलट बाजार जितना बिखरा होता है और उपभोक्ता को चयन का अधिक विकल्प मिलता है, ‘मार्क-अप’ उतना ही कम होता जाता है, क्योंकि रिटेलर्स को प्रतिस्पर्धा व व्यापार में बने रहने के लिए कम से कम मूल्य रखने पड़ते हैं।
जब बड़े मल्टी-ब्रांड रिटेल बाजार में प्रवेश करते हैं, तो उनकी रणनीति प्रतिस्पर्धा को खत्म करने और बाजार पर अपनी मजबूत पकड़ बनाने की होती है। दो उदाहरणों पर गौर कीजिए। अमेरिका में रिटेल बाजार का आकार (खाद्य सेवा और ऑटोमोटिव को छोड़कर) वर्ष 2009 में तीन ट्रीलियन डॉलर आंका गया था। वालमार्ट ने 10 प्रतिशत की बाजार हिस्सेदारी (मार्केट शेयर) के साथ 300 से भी अधिक बिलियन डॉलर का कारोबार किया था। जाहिर है, लंबे समय में अजिर्त ऐसी संघटित शक्ति का इस्तेमाल आपूर्तिकर्ता या वितरक से कम कीमत पर चीजें खरीदने और उपभोक्ता को अधिक ‘मार्क-अप्स’ के साथ बेचने के लिए किया जाता है। वालमार्ट का उद्देश्य दूसरे रिटेलर्स से ज्यादा किफायती बनना है, पर उसका मुख्य लक्ष्य अपने शेयरधारकों को अधिकतम लाभ पहुंचाना है। (जिन लोगों को वालमार्ट के बारे में जानने की रुचि हो, वे बिल क्विन्न की किताब ‘How Walmart is Destroying America and the World ’ पढ़ सकते हैं) ब्रिटेन में इसी से मिलता-जुलता उदाहरण टेस्को का है। पिछले वर्ष इस कंपनी ने 61 बिलियन पाउंड (यानी 99 बिलियन अमेरिकी डॉलर) का व्यापार किया था, और विकीपीडिया के अनुसार, ब्रिटेन किराना दुकान बाजार में इसकी हिस्सेदारी (मार्केट शेयर) 30 प्रतिशत है। इस स्तर का एकाधिकार रिटेल की दुनिया में अनोखा है और टेस्को को आपूर्तिकर्ता व उपभोक्ता, दोनों के ऊपर असाधारण शक्ति प्रदान कर देता है। ब्रिटेन में किराने का सामान खरीदने वालों के लिए घर के समीप ज्यादा से ज्यादा दो या तीन रिटेलर (टेस्को, सैन्सबरी या शायद अल्डी) का विकल्प होता है। इसका अर्थ है कि प्रोमोशनल ऑफर के बावजूद निर्धारित कीमतों में अधिमूल्य (प्रीमियम) शामिल रहता है और उपभोक्ता की खरीदारी पर रिटेलर की पकड़ मजबूत बनी रहती है। उत्पादक के ऊपर भी उनकी जबर्दस्त पकड़ होती है। अब इसकी तुलना जरा भारत से कीजिए। हमारे पड़ोस में दर्जनों छोटे रिटेलर्स होते हैं, जिनमें हमारे रुपये को पाने की होड़ लगी रहती है। यहां जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा है। लिहाजा, ‘मार्क-अप्स’ व कीमतें मजबूरन कम रहती हैं। हमारी बाजार संरचना लगभग परिपूर्ण है, जिसमें हजारों उत्पादक लाखों रिटेलर्स को माल उपलब्ध कराते हैं, जो आगे करोड़ों उपभोक्ताओं को अपनी सेवाएं देते हैं। बाजार में किसी के पास सचमुच इतना असर या जोर नहीं कि वह अधिक ‘मार्क-अप्स’ लगा सके। यह जमीन से जुड़ी सच्चाई है, जो लाखों छोटे व्यवसायों की उद्यमशीलता और ऊर्जा से पैदा हुई है। इसके संगठन में सरकार ने कोई भूमिका नहीं निभाई है। यदि बड़े मल्टी-ब्रांड रिटेल को भारत में प्रवेश की अनुमति दी जाती है, तो उसका बुरा परिणाम होगा। किसी इलाके में एक विशाल रिटेल स्टोर का उद्घाटन धूमधाम के साथ किया जाएगा। फिर बहुत सारे ‘प्रोमोशनल ऑफर’ दिए जाएंगे और कई जरूरी सामान अनेक दिनों तक मूल कीमत से भी कम में बेचे जाएंगे। (वालमार्ट की भाषा में इसे ‘स्टॉम्प द कॉम्प’ कहा जाता है, जिसका अर्थ होता है प्रतिस्पर्धा को मिटा देना)। जाहिर है, इस छूट से आकर्षित होकर लोग भारी संख्या में वहां उमड़ पड़ेंगे। ऐसे में, छोटे रिटेलर व्यापार-घाटे को बहुत समय तक नहीं उठा पाएंगे। इस झटके की वजह से उनमें से ज्यादातर दुकानें बंद हो जाएंगी। ऐसा निरपवाद रूप से हर जगह हुआ है। प्रतिस्पर्धा पूरी तरह ध्वस्त हो जाने पर आपूर्तिकर्ताओं व उपभोक्ताओं पर बड़े रिटेलर की पकड़ कस जाती है। उसके बाद बाजार पर नियंत्रण करके वे अधिकतम मुनाफे के लिए धीरे-धीरे ‘मार्क-अप्स’ बढ़ाते जाते हैं। ऐसे में, आखिर क्यों भारत सरकार के प्रमुख वित्तीय सलाहकार के नेतृत्व में बनी कमिटी ने मल्टी-ब्रांड रिटेल में एफडीआई की सिफारिश की है? फिर निवेश के लिए सुझाए गए कुछ मानदंड भी काफी दुरूह हैं। उदाहरण के लिए, कमिटी ने न्यूनतम एफडीआई निवेश 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर तय किया है। यह ओलंपिक में किसी हेवीवेट लिफ्टर को 10 किलोग्राम वजन उठाने के लिए कहने जैसा है। मैं उन वरिष्ठ बुद्धिजीवियों की कद्र करता हूं, जिन्होंने इस पहलू पर गौर किया है। मैं यह सलाह देने का साहस अवश्य करूंगा कि इस संबंध में बनी नीति का लक्ष्य देश की विशाल आबादी का हित होना चाहिए। नीति-निर्धारकों को पश्चिमी देशों की सरकारों को खुश करने की जल्दबाजी नहीं दिखानी चाहिए, जो भारतीय रिटेल बाजार को खुलवाने के लिए निरंतर दबाव बना रहे हैं। मल्टी-ब्रांड रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति भारतीय खुदरा क्षेत्र व उन करोड़ों परिवारों का अहित करेगा, जो अपने गुजारे के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वर्ष 2008 में आई विश्वव्यापी आर्थिक मंदी से भारत बच गया, क्योंकि बैंकिंग उद्योग जगत जोखिम से अनजान था। ठीक वैसी ही स्थिति रिटेल में है। हमें भारत में पश्चिमी रिटेल की बीमारू संरचना को लाने का प्रयास नहीं करना चाहिए, जो भारतीय उपभोक्ताओं को आने वाले समय में अपना गुलाम बना लेगी।        

ये बाते हमारे सरकार के लोगों, विभिन्न समाचार चैनलों और अख़बारों में बैठे भोपुओं और नपुंशक विपक्ष को समझ में नहीं आ रहा है, विपक्ष तो नूरा कुश्ती लड़ रहा है सरकार के साथ, नूरा कुश्ती आप समझते हैं न, मतलब दिखावे के लिए हल्ला मचाते हैं | वास्तव में ये भारत देश की सरकार अब भारतीयों की सरकार नहीं रही बल्कि विदेशी कंपनियों की दलाल हो गयी है और हो भी क्यों नहीं, जब इस देश का प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, गृहमंत्री और तमाम मंत्री अमेरिका बनवा रहा है तो इनसे उम्मीद भी क्या की जा सकती है | ये भारत के लोगों का ख्याल थोड़े ही करेंगे, इन्हें तो अमरीकी हित की ज्यादा चिता है | 

जय हिंद 
एक भारत स्वाभिमानी
रवि

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