महाराष्ट्र में 280 बच्चियों के नाम बदलने का फैसला

दरअसल, पितृसत्तात्मक ढांचे का मनोविज्ञान इस कदर गहरे पैठा है कि बहुत सारे लोग सिर्फ इसलिए किसी परंपरा का पालन करते रहते हैं क्योंकि उसके अर्थ और असर के बारे में सोचने का मौका उन्हें नहीं मिलता। खासतौर पर अपने बच्चों के मामले में लोग आमतौर पर वैसे भेदभावपरक व्यवहार बेझिझक निबाहते रहते हैं, जिनमें बेटे को तरजीह जाती है और बेटियों को हाशिये पर छोड़ दिया जाता है। एक औसत भारतीय परिवार बेटे की चाहत पूरी करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। यह अकारण नहीं है कि देश के बहुत सारे हिस्सों में बालकों के मुकाबले बच्चियों और इसी तरह पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों का अनुपात काफी चिंताजनक हद तक गिर गया है। हरियाणा में यह आंकड़ा प्रति एक हजार पुरुषों के मुकाबले महज सात सौ चौहत्तरस्त्रियों तक पहुंच गया है। इससे तरह-तरह की सामाजिक विसंगतियां पैदा हो रही हैं। हरियाणा में लड़के के विवाह के लिए लड़की ढूंढ़ने में हो रही मुश्किल इसका सिर्फ एक पहलू है। नकुशा नाम रखे जाने का चलन भले महाराष्ट्र के एक हिस्से तक सीमित रहा है, मगर बच्चियों को अवांछित मानने की मानसिकता बहुत व्यापक है। इसलिए बड़ी चुनौती इस मानसिकता को बदलने की है। इसमें सभी सरकारों और सामाजिक संस्थाओं को तत्परता दिखानी चाहिए। महाराष्ट्र को भी देखना होगा कि उसकी पहल महज नाम का बदलाव होकर न रह जाए।(जनसत्ता से साभार)
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