Saturday, September 03, 2011

भूमि अधिग्रहण कानून (Land Acquisition Act) // रवि वर्मा

प्रिय पाठको,
इस बार मैं भूमि अधिग्रहण कानून के ऊपर लेख लाया हूँ |  एक बात मैं स्पष्ट कर दूँ कि यहाँ इस लेख में जो आंकड़े दिए गए हैं वो वर्ष 2009 तक के हैं | और इस लेख को पढने के पहले इस सूचि को पढ़ लीजिये तब जा के आपको बात ज्यादा बेहतर तरीके से समझ में आएगी, हमारे यहाँ जमीन की पैमाइश ऐसे ही की जाती है और 1260 sq . feet जो दिया गया है वो भारत के ज्यादातर राज्यों में एक ही है, किसी किसी राज्य में थोडा ज्यादा है |
1260 Sq. Feet = एक कट्ठा
20 कट्ठा = एक बीघा
ढाई बीघा = एक एकड़ और 
5 एकड़ = एक हेक्टेयर
भूमि अधिग्रहण कानून का इतिहास 
भारत में सबसे पहले भूमि अधिग्रहण कानून अंग्रेजों ने लाया था 1839 में लेकिन इसे लागू किया 1852 में और वो भी बम्बई प्रेसिडेसी में | बम्बई प्रेसिडेंसी जो थी उसमे शामिल था आज का महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, गोवा और मध्य प्रदेश का वो इलाका जो नागपुर से लगा हुआ है | भारत की पहली क्रांति जो 1857 में हुई थी उस समय  भारत से सारे अंग्रेज चले गए थे और जब इस देश के कुछ गद्दार राजाओं के बुलावे पर वापस आये तो उन्होंने इस कानून को पुरे देश में लागू कर दिया | फिर 1870 में इसमें एक संशोधन कर दिया गया और वो संसोधन ये था कि "जमीन के अधिग्रहण का नोटिस एक बार अंग्रेज सरकार ने जारी कर दिया तो उस नोटिस को भारत के किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती और कोई भी अदालत इस मामले की सुनवाई नहीं कर सकता", मतलब अंग्रेज सरकार की जो नीति है वो अंतिम रहेगी, उसमे कोई फेरबदल नहीं होगा, कोई किसान अपनी जमीन छिनने की शिकायत किसी से नहीं कर सकता और इसी संसोधन में ये भी हुआ कि जमीन का मुआवजा सरकार तय करेगी और ये संसोधन सारे राज्यों में लागू हुआ | आखरी बार इसमें जो संसोधन हुआ वो 1894 में हुआ और वही संसोधित कानून आज भी इस देश में लागू हैं आजादी के 64 साल बाद भी | इस कानून में व्यवस्था क्या है ? व्यवस्था ये है कि केंद्र की सरकार हो, राज्य की सरकार हो, नगरपालिका की सरकार हो या जिले की सरकार हो, हर सरकार को, इस कानून के आधार पर किसी की जमीन को लेने का अधिकार है |

शहीदे आजम भगत सिंह को जब फाँसी की सजा हुई थी और उनको जेल में रखा गया था उस समय उन्होंने जितने इंटरव्यू दिए या पत्रकारों से बातचीत की हर बार वो कहा करते थे कि अंग्रेजों के सबसे ज्यादा दमनकारी कोई कानून भारत में है तो उसमे से एक है "भूमि अधिग्रहण कानून" और दूसरा है "पुलिस का कानून (इंडियन पुलिस एक्ट)" और भगत सिंह का कहना था कि आजादी के बाद ये कानून ख़त्म होना चाहिए, ऐसे ही चंद्रशेखर आजाद ने भी इस कानून के खिलाफ पर्चे बटवाए थे | ऐसे एक नहीं, दो नहीं, हजारों, लाखों क्रांतिकारियों का ये मानना था कि ये भूमि अधिग्रहण का कानून सबसे दमनकारी कानून है और अंग्रेजों के बाद इस कानून को समाप्त हो जाना चाहिए | हमारे सारे शहीदों का एक ही सपना था चाहे वो हिंसा वाले शहीद हो या अहिंसा वाले शहीद हो कि ये भूमि अधिग्रहण का जो कानून है वो अत्याचारी है, बहुत ज्यादा अन्याय करने वाला है, शोषण करने वाला है, इसलिए इस कानून को तो रद्द होना ही चाहिए, ख़त्म होना ही चाहिए | अब 15 अगस्त 1947 को जब ये देश आजाद हुआ तो ये अंग्रेजों का अत्याचारी कानून ख़त्म हो जाना चाहिए था लेकिन ये बहुत दुःख और दुर्भाग्य से मुझे कहना पड़ता है कि ये कानून आज आजादी के 64 साल बाद भी इस देश में चल रहा है और इस कानून के आधार पर किसानों से जमीने आज भी छिनी जा रही है और इस कानून के आधार पर आज भी हमारे किसानों को भूमिहीन किया जा रहा है | मुझे बहुत दुःख और दुर्भाग्य से ये कहना पड रहा है कि जिस तरह से अंग्रेजों की सरकार किसानों से जमीन छिना करती थी ठीक वैसे ही आजाद भारत की सरकार किसानों से जमीन छिना करती है | इसी कानून का सेक्सन 4 है इसी कानून का पैरा 1 है, उसके आधार पर अंग्रेज जमीन छिनने के लिए नोटिस जारी करते थे वही सेक्सन 4 और पैरा 1 का इस्तेमाल कर के आज भारत सरकार भी नोटिस जारी करती है और उसी तरीके से नोटिस आता है जिलाधिकारी के माध्यम से और जमीन छिनने के लिए आदेश थमा दिया जाता है और जिसका जमीन है उसके हाँ या ना का कोई प्रश्न ही नहीं है | और जमीन का भाव सरकार वैसे ही तय करती है जैसे अंग्रेज किया करते थे | कोर्ट इसमें हस्तक्षेप न करे इसके लिए इसमें चालाकी ये की गयी है कि इस भूमि अधिग्रहण कानून को संविधान के 9th Schedule में डाल दिया गया है जिसमे कोई petition भी नहीं दी जा सकती | भूमि अधिग्रहण का पूरा मामला हमारे संविधान के 9th Schedule में है और संविधान के 9th Schedule बारे में स्पष्ट है कि कोई भी व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में केस नहीं कर सकता |
 

जमीनों का बंदरबांट
 
अब देखिये ये अधिग्रहित जमीन किसके पास कितनी है | भारत में एक रेल मंत्रालय है, उसके देश भर में रेलवे स्टेशन है, यार्ड है जहाँ डिब्बे खड़े रहते हैं, इसके अलावा रेल के चलने के लिए रेलवे लाइन हैं | करीब 70 हजार डिब्बे यार्ड में खड़ा करने के लिए जो जगह चाहिए, 6909 रेलवे स्टेशन बनाने के लिए जो जमीन ली गयी है, और 64 हजार किलोमीटर रेलवे लाइन बिछाने के लिए जो जमीन किसानों से ली गयी है या छिनी गयी है इस कानून के आधार पर वो बेशुमार है, आप कल्पना नहीं कर सकते है, आपके मन में ये सपने में भी नहीं आ सकता है कि इतनी जमीन ली जा सकती है | जो जमीन हमारी सरकार ने किसानों से छिनी है इस रेलवे विभाग के लिए वो 21 लाख 50 हज़ार एकड़ जमीन है | हमारे रेल मंत्रालय के दस्तावेजों में से निकले गए आंकड़े हैं ये | 21 लाख 50 हजार एकड़ जमीन रेल मंत्रालय ने इस कानून के तहत हमारे किसानों से छीन कर अपने कब्जे में ली है, अपनी सम्पति बनाई है जिस पर 64 हजार किलोमीटर रेलवे लाइन हैं,70 हजार डिब्बे यार्ड में खड़े होते हैं और 6909 रेलवे स्टेशन खड़े हैं | अब आप तुरत ये सवाल करेंगे कि रेल मंत्रालय ने ये जमीन ली है वो लोगों के हित के लिए है | आपकी बात ठीक है कि लोगों के हित के लिए ये जमीन ली गयी है लेकिन लोगों के हित में उन किसानों का हित भी तो शामिल है जिनसे ये जमीन ली गयी हैं | आप दस्तावेज देखेंगे तो पाएंगे कि आजादी के बाद 1947-48 में जो जमीन किसानों से ली गयी है उसकी कीमत है एक रुपया बीघा, दो रूपये बीघा, ढाई रूपये बीघा, तीन रूपये बीघा और आज उन जमीनों की कीमत है एक करोड़ रूपये बीघा, दो करोड़ रूपये बीघा | किसानों से एक,दो,तीन रूपये बीघा ली गयी जमीन करोड़ों रूपये बीघा है तो जिन किसानों से ये जमीन ली गयी उनके साथ कितना अन्याय हुआ, इसकी कल्पना आप कर सकते हैं | अब रेलवे विभाग इस जमीन का इस्तेमाल कर के एक साल में 93 हजार 159 करोड़ रुपया कमाता है | आप सोचिये कि किसानों से जो 21 लाख 50 हजार एकड़ जमीन ली गयी भूमि अधिग्रहण कानून के आधार पर और उस जमीन का इस्तेमाल कर के रेल विभाग एक साल में 93 हजार 159 करोड़ रुपया कमाता है तो क्या रेल मंत्रालय का ये दायित्व नहीं बनता, ये नैतिक कर्त्तव्य नहीं बनता कि इस कमाए हुए धन का कुछ हिस्सा उन किसानों को हर साल मिलना चाहिए जिनसे ये जमीने छिनी गयी हैं और जिनकी ये जमीने कौड़ी के भाव में ली गयी हैं | मैं मानता हूँ कि किसानों की बराबर की हिस्सेदारी होनी चाहिए इस फायदे में, इस लाभ के धंधे में | रेलवे विभाग इस देश में कोई घाटा देने वाला विभाग नहीं है | उसका हर साल का नेट प्रोफिट 19 हजार 320 करोड़ रुपया है | अगर शुद्ध आमदनी में से ही 10 या 15 प्रतिशत हिस्सा उन किसानों के लिए निकल दिया जाये तो उन करोड़ों किसानों के जिंदगी का आधार तय हो जायेगा जिन्होंने आज से 50 -60 साल पहले कौड़ी के भाव में अपनी जमीन गवां दी थी रेलवे के हाथों में |

इसी तरह सरकार का एक दूसरा महत्वपूर्ण विभाग है जिसने किसानों से जमीन ली है भूमि अधिग्रहण के नाम पर, उस विभाग का नाम है भूतल परिवहन मंत्रालय | ये  भूतल परिवहन परिवहन मंत्रालय रोड और यातायात का काम देखती है | भारत में दो तरह के रोड होते हैं एक नेशनल हाइवे और दूसरा स्टेट हाइवे | आजादी के बाद इस देश में 70 हजार 5 सौ अड़तालीस किलोमीटर नेशनल हाइवे बनाया गया है और इस 70 हजार 5 सौ 48 किलोमीटर लम्बे सड़क के लिए किसानों से 17 लाख एकड़ जमीन छिनी गयी और इस जमीन पर सड़क जो बनती है उस पर ठेकेदार किलोमीटर के हिसाब से पैसा वसूलते हैं, लेकिन जिन किसानों ने हजारों एकड़ जमीन अपनी दे दी है उन्हें उस कमाई में से एक पैसा भी नहीं दिया जाता, इतना बड़ा अत्याचार इस देश में कैसे बर्दास्त किया जा सकता है | आप जानते हैं कि इस देश के नेशनल हाइवे पर जब हम चलते हैं तो हर पचास किलोमीटर पर टोल टैक्स हमको भरना पड़ता है और गाड़ी खरीदने के समय पूरी जिंदगी भर का रोड टैक्स हमको भरना पड़ता है | सरकार उस जमीन पर रोड बनवाकर टैक्स का पैसा तो अपने खाते में जमा करा लेती है लेकिन उन किसानों को टैक्स के पैसे में से कुछ नहीं दिया जाता जिनसे ये 17 लाख एकड़ जमीन छिनी गयी हैं भूमि अधिग्रहण कानून के हिसाब से और इन सड़कों पर कारें, ट्रक, बस आदि चलते हैं, देश की आमदनी उससे होती है और ये आमदनी हमारे GDP में जुड़ जाती है लेकिन उन किसानों का क्या जिन्होंने अपने खून-पसीने की कमाई की 17 लाख एकड़ जमीन एक झटके में हमारी सरकार को दे दी भूमि अधिग्रहण कानून के आधार पर, देश के लोगों का भला हों इस आधार पर | किसानों को कुछ तो नहीं मिल रहा है | इसी तरह से स्टेट हाइवे है, आप जानते हैं कि भारत में 29 राज्य हैं और एक एक राज्य में 10 से 12 हजार किलोमीटर का स्टेट हाइवे है | उत्तर प्रदेश में 14 हजार किलोमीटर, मध्य प्रदेश में 12 हजार किलोमीटर है और ऐसे ही हर राज्य में है और कुल मिलकर एक लाख किलोमीटर से ज्यादा स्टेट हाइवे है और इसमें किसानों की लाखों एकड़ जमीन जा चुकी हैं |
 

ऐसे ही स्कूल, कॉलेज बनवाने के लिए सरकार द्वारा जमीने ली गयी हैं | हमारे भारत में 13 लाख प्राइमरी, मिडिल और इंटर स्तर के स्कूल हैं और करीब 14 हजार डिग्री स्तर के कॉलेज है और 450 विश्वविद्यालय हैं | इन स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय में जो कुल जमीन गयी हैं वो करीब 13 लाख एकड़ जमीन है, ये जमीन भी किसानों ने शिक्षा के नाम पर केंद्र सरकार को दी है, राज्य सरकारों को दी है | आप जानते हैं कि कॉलेज बनाने के नाम पर कौड़ी के भाव में जमीन मिलती है फिर वो जमीन का उपयोग कर के बिल्डिंग बनायी जाती है, फिर donation ले के नामांकन दी जाती हैं विद्यार्थियों को, ये donation लाखों करोड़ों में होती है | कोई भी कॉलेज घाटे में नहीं चलता, सब के सब फायदे में चलते हैं, लेकिन उन किसानों को कुछ भी नहीं मिलता है जिन्होंने एक झटके में वो जमीन कॉलेज बनाने के लिए दे दी है | 


हमारे देश में हॉस्पिटल किसानों के जमीन पर बनाई गयी है | हमारे देश की सरकार ने 15 हजार 3 सौ 93 हॉस्पिटल इस देश में तैयार किये गए हैं और इन हॉस्पिटल को बनाने के लिए कुल लगभग 8 लाख 75 हजार एकड़ जमीने किसानों से ली गयी हैं | इन जमीनों पर जो हॉस्पिटल खड़े हुए हैं उन हॉस्पिटल को बनाने के समय सरकार का हॉस्पिटल बनाने वालों से समझौता हुआ है और उसमे ये लिखा गया है कि गरीब किसानों के लिए इन हॉस्पिटल में निःशुल्क इलाज मिलेगा तभी जमीन कम कीमत पर मिलेगी लेकिन कोई हॉस्पिटल गरीब किसानों को निःशुल्क इलाज नहीं देता है | इतने महंगे इलाज हैं कि हॉस्पिटल बनाने के लिए जिस किसान ने जमीन दे दी, उसी किसान को अपने घर वालों का इलाज कराने के लिए उस हॉस्पिटल में जब जाना पड़ता है तो जमीन बेंच कर जो पैसे आये हैं वो सारे पैसे खर्च करने पड़ते हैं तब जाकर उसके परिजन का इलाज होता है | मतलब पैसे वापस उसी हॉस्पिटल में चला जाता है | इसलिए किसान वहीं के वहीं रहते हैं | उनका शोषण वैसे के वैसे ही होता है | तो हॉस्पिटल के लिए ली गयी 8 लाख 75 हजार एकड़ जमीन हैं | इसी तरह भारत में भारतीय और विदेशी कंपनियों ने उद्योग स्थापित किये हैं और उन उद्योगों के लिए 7 लाख एकड़ जमीन ली गयी है और इसी तरह भारत देश में भारत सरकार का एक विभाग है दूरसंचार मंत्रालय | इसके भवन सारे देश में बने हुए हैं और उसके लिए 1 लाख 55 हजार एकड़ जमीन इसने किसानों से ले रखी है | इसी तरह भारत सरकार के 76 मंत्रालय हैं उन 76 मंत्रालयों और राज्य सरकारों के मंत्रालय और म्युनिसिपल कारपोरेशन के काम करने वाले विभाग हैं, तीनों स्तर पर लाखो एकड़ जमीन तो ली जा चुकी हैं अब तक सरकार के द्वारा और करीब 25-30 लाख एकड़ जमीन ली जा चुकी है कंपनियों और निजी व्यक्तियों के द्वारा | ये सारे जमीन किसानों के हाथ से निकल कर निजी संपत्ति बन चुकी है सरकार और कंपनियों की | और किसान वहीं गरीब के गरीब हैं, वो आत्महत्या कर रहे हैं, भूखों मर रहे हैं और उनकी जमीनों पर लोग सोना पैदा कर रहे हैं | ये अत्याचार ज्यादा दिनों तक अब बर्दाश्त नहीं किया जा सकता,  आजादी के 64 साल तक तो बर्दाश्त हो गया अब क्षमता नहीं है | 


कई बार मजाक होता है किसानों के साथ ये कि किसानों के जमीन का भाव तय किया जाता है एक रुपया स्क्वायर फीट, पचास पैसे स्क्वायर फीट, पंद्रह पैसे स्क्वायर फीट | आपको एक सच्ची घटना सुनाता हूँ | आज से लगभग बीस साल पहले गुजरात के गांधीधाम के पास एक द्वीप "सत्सैदाबेग" को वहां की तत्कालीन सरकार ने एक अमरीकी कंपनी 'कारगिल' को पंद्रह पैसे स्क्वायर फीट के दर से बेंच दिया था नमक बनाने के लिए | वो द्वीप 70 हजार एकड़ का था | जनहित याचिका के अंतर्गत जब ये मामला गुजरात उच्च न्यायलय में पहुंचा और गुजरात सरकार से जब ये पूछा गया तो उसने इस बात को स्वीकार किया और कहा कि ये जमीन भारत के नागरिकों के हित को ध्यान में रखकर विदेशी कंपनी को बेचीं गयी है| सरकार का तर्क था कि ये कारगिल कंपनी जो नमक बनाएगी वो भारत के आम नागरिकों के आवश्यकता को पूरा करेगी और ये समझौता देशहित में है तो दुसरे पक्ष ने भी तर्क दिया कि इसमें ऐसी कौन सी तकनीक ये लगायेंगे ? जो काम ये कारगिल कंपनी करेगी वो काम तो गांधीधाम के गरीब किसान भी कर सकते हैं और वो भी इस लोकहित का काम कर सकते हैं | कोर्ट ने जब इस मामले की जाँच कराई तब पता चला कि इसमें घोटाला हुआ है और घोटाला ये हुआ है कि इस जमीन को पंद्रह पैसे की दर से बिका तो दिखाया गया है लेकिन पिछले दरवाजे से भारी रिश्वत ली गयी थी | तो हाई कोर्ट के कारण उस समय के मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा और हाई कोर्ट ने इस समझौते को रद्द कर दिया था | समझौते को रद्द करने के पीछे कारण जो था वो भूमि अधिग्रहण का कानून नहीं था, क्योंकि भूमि अधिग्रहण के मामले में किसी कोर्ट में केस नहीं किया जा सकता और भूमि अधिग्रहण के मामले में तो ये समझौता एकदम पक्का था, ये समझौता तो रद्द हुआ था राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर क्योंकि जो जमीन इस कारगिल कंपनी को दी गयी थी वो पाकिस्तान सीमा के बिलकुल पास थी और इससे देश को खतरा था | इसके अलावा कोर्ट को ये भी बताया गया कि ये कारगिल कंपनी का मुख्य काम हथियार बनाना है | इस समझौते को रद्द करने के बाद अदालत ने एक टिपण्णी की थी  कि "ये सौदा हमने रद्द किया है देश की सुरक्षा को ध्यान में रखकर और करोडो नागरिकों के हित को ध्यान में रखकर और जल्द से जल्द इस कानून में परिवर्तन किया जाये, संसोधन किया जाये ताकि देश के जरूरतमंद नागरिकों की जमीनें सरकार बेवजह न छीन सके और करोड़ों किसानों को भूमिहीन न बनाया जा सके" | आज इस फैसले को आये 20 साल होने जा रहा है लेकिन भारत सरकार ने इसपर कोई ध्यान नहीं दिया | आज भी इस देश में ये कानून चल रहा है और किसानों की छाती पर मुंग दल रहा है | ऐसे कई उदहारण हैं जैसे दादरी (उत्तरप्रदेश), जहाँ एक भारतीय कंपनी को ताप बिजलीघर लगाना था और 450 एकड़ जमीन की जरूरत थी और वहां की तत्कालीन सरकार ने जरूरत से सौ गुना ज्यादा जमीन किसानों से छीन लिया था, नंदीग्राम (पश्चिम बंगाल अब पश्चिम बंग) में इंडोनेशिया की कंपनी से समझौता पहले हुआ था और जमीन बाद में अधिगृहित की गयी थी जिसका विरोध वहां के किसानों ने किया था लेकिन सरकार ने न कोई मदद की और न ही कोर्ट ने लेकिन किसानों के एकता ने उनको वहां सफलता दिलाई थी, ऐसे ही सिंगुर में हुआ था |
 

अभी हमारे देश में आर्थिक उदारीकरण के नाम पर एक योजना चल रही है जिसका नाम है Special Economic Zone (SEZ ) | इसके नाम पर हजारों लाखों एकड़ जमीन किसानों से छिनी जा रही है और अलग अलग कंपनियों को बेंची जा रही है और इन कंपनियों को ये अधिकार दिया जा रहा है कि ये कंपनियां इन खेती की जमीनों को औद्योगिक जमीन बना कर दोबारा बेंच सकें | किसानों से जब जमीन ली जाती है तो उसका भाव होता है पाँच हजार रूपये बीघा, दस हजार रूपये बीघा और वही जमीन जब ये कंपनियां दोबारा बेंचती हैं तो इस जमीन का भाव होता है एक लाख रूपये बीघा, दो लाख रूपये बीघा और कभी-कभी ये पचास लाख रूपये बीघा और कभी-कभी एक करोड़ रूपये बीघा तक भाव हो जाता है |  हमारे देश में किसानों से जमीन छिनकर कौड़ी के भाव में, कंपनियों को कम कीमत पर बेंच देना और बीच का कमीशन खा जाना, ये सरकारों ने अपना नए तरह का धंधा बना लिया है और इस कानून की आड़ में भारत के लाखों-करोडो किसानों का शोषण हो रहा है |

दिल्ली के नजदीक एक गाँव है गुडगाँव | कुछ साल पहले वो ऐसा नहीं था, थोड़े दिन पहले यहाँ की जमीन यहाँ के किसानों से ली गयी | यहाँ के किसानों को ये लालच दिया गया कि बहुत पैसे मिल रहे हैं अपनी जमीन बेच दो | उन्होंने अपनी जमीन बेच दी और उन पैसों से कोठियां बनवा ली, गाड़ियाँ ले ली | अब वो कोठिया और गाड़ियाँ एक दुसरे के सामने खड़ी रहती हैं और एक दुसरे को मुंह चिढ़ा रही हैं | क्योंकि किसानों की आमदनी बंद हो गयी है, जब खेत थी तो खाने को अनाज मिलता था और बचे हुए अनाज को बेच के पैसा मिलता था और उससे जिंदगी आसानी से चलती थी लेकिन अब वही किसान वहां बने अपार्टमेन्ट में गार्ड का काम कर रहे हैं, माली का काम कर रहे हैं, इस्त्री करने का काम कर रहे हैं, सब्जी बेचते हैं, दूध बेचते हैं और उनके घर की महिलाएं उन कोठियों में बर्तन मांजने का काम करती हैं, झाड़ू और पोंछा लगाती हैं | जमीन जब चली जाती है तो सब कुछ चला जाता है, ना इज्जत बचती है, ना आबरू बचती है, ना पैसा बचता है, ना सम्मान बचता है, ना संसाधन बचते हैं | हमारे देश में गुडगाँव की कहानी जो है वैसे ही बहुत सारे किसानों की है जिन्होंने इस भूमि अधिग्रहण कानून के तहत जमीने या तो बेचीं या उनसे छीन ली गयी | इन सब किसानों की दुर्दशा इस देश में हो रही है | 


मैं थोड़े दिनों से इस कानून का अभ्यास कर रहा हूँ तो मुझे पता चला है कि हमारे देश का जो संसद भवन है, राष्ट्रपति भवन है वहां पर एक गाँव हुआ करता था , उस गाँव का नाम था मालचा | ये मालचा गाँव पंजाब राज्य का इलाका था बाद में हरियाणा बना तो ये गाँव हरियाणा के अधीन आ गया | इस गाँव के किसानों से अंग्रेजों ने मारपीट कर, डरा-धमका कर जमीन छिनी थी | किसान जमीन देने को तैयार नहीं थे, अंग्रेज सरकार ने जबरदस्ती किसानों से ये जमीने छिनी थी | भूमि अधिग्रहण कानून के हिसाब से नोटिस दिया और सन 1912 में मालचा गाँव के किसानों से तैंतीस (33 ) हजार बीघा जमीन छीन ली थी सरकार ने | किसानों ने जब विरोध किया तो अंग्रेज सरकार ने वैसे ही गोली चलायी जैसे आज चलती है और उस गोलीबारी में 33 किसान शहीद हुए थे, उनकी लाश पर अंग्रेज सरकार ने इस जमीन को भारत के संसद भवन और राष्ट्रपति भवन में बदल दिया और मुझे बहुत अफ़सोस है ये कहते हुए कि जिन किसानों से ये जमीने छिनी गयी उनको आज 100 साल बाद (1912 -2011) और आजादी के 64 साल बाद तक एक रूपये का मुआवजा नहीं मिल पाया है और उन किसानों के परिजन डिस्ट्रिक्ट कोर्ट से हाईकोर्ट और हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक चक्कर लगाते लगाते थक गए हैं और वो कहते हैं कि "जैसे हम अंग्रेजों के सरकार का चक्कर लगाते थे, आजादी के बाद हम हमारी सरकार के वैसे ही चक्कर लगा रहे हैं हम कैसे कहें कि देश आजाद हो गया है, कैसे कहें कि देश में स्वाधीनता आ गयी है"| वो कहते हैं कि "हमारे पुरखे लड़ रहे थे अंग्रेजी सरकार से मुआवजे के लिए और वो मर गए और अब हम लड़ रहे हैं भारत सरकार से कि हमें उचित मुआवजा मिले, हो सकता है कि हम भी मारे जाएँ और हमारी आने वाली पीढ़ी देखिये कब तक लडती है" | हमारे देश का राष्ट्रपति भवन, संसद भवन जो सबसे सम्मान का स्थान है इस देश में वो इसी भूमि अधिग्रहण कानून के अत्याचार का प्रमाण है, शोषण का प्रमाण है | किसानों से जबरदस्ती छीन कर बनाया गया भवन है ये इसलिए मुझे नहीं लगता कि इस संसद भवन या राष्ट्रपति भवन से हमारे देश के लोगों के लिए 
कोईसद्कार्य हो सकता है, कोई शुभ कार्य हो सकता है, कोई अच्छा कार्य हो सकता है | आजादी के 64 सालों में ऐसा कोई नमूना तो मिला नहीं मुझे | ये कहानी बहुत दर्दनाक है, बहुत लम्बी है, मैं लिखता जाऊं और आप पढ़ते जाएँ | इस अंग्रेजी भूमि अधिग्रहण कानून के इतने अत्याचार हैं इस देश के किसानों पर कि जिस पर अगर पुस्तक लिखी जाये तो 1000 -1200 पन्नों के 50 -60 खंड बन जायेंगे | पुरे देश में इतने अत्याचार और शोषण इस कानून के माध्यम से हुए हैं | 

उपाय क्या है ? 

अब आपके मन में सवाल हो रहा होगा कि उपाय क्या है ? उपाय ये है कि किसानों को जमीन का उचित मुआवजा तो मिले ही साथ ही साथ उनके जमीनों से होने वाले मुनाफे में किसानों को भी हिस्सा मिलना चाहिए, कुछ बोनस मिलना चाहिए | जिस कार्य के लिए किसानों की जमीन ली जाये उसमे किसानों का आजीवन हिस्सा होना चाहिए | जो भी मंत्रालय, जो भी विभाग, जो भी कम्पनी, जो भी कारखाना उनकी जमीन ले, तो जमीन का मुआवजा तो वो दे ही साथ ही साथ उस जमीन की मिलकियत जिंदगी भर किसानों की रहनी चाहिए और उस मिलकियत में बराबर का एक हिस्सा उनके शुद्ध मुनाफे में से किसानों को मिलनी ही चाहिए तब जाकर हमारे देश के किसानों की हैसियत और स्थिति सुधरेगी | आपको एक छोटी सी बात बताता हूँ, आप कोई कारखाना लगाते हैं या अपार्टमेन्ट बनाते हैं और उसके लिए बैंक से ऋण लेते हैं तो आप जानते हैं, बैंक का क़र्ज़ जब तक आप वापस नहीं करते बैंक आपके कारखाने में हिस्सेदार होता है | आपने बैंक से एक करोड़ का या जितना भी क़र्ज़ लिया और जब तक आप क़र्ज़ चुकाते नहीं , भले ही आप उसका ब्याज चूका रहे हो बैंक आपके उस संपत्ति में हिस्सेदार होती है | जिस किसान ने अपनी  जमीन दी है और उसके जमीन पर वो कारखाना खड़ा किया गया है तो वो किसान क्यों नहीं उस कारखाने में हिस्सेदार होना चाहिए और वही किसान नहीं उसकी आने वाली पीढियां भी इसका लाभ उठायें ये नियम होना चाहिए तभी किसानों की स्थिति सुधरेगी | ये इस देश की जनता कर सकती है क्यों कि देश की जनता में वो ताकत है, सिर्फ ताकत ही नहीं सबसे ताकतवर है लेकिन उसे कोई जानकारी तो हो |   

अंत में आजकल भारत में राष्ट्रहित की बात करने वालों को, देश की समस्याओं के बारे में बात करने वालों को RSS का agent कहने की परंपरा सी हो गयी है और चुकि मेरा ये लेख राष्ट्र कोसमर्पित है, किसानों को समर्पित है इसलिए मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी अगर कोई मुझे RSS का agent कहे | आप ही के बीच का, आपका दोस्त | अपना कीमती समय देने के लिए आपका धन्यवाद् |   

रवि 

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