

उन चेहरों ने आवाम की नज़रों में उतार कर सकून से नवाज़ा...और वो सोच हर दिल अज़ीज़ बन गई...वो भी कुछ ख्वाइश रखती थी...कुछ उम्मीदें थीं उसकी आवाम से...चाहत थीं उसकी राजधानी में उसका आशिआना उसकी यादगार के रूप में संभाला जाए....वो चारदीवारी जिसके भीतर कई रचनाओं ने जनम लिया...वो छत...जो कलम और वर्क की महोब्बत की साक्षी थी...उसे सुरक्षित रखा जाये...वो फिजा इमरोज़ के तानाफुस से महकती रहे...मगर जिस्मानी तौर पर अलविदा कहने के महज़ पांच वर्ष बाद लखते जिगर द्वारा बेच दिया गया...न केवल सौदा हुआ उन तमाम जज़्बात और एहसास का जो उस घरोंदे की नींव थी ...बल्कि उन्हें धुल में मिला दिया गया....और सरकार और आवाम खामोश खड़ी देखती रही...उस सकून के सिले में क्या खूब नजराना दिया है हमने उस चाहत को....जी बी
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