Saturday, June 25, 2011

आपातकाल के काले दौर की यादें अडवाणी जी के शब्दों में

भारत की स्वतंत्रता के छह दशकों में दो तिथियाँ ऐसी हैं, जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता है और ये दोनों जून 1975 से जुड़ी हुई हैं। इनमें से एक है12 जून। सभी राजनीतिक विश्लेषकों को अचंभे में डालते हुए गुजरात विधानसभा चुनावों में इंदिरा कांग्रेस की भारी पराजय हुई। दूसरा, उसी दिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रायबरेली से इंदिरा गांधी के लोकसभा में चुने जाने को निरस्त कर दिया और इसके साथ ही चुनावों में भ्रष्टाचार फैलाने के आधार पर उन्हें छह वर्षों के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया।
दूसरी तिथि है 25 जून। लोकतंत्र-प्रेमियों के लिए यह तिथि स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे काले दिवसों में से एक के रूप में याद रखी जाएगी। इस दुर्भाग्यपूर्ण तिथि से घटनाओं की ऐसी शृंखला चल पड़ी, जिसने विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को विश्व की दूसरी सबसे बड़ी तानाशाही में परिवर्तित कर दिया।
दिल्ली में जून के महीने में सबसे अधिक गरमी होती है। अतएव जब दल-बदल के विरुध्द प्रस्तावित कानून से संबंधित संयुक्त संसदीय समिति ने बगीचों के शहर बंगलौर, जो कि ग्रीष्मकाल में भी अपनी शीतल-सुखद जलवायु के लिए विख्यात है, में 26-27 जून को अपनी बैठक करने का निर्णय लिया तो मुझे काफी प्रसन्नता हुई। हम दोनोंअटलजी और मैंइस समिति के सदस्य थे, जिसके कांग्रेस (ओ) के नेता श्याम नंदन मिश्र भी सदस्य थे। हालाँकि, जब 25 जून की सुबह मैं दिल्ली के पालम हवाई अड्डे पर बंगलौर जानेवाले विमान पर सवार हुआ तो मुझे इस बात का जरा भी खयाल नहीं था कि यह यात्रा दो वर्ष लंबी अवधि के लिए मेरे 'निर्वासन' की शुरुआत है।
लोकसभा के अधिकारियों ने बंगलौर हवाई अड्डे पर मेरे सहयात्री मिश्र और मेरी अगवानी की। राज्य विधानसभा के विशाल भवन के पास स्थित विधायक निवास पर हमें ले जाया गया। अटलजी एक दिन पहले ही वहाँ पहुँच चुके थे।

26 जून को सुबह 7.30 बजे मेरे पास जनसंघ के स्थानीय कार्यालय से एक फोन आया। दिल्ली से जनसंघ के सचिव रामभाऊ गोडबोले का एक अत्यावश्यक संदेश था। वे कह रहे थे कि मध्य रात्रि के तुरंत बाद जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई और अन्य महत्त्वपूर्ण नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया है। गिरफ्तारी जारी है। पुलिस शीघ्र ही अटलजी और आपको गिरफ्तार करने के लिए पहुँचने वाली होगी।

पुलिस हम लोगों को गिरफ्तार करने के लिए सुबह 10.00 बजे आ पहुँची। प्रख्यात समाजवादी नेता मधु दंडवते भी एक अन्य संसदीय समिति की बैठक में भाग लेने के लिए बंगलौर में मौजूद थे, उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। हम चारों को बंगलौर सेंट्रल जेल ले जाया गया।

जेल
हम लोगों को आमने-सामने स्थित दो बड़े आकार के कमरों में रखा गया। श्याम बाबू और दंडवते एक कमरे में थे तथा अटलजी और मैं दूसरे कमरे में। हम लोग जल्द ही वहाँ के अनुकूल हो गए। जेल अधिकारियों ने हमें खाना पकाने के बरतन, चीनी मिट्टी के बरतन, खाद्य सामग्रीअन्न और सब्जी दिए, जैसाकि कारागार नियमावली में विनिर्देश था। अटलजी ने स्वेच्छया खाना पकाने की देखभाल करना स्वीकार किया। 'लोकसभा हू'ज हू' में उनकी रुचियों के अंतर्गत 'खाना पकाना' दिया गया है। वे जो खाना पकाते थे, वह सादा किंतु संपूर्ण आहार होता था।

बंगलौर जेल में मुझे अपने जीवन का एक विरल वरदान जो प्राप्त हुआ, वह अकेलापन, और इसका तात्पर्य थाइसका अच्छा उपयोग करना। एक अच्छे पुस्तकालय और शांत अध्ययन-कक्ष के अलावा जेल में एक बैडमिंटन कोर्ट एवं टेबल टेनिस हॉल था, जहाँ मैं नियमित रूप से खेलता था। असल में जयंत, जो कि अब एक शीर्ष टेबल टेनिस खिलाड़ी है, ने सर्वप्रथम इस खेल के प्रति रुचि उस समय विकसित की, जब वह कमला और प्रतिभा के साथ पहली बार मुझसे बंगलौर जेल में मिलने आया था। चूँकि मेरे कई साथी कैदी कर्नाटक से थे, मैंने कन्नड़ सीखना शुरू कर दिया और समाचार-पत्रों की मुख्य खबर पढ़ने और कुछ प्रारंभिक वाक्य बोलने में काफी प्रगति कर ली। समय बिताने का मेरा सर्वप्रिय साधन निश्चित रूप से पुस्तकें और पुस्तकालय था।

जेल के दौरान मेरे सुखद क्षण वे होते थे, जब मुझे या तो कमला या मेरे बच्चों द्वारा लिखे पत्र प्राप्त होते थे अथवा वे मुझसे मिलने बंगलौर आते थे। मुझे पता चला कि अध्यापिका अकसर प्रतिभा और जयंत से पूछती थी'पापा वापस आए?' मेरे बच्चों को यह कहते हुए बहुत कष्ट होता था'नहीं, अभी नहीं।' मुझे अपने कारावास का कभी कोई पछतावा नहीं हुआ, चूँकि यह लोकतंत्र की रक्षा के लिए चुकाया जानेवाला अनिवार्य मूल्य था। फिर भी, कोई भी ऐसी बात जो मेरे बच्चों को कष्ट दे, मुझे क्षोभ से भर देती थी।

भारतीय इतिहास के सर्वाधिक अंधकारपूर्ण कालखंड की समाप्ति
वर्ष 1976 के अस्त होते-होते इस बात के संकेत बढ़ने लगे थे कि आपातकालीन सूर्य भी अस्त होगा।
इंदिरा गांधी की अलोकप्रियता देश में और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती जा रही थी। उनका एकमात्र समर्थक सोवियत संघ और कम्युनिस्ट गुट के कठपुतली शासक थे।

16 जनवरी को मैंने डायरी में लिखा'इंडियन एक्सप्रेस में प्रमुख खबर है कि लोकसभा चुनाव मार्च के अंत अथवा अप्रैल के आरंभ में होंगे और इस संबंध में औपचारिक घोषणा संसद् के अगले सत्र के आरंभ में की जाएगी।' इसके दो दिन पश्चात् 18 जनवरी, 1976 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग किए जाने की घोषणा की।

डायरी में मेरी आखिरी टिप्पणी, जो 18 जनवरी को मेरे स्वतंत्र होने से कुछ पहले लिखी गई थी, इसप्रकार हैदोपहर में लगभग 1.30 बजे जेल अधीक्षक छबलाणी मेरे कमरे में आए और कहा कि एक वायरलेस संदेश दिल्ली से आया है, जो मेरे कारावास को समाप्त करने के संबंध में है.......

चुनावों की घोषणा और जनता पार्टी का जन्म
बंगलौर में एक दिन व्यतीत करने के बाद मैं मद्रास (अब चेन्नई) चला गया, जहाँ से मैंने 20 जनवरी को दिल्ली के लिए उड़ान भरी। कमला और बच्चे रेलगाड़ी से घर लौटे। इस समय तक अटलजी भी रिहा हो चुके थे। इससे पहले उन्हें दिल्ली के एम्स (AIIMS) अस्पताल में भेज दिया गया था, जहाँ वे स्लिप डिस्क ऑपरेशन के बाद स्वास्थ्य-लाभ कर रहे थे। मोरारजी भाई को तावडू (हरियाणा) के कारावास से मुक्त किया गया। तीन दिन बाद 23 जनवरी को इंदिरा गांधी ने मार्च में चुनाव कराए जाने की घोषणा की। इस घोषणा के बाद कई अन्य राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया।

देश में राजनीतिक घटनाक्रम बिजली की-सी तेजी से बदला। जिस दिन नए चुनावों की घोषणा हुई उसी दिन जयप्रकाशजी ने जनता पार्टी के निर्माण की घोषणा की और अट्ठाईस सदस्यीय एक राष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति बनाई, जिसमें मोरारजी देसाई को अध्यक्ष और चरण सिंह को उपाध्यक्ष बनाया गया। इसके सदस्य चार दलोंजनसंघ, कांग्रेस (ओ), सोशलिस्ट पार्टी और लोकदल से थे, जिन्होंने विलय के बाद एक नए दल को जन्म दिया। मधु लिमये, रामधन और सुरेंद्र मोहन के साथ मैं इसके चार महासचिवों में से एक था।

जनता पार्टी के जन्म से देश में राजनीतिक स्थितियाँ बदल गईं। ऐसा लगता था कि यह एक विशाल और हितैषी शक्ति है, जो भारत को उन्नीस महीने के निरंकुश शासन से मुक्ति दिलाएगी। हालाँकि चुनाव होने में अभी कुछ सप्ताह शेष थे और लोगों को अभी आपातकाल पर अपना फैसला देना था, लेकिन हवा में तानाशाही पर लोकतंत्र की विजय की तरंग घुल गई थी। मुझे लगता था कि भारत एक नाटकीय कायांतरण के शीर्ष पर खड़ा है, जो एक युग के समापन और एक नए युग के उदय का संकेत है। इसकी तुलना तीन दशक पूर्व वर्ष 1947 में भारत द्वारा पारगमन के संबंध में किए गए अनुभव से की जा सकती थी। निश्चित रूप से भारत में यह दूसरा स्वतंत्रता संग्राम विजयी हुआ था।

लोकसभा चुनावों की तैयारी के लिए बहुत कम समय बचा था, जो कि 16 मार्च को होने अधिसूचित थे। जनता पार्टी को चुनाव प्रचार के आरंभ से ही कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। हमारा झंडा और चुनाव-चिह्न नए थे, इसलिए मतदाता इसे कम जानते थे। इसके विपरीत, लोग कांग्रेस के चुनाव-चिह्न चरखा से भली-भाँति परिचित थे। हमारी पार्टी के पास संसाधनों का अभाव था, जबकि कांग्रेस के पास अपार धन था। कांग्रेस के पास सरकार-नियंत्रित मीडिया भी था। चूँकि आपातकाल अभी भी औपचारिक रूप से लागू था, लोग आमतौर पर डरे और सशंकित थे। वे खुले तौर पर इस बात पर चर्चा करने को तैयार नहीं थे कि वे अपना वोट किसे देंगे। लेकिन यह सच है कि जनता पार्टी की चुनाव सभाओं में काफी भीड़ जुटती थी; किंतु आरंभिक दिनों में कांग्र्रेस-विरोधी लहर का कोई संकेत नजर नहीं आता था। वास्तव में कांग्रेस के झंडे गाँवों और कस्बों दोनों में जनता पार्टी से बहुत अधिक संख्या में लगे थे।

फिर भी हवा में बदलाव का एक झोंका आ रहा था। एक निर्वाचक भूकंप के पूर्व कंपन का अनुभव हो रहा था।

यह स्पष्ट रूप से सिध्द हो गया, जब 20 मार्च को चुनाव परिणाम घोषित हुए।कांग्रेस स्वतंत्रता के बाद पहली बार पराजित हुई। जनता पार्टी को 542 सदस्यीय सदन में 295 सीटों के साथ स्पष्ट बहुमत मिला। कांग्रेस की सूची मात्र 154 सीटों तक सीमित रह गई। सत्ताधारी दल के लिए यह पराजय उस समय और शर्मनाक हो गई, जब यह खबर फैली कि इंदिरा गांधी रायबरेली से और उनके पुत्र संजय गांधी अमेठी से चुनाव हार गए हैं। ये दोनों उनके अपने निर्वाचन क्षेत्र थे। 
आपातकाल आधिकारिक रूप से 23 मार्च, 1977 को समाप्त हो गया। इसके साथ ही भारतीय गणतंत्र के इतिहास की सर्वाधिक अंधकारपूर्ण अवधि का अंत हो गया। -लालकृष्ण आडवाणी की वैब साईट से साभार 

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