Wednesday, May 11, 2011

साजो में तुमको खोजा है,रागों में तुम्हे पुकारा है

पाली (राजस्थान) में आठ अगस्त 1985 को जन्मे राजेश नारायण वैष्णव के अंतर मन में एक तड़प है जो बाहर आने का प्रयास कर रही है कविता को माध्यम बना कर. भावनायों के वेग में अभी तकनीकी कमजोरियां दूर करने का महत्वपूर्ण काम अभी बाकी है लगता है आज कल बैंगलोर की एक कम्पनी के साफ्टवेयर डिवेलपर होने के कारण ९स तरफ भी जल्द विजयी होंगें.इन रचनायों में अप्प राजेश के कवी मन की झलक देख पायेंगे. इन रचनायों पर आपके विचारों की इंतजार तो रहेगी ही. रेक्टर कथूरिया 

प्रेम  संगीत 
मत छेड़ो ह्रदय के तारों को,
तेरे ही स्वर के सुर है सजे,
प्रति क्षण मेरी इन श्वासों में,
प्रीत का ही संगीत बजे||


झंकृत स्वरों का मधुर गीत,
मनमीत तुम्हे ही मन है,
साजो में तुमको खोजा है,
रागों में तुम्हे पुकारा है||

इस ह्रदय सितार को जब भी तुम,
मृदु हस्त से झंकृत करती हो,
ये ह्रदय उच्रिन्खाल होता है,
लहू स्पंदन भी थम जाता है||

हर साधक प्रीत संगीत का,
स्व-मनमीत से बस इतना ही कहे,
रुके न ये तेरी अंगुलिका,
इस साज को जब प्रेरित तू करे ||
                            -राजेश वैष्णव 
                         
मेरे मीत
हे मेरे मीत, ओ मेरे साथी,
ओ मेरे मार्गदर्शक,
जब न होते तुम मेरे संग,
ये जीवन पथ लगता है निरर्थक,
मित्र तुम हो वो सारथी,
जिसने नीति विचारक सम,
था परीक्षण  के क्षण में,
इस अर्जुन का साथ दिया,
देकर के गीता स्वरुप घ्यान मुझे,
हर बाधा, हर अड़चन से,
मुझको मुक्त किया,
ईर्ष्या तप्त ज्वलित धरती पर,
क्या करूँ वर्णित जो साथ दिया,
जैसे प्रचंड ज्वलित थल को,
किसी ने हिम धार से सींचित किया,
जब भी तुम्हारे सानिध्य में ,
हे मीत मेरे, मैं रहता हूँ ,
तब तब इस मन को मलय पवन से,
स्पर्श हुआ मै पाता हूँ ,
मेरी कविता भर में नहीं वर्णित,
ह्रदय में स्थान वही तुम पाते हो,
जो स्थान है सर्वातिप्रिय  का,
उनसे भी प्रिय हुए  जाते हो ||
                             -राजेश वैष्णव

नेह की देहरी
नेह की इस देहरी पर,
देह अपनी सेंकता हूँ,
मै डाल भर हो कर भी देखो,
बोझ कितने झेलता हूँ,
मै कभी कल्लोल गिरते बर्तनों में,
मै कभी मुस्कान उन की चमक में,
एक नन्ही पौध हो कर भी,
पेट कितने सींचता हूँ,
नेह की इस देहरी पर.........

माँ नहीं देखती मुझे,
मै दूर जो हूँ,
क्या बताऊँ भाग्य के हाथो,
बड़ा मजबूर जो हूँ,
कभी किसी पुर्जे को,
किस्मत-कल से,
फिर से जोड़ता हूँ,
नेह की इस देहरी पर.........

किसी विद्यालय की घंटी,
दौड़ क्यों मेरी न बनती,
किसी पिता की उंगली,
साथ क्यों मेरा न बनती,
भाग्य के ऐसे अंधेरो को,
हाथो से नित पोंछता हूँ,
नेह की इस देहरी पर.........

मेरे विधाता बैठ शीशे के भरम में,
क्यों कि सतत है ये हाथ,जीवन-भरण में,
चरण छू आशीष,
जिनके ले न पाया ,
आज उनके ही चरण,
मै सीधता हूँ,
नेह की इस देहरी पर.........

नेह की इस देहरी पर,
फिर फूल देखो इक खिला,
न फिर टूटे इस पर वही,
बोझ ढोने की प्रथा,
ले चला अपने हाथो में,
पार्श्व में इस मार्ग के,
जिस मार्ग पर कभी,
दुर्भाग्यवश न मै चला....
            -राजेश वैष्णव    

6 comments:

श्यामल सुमन said...

अलग अलग भाव और रंगों की प्यारी रचना राजेश जी। बहुत खूब।

सादर
श्यामल सुमन
+919955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

Rajesh Vaishnav said...

SHYAMAL SUMAN JI.... DHANYAWAD.

Priyanka Vaishnav said...

You are a wonderful writer.. just love your poems... I have read most of them and loved every poem more than the last one...

Regards,
Priyanka

Priyanka Vaishnav said...

Loved your all the poems. You are a wonderful poet... i have read almost all the poems of you... and You know what? everytime.. i find the new poem better than the last one... Keep Writing & Keep growing.. awaiting for more poems to come up on your blog... God bless you......

Regards
Priyanka

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Regards
Priyanka

priyadarshini said...

relly gud one.........
another phase of ur life