जन्म ,मरण और फिर जन्म कहीं |
जब तक रहती है आत्मा विराजमान
मानव देखता है स्वप्न नए
रचता रहता है नए कीर्तिमान
अंतकाल फिर मिलती है काया ‘उसमे’
मिट्टी हो जाती है फिर मिट्टी
खोकर अपना आस्तित्व इस धरा में
एकाकार होता है ईश से
नव निर्माण के लिए आतुर,और
पाकर गोद इस नर्म धरती की
अंकुरण होता है फिर
जैसे कोई कोमल कोपल नयी
फैलाती है शाखाएं
इस दिशाहीन जगत में
रचती है जाल रेखाओं का
मायाजाल अनगिनत आशाओं का
चक्र चलता रहे युहीं अंतहीन
जन्म ,मरण और फिर जन्म कहीं
भ्रमित है मानव, संभवतः
क्या, क्यों और कहाँ
होना है स्थिर मुझको अंततः
--पूनम मटिया
3 comments:
shukriya RECTOR ji .....is kavtita ke jariye mai maanav kii pasho-pesh ki stithi ko bayan karna chah rahi thee ......poonam
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