आज के इस युग में भी जब सब कुछ बिकायू हो चूका है अलोक तोमर एक अपवाद बने हुए थे. एक ऐसी मिसाल जो सब के सामने होनी भी चाहिए. न डॉ, न दबाव, न रंजिश न लिहाज़....या बेबाकी थी उनके लेखन में. केवल लेखन ही नहीं जीवन भी तो ऐसा ही था खुली किताब की तरह. जो मन में होता वही जुबान पे भी और वही कलम से निकले शब्दों में भी. बार बार सच बोला, बार संकट उठाये और बार बार उस गीत को जी कर दिखाया...न मूंह छुपा के जिओ और न सर झुका के जिओ...ग़मों का दौर भी आये तो मुस्करा के जिओ...
धारदार पत्रकारिता और सच कहने की दलेरी को उन्होंने कठिन समय में भी जिंदा रखा. उनके जाने से सिर्फ इस बार ही नहीं हमेशां के लिए होली का त्यौहार फीका फीका सा हो गया है. खबर सुनी तो यकीन नहीं आया. पता किया तो मालूम हुआ कि रविवार को सुबह ग्यारह बज कर दस मिनट पर उन्होंने अंतिम सांस ली.
पचास की उम्र कोई जाने की उम्र तो नहीं होती पर सच बोलने की साधना करते करते कलम के इस बहादुर सिपाही ने इस उम्र में ही अलविदा कह दी. मध्यप्रदेश के मुरैना जिले में 1960 में जन्मे अलोक तोमर के लिए नवंबर-84 में हुआ सिख्खों का हत्याकांड एक चुनौती की तरह था लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार किया.उनकी सच बोलने की हिम्मत ने उन्हें जनसत्ता में बुलंदियों पर पहुंचा दिया. वह खबर एजेंसी वार्ता से भी जुड़े रहे. टीवी चैनल सीएनईबी से भी. यह संख्या बहुत लम्बी है संक्षिप्त में कहें तो यही की वह हर जगह सच इ जुड़े थे और आम इंसान की लड़ाई लड रहे थे. इस जंग में उन्होंने कभी परवाह नहीं की चाहे सामने कोई अख़बार हो या फिर चैनल. सच सामने लाने के लिए वह सारे बखिये उधेड़ देते. अब सच का वह पहरेदार नहीं रहा. उनके चाहने वाले अगर सच की जंग को जारी रख सकें तो यह उन्हें सच्ची श्रद्दांजलि होगी. उन्होंने जो असू; अपनाये, जिन्हें अपना खून इ कर भी जिंदा रखा उनकी रक्षा का फ़राज़ हम सभी का बनता है. उनके पास बहुत से मौके आये थे. रातो रात वह भी मिडिया किंग बन सकते थे. नयाचैनल शुरू करने या नया अख़बार निकालने के सभी जुगाड़ों से वह अवगत थे पर वह सच का साह न छोड़ सकते थे और न ही उन्होंने छोड़ा. --रेक्टर कथूरिया .
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