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दर्द और रोग से ग्रस्त मरीजों को इच्छा मृत्यु दिए जाने की मांग करने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि उन्हें मारने की इजाजत नहीं दी जा सकती.माननीय अदालत ने इतने वर्षों से उनकी देखभाल कर रहे अस्पताल स्टाफ की भी तारीफ की. इच्छा मौत की याचिका रद्द होने की खबर आते ही अस्पताल के स्टाफ ने खुशियाँ मनायीं और एक दुसरे का मूंह भी मीठा कराया. गौरतलब है कि जस्टिस मार्केंडेय काटजू और जस्टिस ज्ञानसुधा मिश्रा की बेंच ने फैसला देते हुए कहा कि कुछ असाध्य बीमारियों से पीडि़त मरीजों के मामले में कानूनी तौर पर लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाया जा सकता है. लेकिन अरुणा शानबाग के मामले में तथ्य, परिस्थिति, डॉक्टरों की राय आदि को ध्यान में रखकर यह इजाजत नहीं दी जा सकती. बेंच ने यह भी कहा कि वर्तमान में इच्छा मृत्यु के संबंध में कोई कानून भी मौजूद नहीं है लेकिन कुछ मामलों के लिए कानून बनाया जा सकता है.कभी किसी ने शायराना अंदाज़ में कहा गया था कि जो दवा के नाम पे ज़हर दे उसी चारागर की तलाश है. मन और तन की यह हालत अक्सर उस समाया होती है जब दर्द सभी सीमाएं पार कर जाता है. जब हर सीमा पार करके भी दर्द से निजात नहीं मिलती. दर्द जब हद से बढ़ कर भी दवा नहीं होता तो फिर केवल मौत के मूंह में जिंदगी महसूस होने लगती है. ऐसी हालत में मौत की मांग बार बार उठती है. लेकिन यह दुनिया है. मांगने से यहां कुछ नहीं मिलता. न जिंदगी न मौत. साहिर लुधियानवी साहिब ने कभी लिखा था..
मौत कभी भी मिल सकती है, लेकिन जीवन कल न मिलेगा. मरने वाले सोच समझ ले, फिर तुझको यह पल न मिलेगा.
लेकिन विज्ञान की तरक्की ने सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ को आसान भी कर दिया है. आज मौत भी मिल सकती है और वो भी दर्द के बिना. मेडिकल क्षेत्र में एक्टिव यूथनेशिया एक ऐसी विधि है जिसमें मरीज को जहर आदि का इंजेक्शन लगाकर सीधे तौर पर मार दिया जाता है लेकिन ऐसा करते या कराते वक्त पाप की भावना अगर मन में आ जाये तो इसमें भागीदार रहे लोग खुद को उम्र भर माफ़ नहीं कर पाते. उन्हें लगता है कि उन्हों ने हत्या कि है पाप किया है, किसी से जीने का अधिकार छीना है.इस लिए एक दूसरा तरीका भी है जिसका नाम है यूथनेशिया बाई ओमीशन: इस तरीके के अंतर्गत इच्छा मौत को चाहने वाले मरीज को दी जा रही जीवन रक्षक सुविधा हटा ली जाती है और सब कुछ प्रकृति पर छोड़ दिया जाता है. मरीज़ खुद-बी-खुद मौत की आगोश में पहुँच जाता है. इसमें भागीदार लोग खुद को कसूओर्वार समझाने कि ग्लानी से मुक्त रह जाते हैं. इसके अलावा एक तीसरा तरीका भी है जिसे कहा जाता है पैसिव यूथनेशिया. इस विधि में जीवन रक्षक प्रणाली (लाइफ सपोर्ट सिस्टम), दवाएं और इलाज रोकना, भोजन और पानी की आपूर्ति रोकना, हृदय और सांस के लिए मदद रोकने जैसी चीजें शामिल हैं.उनके साथ हुए कुकर्म का उन्हे इंसाफ तो नही मिला, लेकिन जिंदा लाश ढोना अब मुमकिन नही. अरुणा कि इस दर्द भरी दास्ताँ पर जहाँ याचिका करता पिंकी वीरानी ने किताब लिखी है वहीँ मुम्बई कि एक महिला पत्रकार सविता एच खर्तदे ने महत्वपूर्ण मुद्दे की बात उठाई है कि अरुणा की जिंदगी बर्बाद करने वाले को सज़ा क्यूं नहीं? सविता ने बहुत ही मार्मिक शब्दों में लिखा,"अरुणा की कहानी सुनकर और हालत देखकर कलेजा कांप उठा उठता है.कोर्ट से यही निवेदन है कि उन्हे इज्जत की मौत बख्श दे. खत्म कर दे उनकी शारीरिक पीडा को.जीवन के 36 साल से शारीरिक और मानसिक पीडा से बेहाल अरूणा की देखभाल मुंबई के के.ई.एम अस्पताल की नर्सें और कर्मचारी कर रहे है. अरूणा का बस यही परिवार है जो कि खून के रिश्ते से बढकर. खून के रिश्तेदार भी तिमारदारी करने में हिचकिचाते है लेकिन अस्पताल कर्मी नही. उनको तो सलाम है, लेकिन आज भगवान के अस्तित्व पर शंका हो रही है.भगवान को माननेवालों में से मैं जरूर हूं, लेकिन आज इस दर्द को देखकर लग रहा है कि भगवान है ही नही, होते तो इतने निष्ठुर नही होते। सरकार से निवेदन है कि कानून में कुछ प्रावधान करें ऐसे मार्मिक मामलों की तह में जाकर के पीडितों के दु:खों को दूर करे. उस फाईल को खोलकर उस वहशी दरींदे को मृत्यूदंड की सजा सुनाये जिसने एक नाजूक सी जिंदगी को बर्बाद कर दिया." महत्वपूरण मुद्दों को उठाने वाली इस पत्रकार सविता की पोस्ट को आप यहां क्लिक करके भी पढ़ सकते हैं.अगर इच्छा मौत की सुविधा को कानूनी मान्यता मिल जाती है तो बहुत से लोगों के लिए यह किसी वरदान से कम नहीं होगी क्यूंकि उन्हें दर्द से निजात मिलना बहुत ही आसान हो जायेगा पर क्या गारंटी है कि मुजरिमाना सोच के लोग अनैतिक ढंग तरीके अपना कर इसे अपने विरोधियों को मिटाने के लिए नहीं करेंगे? इस तरह के बहुत से सवाल भी सामने हैं.समाजिक न्याय और आम इंसान की सुरक्षा को बचाने के लिए इनके जवाब भी अभी से ढूँढने होंगे. -रेक्टर कथूरिया
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