Tuesday, March 08, 2011

जो दवा के नाम पे ज़हर दे उसी चारागर की तलाश है....

अरुणा की हालत बहुत ही करुणा जनक है.उसकी हड्डियाँ चरमरा चुकी हैं,त्वचा में सक्रमण हो चुका है.कलाईयाँ भीतर की और मुड  चुकी हैं.कोमा में पड़ी अरुणा में अगर जिंदगी की कोई निशानी है तो बस यही कि उसकी सांस चल रही है.दुनिया के बहुत से हिस्सों में इस बात पर बहस जारी है कि अगर किसी की  हालत असहनीय हद तक बिगड़ जाये और केवल मौत ही उसे दर्द से छुटकारा दिला सकती हो तो ऐसी हालत में मौत बुरी नहीं होगी लेकिन कानूनी पेचीदगियां और समाजिक सरोकारों के चलते अभी तक इस इच्छा मृत्यु को पूरी मान्यता नहीं मिल सकी. गौरतलब है कि अमेरिका के ओरेगांव में सम्मानजनक मृत्यु से संबंधित यह अधिनियम 1997 से ही लागू हो गया था हालांकि अमेरिका के 15 राज्यों में इसे 'असिस्ट सुसाइड' के रूप में मान्यता देने के लिए वोटिंग कराई गई लेकिन इसे कानूनी मान्यता मिली केवल ओरेगांव में. आपको याद होगा कि यह वही ओरेगांव है जहां के बहुत से लोगों ने कभी भारतीय दर्शन से प्रभावित हो कर जिंदगी जीने के अनूठे और ऐतिहासिक तरीके व  सलीके सीखे थे. इसी तरह अल्बानिया और लग्जमबर्ग में भी यूथनेशिया को लीगल माना हुआ  है.ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी हिस्से में भी नब्बे के दशक में एक छोटी सी अवधि के लिए इसकी इजाजत हुआ करती थी. दुनिया के जाने माने और बहु चर्चित देश स्विट्जरलैंड में भी आत्महत्या तो जुर्म है लेकिन किसी लाइलाज बीमारी की स्थिति में मृत्यु पाने की इजाजत वहां 1942 में ही दे दी गई थी. वहां भी ऐसी इच्छा मौत केवल डाक्टर कि सहायता से ही मिल सकती है. इस काम को वहां अपराध नहीं माना जाता और इसके लिए डॉक्टरों को सजा नहीं होती. इसी तरह नीदरलैंड में भी डॉक्टरों की मदद से दी गई इस तरह की मृत्यु को वैध माना गया है. दुनिया के बहुत से एनी भागों में भी जहां इसे उचित नहीं माना जाता वहां भी उन लोगों की  कमी नहीं है जो इसके हक में हैं. पर यह भारत है. मेरा भारत महान.यहां कहा जाता है कि जब तक सांस तब तक आस. बस इसी आस और उम्मीद को लेकर मुंबई के केईएम अस्पताल की नर्स रहीं अरुणा शानबाग को बचाने के लिए वहां कि नर्सें और डाक्टर पूरी तन्मयता से उसकी सेवा में लगे हैं.यह वही अस्पताल है जहां 37 वर्ष पूर्व अरुणा के  साथ अस्पताल के ही कर्मचारी सोहनलाल वाल्मीकि ने 27 नवंबर 1973 को कुत्ता बांधने वाली ज़ंजीर गले में बाँध कर यौनाचार किया था.तभी से अरुणा कोमा में हैं.अब उसकी उम्र साठ वर्ष की हो चुकी है. इच्छा मृत्यु पर जस्टिस मार्कन्डेय काटजू और ज्ञानसुधा मिश्रकी बेंच ने अपने 110 पृष्ठ के इस ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से परोक्ष इच्छा मृत्यु की इजाजत तो दे दी है लेकिन साथ ही इंजेक्शन के जरिए मौत की नींद सोने की इच्छा रखने वालों को सक्रिय दया मृत्यु के प्रावधान को सिरे से नकार दिया और कहा कि भारत में इस तरह की मौत चाहने वालों की इच्छा पूरी नहीं की जा सकती. उल्लेखनीय है कि अस्पताल के बिस्तर पर लंबे समय तक बेहोशी की हालत में पडे मरीज को निष्क्रिय इच्छा मृत्यु की इजाजत कडी शर्तो के साथ दी जाती है. इस नाज़ुक मामले पर न्यायमूर्ति काटजू ने कहा कि सचेतन दया मृत्यु यानी एक्टिव यूथनेशिया पूरी तरह से अवैध है क्योंकि इसके लिए कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है.साथ ही माननीय न्यायालय ने यह भी कहा कि कुछ विशेष परिस्थितियों में उच्च न्यायालय की अनुमति पर जीवन रक्षक प्रणाली को हटाकर अचेतन दया मृत्यु की अनुमति दी जा सकती है.अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालय तीन प्रमुख चिकित्सकों की राय लेने के साथ ही सरकार तथा अचेतावस्था में पडी मरीज के करीबी रिश्तेदारों की राय जानने के बाद इसकी अनुमति प्रदान कर सकता है.काबिले ज़िक्र है कि अरूणा रामचंद्रन शानबाग ने 1966 में केईएम हॉस्पिटल में नर्स की नौकरी से कैरियर की शुरूआत की थी.सुनहरे भविष्य के सपने संजो कर यहां आई अरुणा को क्या मालुम था कि उसके साथ यहां यह होगा. हॉस्पिटल में ही एक सफाई कर्मी ने अरूणा को हवस का शिक्कर बनाया तबसे वह कोमा में है.मौत की आज्ञा उसकी दोस्त पिंकी वीरानी ने मांगी थी.पिंकी ने भोजन बंद करने का आदेश मांगा था ताकि अरुणा इस नारकीय जीवन से मुक्त हो सके। 
पंजाब केसरी में भी खबर 
दर्द और रोग से ग्रस्त मरीजों को इच्‍छा मृत्‍यु दिए जाने की मांग करने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि उन्‍हें मारने की इजाजत नहीं दी जा सकती.माननीय  अदालत ने इतने वर्षों से उनकी देखभाल कर रहे अस्पताल स्टाफ की भी तारीफ की. इच्छा मौत की याचिका रद्द होने की खबर आते ही अस्पताल के स्टाफ ने खुशियाँ मनायीं और एक दुसरे का मूंह भी मीठा कराया.  गौरतलब है कि जस्टिस मार्केंडेय काटजू और जस्टिस ज्ञानसुधा मिश्रा की बेंच ने फैसला देते हुए कहा कि कुछ असाध्‍य बीमारियों से पीडि़त मरीजों के मामले में कानूनी तौर पर लाइफ सपोर्ट सिस्‍टम हटाया जा सकता है. लेकिन अरुणा शानबाग के मामले में तथ्य, परिस्थिति, डॉक्टरों की राय आदि को ध्यान में रखकर यह इजाजत नहीं दी जा सकती. बेंच ने यह भी कहा कि वर्तमान में इच्छा मृत्यु के संबंध में कोई कानून भी मौजूद नहीं है लेकिन कुछ मामलों के लिए कानून बनाया जा सकता है.कभी किसी ने शायराना अंदाज़ में कहा गया था कि जो दवा के नाम पे ज़हर दे उसी चारागर की तलाश है. मन और तन की यह हालत अक्सर उस समाया होती है जब दर्द सभी सीमाएं पार कर जाता है. जब हर सीमा पार करके भी दर्द से निजात नहीं मिलती. दर्द जब हद से बढ़ कर भी दवा नहीं होता तो फिर केवल मौत के मूंह में जिंदगी महसूस होने लगती है. ऐसी हालत में मौत की मांग बार बार उठती है. लेकिन यह दुनिया है. मांगने से यहां कुछ नहीं मिलता. न जिंदगी न मौत. साहिर लुधियानवी साहिब ने कभी लिखा था..
मौत कभी भी मिल सकती है, लेकिन जीवन कल न मिलेगा. 
मरने वाले सोच समझ ले, फिर तुझको यह पल न मिलेगा. 
लेकिन विज्ञान की तरक्की ने सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ को आसान भी कर दिया है. आज मौत भी मिल सकती है और वो भी दर्द के बिना. मेडिकल क्षेत्र में एक्टिव यूथनेशिया एक ऐसी विधि है  जिसमें मरीज को जहर आदि का इंजेक्शन लगाकर सीधे तौर पर मार दिया जाता है लेकिन ऐसा करते या कराते वक्त पाप की भावना अगर मन में आ जाये तो इसमें भागीदार रहे लोग खुद को उम्र भर माफ़ नहीं कर पाते. उन्हें लगता है कि उन्हों ने हत्या कि है पाप किया है, किसी से जीने का अधिकार छीना है.इस लिए एक दूसरा तरीका भी है जिसका नाम है यूथनेशिया बाई ओमीशन: इस तरीके के अंतर्गत  इच्छा मौत  को चाहने वाले मरीज को दी जा रही जीवन रक्षक सुविधा हटा ली जाती है और सब कुछ प्रकृति पर छोड़ दिया जाता है. मरीज़ खुद-बी-खुद मौत की आगोश में पहुँच जाता है. इसमें भागीदार लोग खुद को कसूओर्वार समझाने कि ग्लानी से मुक्त रह जाते हैं. इसके अलावा एक तीसरा तरीका भी है जिसे कहा जाता है पैसिव यूथनेशिया. इस विधि में जीवन रक्षक प्रणाली (लाइफ सपोर्ट सिस्टम), दवाएं और इलाज रोकना, भोजन और पानी की आपूर्ति रोकना, हृदय और सांस के लिए मदद रोकने जैसी चीजें शामिल हैं.उनके साथ हुए कुकर्म का उन्हे इंसाफ तो नही मिला, लेकिन जिंदा लाश ढोना अब मुमकिन नही. अरुणा कि इस दर्द भरी दास्ताँ पर जहाँ याचिका करता पिंकी वीरानी ने किताब लिखी है वहीँ मुम्बई कि एक महिला पत्रकार सविता एच खर्तदे ने महत्वपूर्ण मुद्दे की बात उठाई है कि अरुणा की जिंदगी बर्बाद करने वाले  को सज़ा क्यूं नहीं? सविता ने बहुत ही मार्मिक शब्दों में लिखा,"अरुणा की कहानी सुनकर और हालत देखकर कलेजा कांप उठा उठता है.कोर्ट से यही निवेदन है कि उन्हे इज्जत की मौत बख्श दे. खत्म कर दे उनकी शारीरिक पीडा को.जीवन के 36 साल से शारीरिक और मानसिक पीडा से बेहाल अरूणा की देखभाल मुंबई के के.ई.एम अस्पताल की नर्सें और कर्मचारी कर रहे है. अरूणा का बस यही परिवार है जो कि खून के रिश्ते से बढकर. खून के रिश्तेदार भी तिमारदारी करने में हिचकिचाते है लेकिन अस्पताल कर्मी नही. उनको तो सलाम है, लेकिन आज भगवान के अस्तित्व पर शंका हो रही है.भगवान को माननेवालों में से मैं जरूर हूं, लेकिन आज इस दर्द को देखकर लग रहा है कि भगवान है ही नही, होते तो इतने निष्ठुर नही होते। सरकार से निवेदन है कि कानून में कुछ प्रावधान करें ऐसे मार्मिक मामलों की तह में जाकर के पीडितों के दु:खों को दूर करे. उस फाईल को खोलकर उस वहशी दरींदे को मृत्यूदंड की सजा सुनाये जिसने एक नाजूक सी जिंदगी को बर्बाद कर दिया." महत्वपूरण मुद्दों को उठाने वाली इस पत्रकार सविता की पोस्ट को आप यहां क्लिक करके भी पढ़ सकते हैं.अगर इच्छा मौत की सुविधा को कानूनी मान्यता मिल जाती है तो बहुत से लोगों के लिए यह किसी वरदान से कम नहीं होगी क्यूंकि उन्हें दर्द से निजात मिलना बहुत ही आसान हो जायेगा पर क्या गारंटी है कि मुजरिमाना सोच के लोग अनैतिक ढंग तरीके अपना कर इसे अपने विरोधियों को मिटाने के लिए नहीं करेंगे? इस तरह के बहुत से सवाल भी सामने हैं.समाजिक न्याय और आम इंसान की सुरक्षा को बचाने के लिए इनके जवाब भी अभी से ढूँढने होंगे. -रेक्टर कथूरिया 

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