हालांकि मैंने काफी समय से रेडियो नहीं सुना लेकिन फिर भी अभी यह कल की बात ही लगती है. बिनाका गीत माला और तामील-ए-इरशाद का एक अलग ही संसार था. फरमाइश में भाग लेने वाले श्रोतायों में एक परिवार की तरह प्यार बना हुआ था. एक दूसरे से दुआ सलाम और हाल चाल पूछना एक आम सी बात थी. एक दूसरे से मिलना मिलाना और एक दूसरे के पारिवारिक समारोहों में भाग लेना एक अवशयक हिस्सा बन गया था. दूरदर्शन के लोकप्रिय होते ही धीरे धीरे निजी टीवी भी आया और फिर केबल का करिश्मा छाता ही चला गया. इस सब कुछ से रेडियो का जादू कम तो नहीं हुआ लेकिन नयी पीड़ी का एक बहुत बड़ा हिस्सा इस से वाकिफ भी नहीं हो पाया. मैंने अख़बारों में भी काम किया और टीवी में भी लेकिन जो मज़ा मुझे रेडियो के लिए काम कर के आता था वह कभी नहीं आया. आकाशवाणी जालंधर में काम करने वाले सभी लोग कैसे एक प्रोग्राम को सफल बनाने के लिए जी जान से सहयोग देते थे उसे शब्दों में ब्यान नहीं किया जा सकता. एक एक गीत, एक एक वार्तालाप, एक एक मुद्दा....तन, मन और अंतर आत्मा की सभी शक्तियों को केवल आवाज़ पर केन्द्रित करके काम करना. केवल और केवल आवाज़ के ज़रिये दर दूर बैठे लोगों के दिल और दिमाग तक पहुंचना..सचमुच किसी साधना से कम नहीं होता. रेडियो अभी भी चल रहा है. पर बहुत से गीत हैं जो अब भूले बिसरे लगते हैं. इस तरह के कई गीत हैं और कई गजलें. अगर आप चाहें तो इनका आनंद पा सकते हैं. अभी......बस यहां क्लिक करके ! जहां आपको मिलेगा रेडियो से जुड़ा हुआ बहुत कुछ और भी. --रैक्टर कथूरिया.
3 comments:
आभार..
बचपन में सुनी अमीन साहनी की आवाज बिनाका गीत माला आज भी कान में गुँजती है..
जब तक नेट पर रहता हूँ कमरे में विविध भारती का डीटीएच चलता रहता है। बिनाका गीतमाला की तो बात ही कुछ और थी।
यादों में वापस ले गए आप
बी एस पाबला
ਛੜਾ ਦਿੱਲੀਓਂ ਮਸ਼ੀਨ ਲਿਆਇਆ,
ਕਿ ਚੰਦ ਕੌਰ ਵਿਚੋਂ ਬੋਲਦੀ ।
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